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Friday, September 4, 2015

असली प्रधानमंत्री अरुण जेटली

गूगल पर देखता रहता हु. कौन क्या सोचता है आज के देश के हालत पर तो मजा आ गया इस लेख को पड़ कर की समस्याएं गहराती जा रही हैं. लोग परिणाम चाहते हैं. भाजपा में भी बेचैनी है. वरिष्ठ नेताओं एवं वरिष्ठ सांसदों का प्रधानमंत्री से न संपर्क है और न संवाद. प्रधानमंत्री के भक्त कहते हैं कि इस साल, बिहार के चुनावों के बाद समस्याओं का हल होना प्रारंभ हो जाएगा. सवाल यह है कि भाजपा के भीतर विश्वास बहाली का अभियान कब शुरू होगा.
मंत्रियों का संवाद अपने प्रधानमंत्री से नहीं है, सांसदों का संवाद अपने मंत्रियों से नहीं है और कार्यकर्ताओं का संवाद अपने सांसदों से नहीं है. पिछली बार के संसद सत्र के आ़िखरी दिन भारतीय जनता पार्टी के संसदीय दल की बैठक हुई, जिसमें कई लोगों ने भाषण दिए. सबसे आ़िखर में वेंकैय्या नायडू ने पूछा कि क्या और किसी को कोई सुझाव देना है? बलिया से सांसद भरत सिंह उठे और उन्होंने कहा कि यहां जितनी बातें हो रही हैं, उनका ज़मीन से कोई लेना-देना नहीं है, कहीं कोई काम नहीं हो रहा है, कोई हमारी बात नहीं सुन रहा है और हम जनता के बीच में मुंह दिखाने के लायक नहीं हैं. पचास प्रतिशत समय हम जनता से अपना चेहरा छिपाने में खर्च करते हैं, क्योंकि हम कहें, तो क्या कहें? भरत सिंह के आठ मिनट के भाषण ने संसद के केंद्रीय कक्ष में सन्नाटा तो फैलाया ही, लेकिन जैसे ही भरत सिंह का भाषण समाप्त हुआ, तेजी के साथ बहुत सारे सांसदों ने अपनी मेजें थपथपाईं. यह देखकर प्रधानमंत्री चौंक गए और बैठक का संचालन कर रहे वेंकैय्या नायडू भी. और, उन्होंने तत्काल कहा कि अब यह मीटिंग समाप्त होती है, प्रधानमंत्री जी को काम है. बैठक समाप्त हो गई. लेकिन, यह संकेत बताता है कि प्रधानमंत्री की कार्यशैली से उनकी पार्टी ही खुश नहीं है. संघ पूर्णतय: खामोश है, नज़र रखे हुए है. कुछ-कुछ बातें बाहर आती हैं, पर वे ऐसी नहीं हैं, जिन्हें हम निर्णायक मानें. पहली बात अंडरलाइन होकर यह बाहर आई कि संघ ने अपने बीच में कहा था कि हम साल भर तक मोदी सरकार के कार्यकलापों के बारे में कोई विश्लेषण नहीं करेंगे और न कोई राय देंगे. वह समय सीमा मई समाप्त होते-होते पूरी हो गई. अब संघ में थोड़ी बेचैनी है और वह रहस्यमय ढंग से होने वाली घटनाओं, रहस्यमयी चेहरों, रहस्यमयी गतिविधियों एवं विचारों को लेकर चिंतित हो गया है. अगर इस सबको समझना है, तो हमें शुरुआत से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के शपथ लेने के समय से घटी घटनाओं का विश्लेषण करना होगा, तभी हम जान पाएंगे कि यह सब क्या हो रहा है. नरेंद्र मोदी इस समय देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हैं. जब व्यक्ति सर्वशक्तिशाली होता है, तब कुछ अंतर्विरोध भी पैदा होते हैं. अगर वे अंतर्विरोध सामान्य हों, तो उन्हें सतह पर आने में देर लगती है, लेकिन अगर असामान्य हों, तो बहुत जल्दी सतह पर आ जाते हैं. कुछ अंतर्विरोध इस तेजी से बढ़ रहे हैं, जिनके बारे में अब अंदाज़ा लगाया जाने लगा है कि वे असामान्य ढंग से क्यों आगे बढ़ रहे हैं. श्री नरेंद्र मोदी की संपूर्ण कार्यप्रणाली के पीछे कुछ रहस्यमयी चेहरे हैं, कुछ रहस्यमयी गतिविधियां हैं और कुछ रहस्यमयी विचारधाराएं हैं. जब किसी देश को नरेंद्र मोदी जैसा व्यक्तित्व मिलता है, तब यह माना जाना चाहिए कि इस तरह के रहस्यमयी घटनाक्रम पर विराम लगेगा. पर यह संयोग है कि विराम लगने की जगह रहस्यमयी घटनाक्रम पूरी तेजी से घटित हो रहा है. संपूर्ण भारतीय जनता पार्टी एक अनोखे संशय में घिर गई है. जो कभी नहीं हुआ, आज वह भारतीय जनता पार्टी की सरकार में हो रहा है.

क्यों आए सुरेेश सोनी की जगह कृष्णगोपाल शर्मा
जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने या कहें कि जब उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए देश में अपना अभियान शुरू किया, तब कई घटनाएं एक साथ घट रही थीं. भारतीय जनता पार्टी के अंदर संघ के प्रतिनिधि का काम सुरेश सोनी कर रहे थे. वह संघ और भारतीय जनता पार्टी के बीच संदेश वाहक का काम करते थे. उन्होंने यह काम अचानक बंद कर दिया. अब अंदाज़ा यह लगाया जा रहा है कि ऐसा उन्होंने इसलिए किया, ताकि वह नरेंद्र मोदी और संघ के बीच या दूसरे शब्दों में भारतीय जनता पार्टी और संघ के बीच एक खालीपन की स्थिति  पैदा (वैक्यूम क्रिएट) कर सकें. वह एक केंद्रीय मंत्री के बहुत नज़दीक थे. इसलिए अब भारतीय जनता पार्टी के बड़े कार्यकर्ता यह अंदाज़ा लगा रहे हैं कि उस मंत्री को मदद करने के लिए सुरेश सोनी ने यह वैक्यूम क्रिएट किया. एक तऱफ वैक्यूम क्रिएट हो रहा था, वहीं दूसरी तऱफ संघ के बीच भी हलचल हो रही थी. संघ ने सुरेश सोनी जी की जगह कृष्ण गोपाल जी को भारतीय जनता पार्टी के बीच मुख्य संदेश वाहक या मुख्य कार्यपालक के रूप में भेज दिया. कृष्ण गोपाल के संबंध और समीकरण नरेंद्र मोदी से वैसे नहीं थे, जैसे सुरेश सोनी के थे. सुरेश सोनी बहुत दिनों से भारतीय जनता पार्टी और संघ के बीच कड़ी का काम कर रहे थे. इसलिए उनके देश के सभी राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों से रिश्ते थे. कृष्ण गोपाल अब तक नॉर्थ-ईस्ट का काम देख रहे थे. इसलिए उनके सबसे संबंध थे नहीं. उन्हें अचानक यहां पर भेजा गया, जिसने भारतीय जनता पार्टी और संघ के बीच एक नई स्थिति पैदा कर दी. संघ ने देखा कि जितने बड़े बहुमत और जनसमर्थन से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, उसमें उसे कैबिनेट फॉरमेशन या सरकार बनाने की प्रक्रिया में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, स़िर्फ सूचनाएं मंगानी चाहिए, जिसके लिए कृष्णगोपाल बिल्कुल सही व्यक्ति थे, जो सूचनाओं में न हेराफेरी करते और न अपनी निजी पसंदगी को कोई मुद्दा बनाते.

मंत्रिमंडल के गठन में अरुण जेटली की भूमिका
मंत्रिमंडल के गठन में कुछ ऐसी घटनाएं हुईं, जिन्हें देखकर भारतीय जनता पार्टी के नेता चौंक गए. अरुण जेटली अमृतसर से लोकसभा का चुनाव हार गए. हक़ीक़त यह है कि अरुण जेटली आज तक कभी भी कोई चुनाव नहीं जीते. लेकिन, जब नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में लिया, तो भारतीय जनता पार्टी के लोगों को थोड़ी चिंता हुई. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे, तो उनके सर्वाधिक विश्वस्त दो व्यक्ति चुनाव हार गए थे. पहला नाम प्रमोद महाजन का था और दूसरा जसवंत सिंह का. अटल जी ने उन्हें मंत्रिमंडल में नहीं लिया. वे मंत्रिमंडल में आए, लेकिन बहुत बाद में. नरेंद्र मोदी ने अरुण जेटली को न केवल मंत्री बनाया, बल्कि देश के दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंत्रालय उन्हें सौंप दिए, वित्त और रक्षा. इतना ही नहीं, आर्थिक विषयों से जुड़े जितने भी मंत्रालय थे, उनके मंत्री वे बनाए गए, जो अरुण जेटली के सर्वाधिक नज़दीक थे या जिनकी उन्होंने सिफारिश की थी. उन मंत्रियों के चयन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि क्या वे उस पद के साथ न्याय कर सकते हैं, उस विषय को जानते हैं या उस मंत्रालय को चला सकते हैं? स़िर्फ यह ध्यान रखा गया कि अरुण जेटली ने उनके नाम लिए हैं और वे उनके विश्वासपात्र हैं. इसलिए देश की अर्थव्यवस्था से जुड़े जितने मंत्रालय हैं, वे उन्हें दे दिए गए. पहला उदाहरण निर्मला सीतारमण का है. उन्हें इकोनॉमी का न कोई अनुभव है, न कोई ज्ञान है और न वह जानती हैं कि उन्हें इतना बड़ा मंत्रालय दे देना भाजपा के उन लोगों को, जो पार्टी का भला चाहते हैं, चौंका गया. निर्मला सीतारमण का भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता के अलावा देश में कोई राजनीतिक कद भी नहीं था.

दूसरा नाम धर्मेंद्र प्रधान का है, जो अब तक स़िर्फ पार्टी के काम में व्यस्त रहते थे. उन्हें पेट्रोलियम और नेचुरल गैस मिनिस्ट्री दे दी गई. अब तक यह मंत्रालय उन्हें दिया जाता रहा है, जो बहुत वरिष्ठ व्यक्ति होते हैं और जिन्हें देश की सबसे बड़ी आवश्यकता पेट्रोलियम और नेचुरल गैस का महत्व पता हो. कोयला एवं ऊर्जा मंत्रालय पीयूष गोयल को दे दिया गया. अब तस्वीर उभरी कि निर्मला सीतारमण, धर्मेंद्र प्रधान, पीयूष गोयल, पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और वित्त मंत्री वह (जेटली)  खुद.  और, ये सारे लोग राज्यसभा के! इसका मतलब यह कि भारतीय जनता पार्टी की नई बनी सरकार के ऊपर उन लोगों का कब्जा हो गया, जिनका रिश्ता राज्यसभा से है और जो कभी ज़िंदगी में लोकसभा या जनता के बीच सीधे संवाद के अनुभवी नहीं रहे. मैं इसे राज्यसभा का गैंग नहीं कहता, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता इसे राज्यसभा का गैंग कहते हैं. उद्योग जगत और अर्थव्यवस्था से जुड़े जितने मंत्रालय थे, वे सब अरुण जेटली के हाथ में आ गए और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता आकलन करते हुए बताते हैं कि यह नरेंद्र मोदी से पहली बड़ी ग़लती हुई.

सारे देश में क़ानून से जुड़े लोगों की नियुक्तियां भी अरुण जेटली की इच्छानुसार हुईं. राम जेठमलानी इसे पसंद नहीं करते थे. राम जेठमलानी को यह भ्रम था कि नरेंद्र मोदी उनकी बात सुनेंगे. इसके पीछे एक कारण था.  जब तक राम जेठमलानी ने नरेंद्र मोदी के केस अपने हाथ में नहीं लिए थे, तब तक अदालतें उन्हें परेशान कर रही थीं. लेकिन, जब मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के केस राम जेठमलानी के पास आए, तब उन्हें अदालतों से काफी राहत मिली. इसलिए राम जेठमलानी को लगता था कि वह अगर नरेंद्र मोदी से कहेंगे कि यह चीज ग़लत हो रही है, इसे सुधारें, तो नरेंद्र मोदी सुधारेंगे. पर नरेंद्र मोदी ने ऐसा नहीं किया, बल्कि जो अरुण जेटली ने कहा, उसे उन्होंने माना. अंत में राम जेठमलानी को नरेंद्र मोदी के यहां औपचारिक विरोध दर्ज कराना पड़ा और उन्होंने एक लंबी चिट्ठी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखी कि अरुण जेटली की वजह से क्या-क्या गड़बड़ियां हो रही हैं. लेकिन, वह चिट्ठी भी शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कूड़ेदान में फेंक दी, क्योंकि उसके ऊपर कोई अमल नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी के केस पहले मुकुल रोहतगी एवं स्वयं अरुण जेटली देख रहे थे और उनके जमाने में नरेंद्र मोदी को कई झटके लगे थे. राम जेठमलानी का इसीलिए नरेंद्र मोदी के ऊपर अधिकार भी था. उनका यह भ्रम टूट गया कि नरेंद्र मोदी सच बात को सुनेंगे.

पहला संदेश देश में यह गया कि पूरा मंत्रिमंडल अरुण जेटली की पसंद का, अरुण जेटली केंद्रित, अरुण जेटली के फैसले मानने वाला और अरुण जेटली को रिपोर्ट करने वाला मंत्रिमंडल है. इसमें स़िर्फ एक नाम अरुण जेटली की पसंद का नहीं है, वह हैं स्मृति ईरानी. अरुण जेटली चाहते थे कि स्मृति ईरानी को राज्यमंत्री बनाया जाए, लेकिन नरेंद्र मोदी ने जेटली की बात नहीं मानी और स्मृति ईरानी को सीधे कैबिनेट मंत्री पद की शपथ दिलाने का फैसला किया.

जिन लोगों को अरुण जेटली पसंद नहीं करते थे या जिनसे उनकी मित्रता नहीं थी, उन्हें उन्होंने दूसरी तरह से उनकी हैसियत बताई, जिनमें पहला नाम अनंत कुमार का है. अनंत कुमार का शपथ ग्रहण 13वें नंबर पर हुआ. अनंत कुमार अटल जी के मंत्रिमंडल में मंत्री थे, पार्टी में बहुत वरिष्ठ नेता हैं और पार्लियामेंट्री बोर्ड के मेंबर भी हैं. उन्हें 13वें नंबर पर सदानंद गौड़ा के बाद शपथ दिलवाना यह संदेश देना है कि अगर आप अरुण जेटली के साथ रिश्ता नहीं रखेंगे, तो कैबिनेट में प्रभावशाली मंत्रालय नहीं पा सकते. और, उन्हें अप्रभावी मंत्रालय दिया गया. उन दिनों या उस समय नरेंद्र भाई का प्रभाव इतना ज़्यादा था कि पार्टी में किसी को भी उन्हें यह सब बताने या इसके ऊपर असंतोष जाहिर करने का न अवसर मिला और न किसी की हिम्मत हुई. आडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी जी सहित सभी लोग खामोशी के साथ निरीह ढंग से यह प्रक्रिया देखते रहे.

क्यों निशाने पर आए राजनाथ सिंह
जो लोग नरेंद्र मोदी के कद के नेता थे, जिनमें पहला उदाहरण राजनाथ सिंह का है, उनकी सार्वजनिक छवि धूमिल करने या उनका कद छोटा करने की कोशिश हुई. राजनाथ सिंह ने पार्टी अध्यक्ष रहते हुए पूरी ईमानदारी के साथ नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जी-जान लगा दी, पर नरेंद्र मोदी को उनसे संवाद करने वाले लोगों ने समझाया कि राजनाथ इसलिए यह सब कर रहे हैं, ताकि यदि उनके (नरेंद्र मोदी)  प्रधानमंत्री बनने में कोई अड़चन आए, उनके खिला़फ कहीं से कोई आवाज़ उठे या अदालत कहीं कोई रोक लगाए, तो वह (राजनाथ) नेचुरल च्वॉइस के रूप में उभरें और प्रधानमंत्री बन जाएं. इस कानाफूसी ने राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी के बीच वह समीकरण नहीं बनने दिया, जिससे देश का भला होता. राजनाथ सिंह, जिनका कद नरेंद्र मोदी के बराबर था, को उनकी इच्छानुसार स्टाफ नहीं रखने दिया गया. उनके ऊपर प्रधानमंत्री कार्यालय बैठ गया और उसने राजनाथ सिंह को संदेश दिया कि वह फलां-फलां सज्जन को अपने स्टाफ में नहीं रख सकते. आम तौर पर सरकार में जो बराबर के कद के लोग होते हैं, उन्हें उनकी इच्छा का स्टाफ दिया जाता है, उसमें कभी कोई रोक नहीं लगती. पर भारत सरकार में ऐसा पहली बार देखा गया कि देश का गृहमंत्री अपना ही स्टाफ अपनी मर्जी का नहीं रख सकता. अगर यह करना भी था, तो प्रधानमंत्री चुपचाप राजनाथ सिंह से कह सकते थे कि वह अपना स्टाफ बदलें.

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता यहीं पर अटल बिहारी वाजपेयी को याद करते हैं और बताते हैं कि उन्होंने कभी भी आडवाणी जी का कोई प्रस्ताव अस्वीकार नहीं किया, क्योंकि अटल जी और आडवाणी जी समकक्ष नेता थे. पूरी भारतीय जनता पार्टी को आश्चर्य हुआ कि राजनाथ सिंह, जो पार्टी अध्यक्ष थे और नरेंद्र मोदी के समकक्ष नेता थे, को सार्वजनिक रूप से यह खबर मिली. बजाय इसके कि चुपचाप प्रधानमंत्री उनसे संवाद कर लेते.

देश के प्रधानमंत्री के बाद सबसे कद्दावर नेता पर सबसे बड़ा हमला उनके पुत्र पंकज सिंह को लेकर हुआ. भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि कहीं पर 10 प्रतिशत, 20 प्रतिशत, 30 प्रतिशत सच्चाई हो और उसमें 70, 80, 90 प्रतिशत बात मिलाई जाए, तो समझ में भी आता है. लेकिन, जहां कोई सच्चाई न हो, उसे डिसइनफॉरमेशन कैंपेन के तहत अपने नज़दीकी पत्रकारों के ज़रिये सारे देश में इस तरह फैला देना, जिससे राजनाथ सिंह का कद बौना हो जाए, यह बड़ी सफाई के साथ किया गया. भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता इस सबके पीछे अरुण जेटली का दिमाग बताते हैं. वे कहते हैं कि दरअसल, अरुण जेटली बहुत सारे अ़खबारों और टीवी चैनलों के अनाधिकारिक ब्यूरो चीफ हैं. उनके यहां महफिलें लगती हैं. वह हर हफ्ते, दस दिन में पत्रकारों को खाना खिलाते हैं और ऑफ दि रिकॉर्ड कान में कुछ कह देते हैं. जेटली में एरोगेंसी इतनी बढ़ गई है कि जब वह पत्रकारों को अपने यहां खाने पर बुलाते हैं, तो उन मंत्रियों, जिन्हें उन्होंने अपनी सिफारिश से प्रभावशाली विभाग दिलवाए हैं, को न केवल दरकिनार करते हैं, बल्कि लोगों के सामने यह बताते भी हैं कि  उन मंत्रियों की हैसियत उनके सामने कुछ नहीं है.

राजनाथ सिंह के साथ हुई इस घटना से कैबिनेट के बाकी सभी मंत्री डर-सहम गए. राजनाथ सिंह के साथ दूसरी बड़ी घटना सरकार में उनका कद छोटा करने की हुई. आम तौर पर अब तक यह होता आया है कि एसीसी का मेंबर होने के नाते गृहमंत्री से होकर फाइल प्रधानमंत्री तक जाती थी और तब नियुक्ति होती थी. लेकिन, अब प्रधानमंत्री के यहां से फाइल गृहमंत्री को जाने लगी है,  बिना उनकी राय लिए नियुक्ति होने लगी है और उन्हें कमेटी का मेंबर होने के नाते स़िर्फ उस पर दस्तखत करने होते हैं. यह स्थिति आज भी है. इससे यह बात कैबिनेट में फैली कि नियुक्तियों में गृहमंत्री की भूमिका शून्य कर दी गई है. राजनाथ सिंह के पास फाइलें न जानकारी और न संवाद के लिए, बल्कि स़िर्फ सूचनार्थ जाने लगीं. देश के प्रशासन में सबसे बड़ा रोल गृह मंत्रालय का होता है. पूरे देश में, सरकार में और भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ संघ में संदेश गया कि यह अरुण जेटली केंद्रित कैबिनेट है और देश में जो भी होगा, उनकी मर्जी से होगा. राजनाथ सिंह ने यह स्थिति स्वीकार कर ली और उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसका विरोध नहीं किया, क्योंकि वह स्वभाव से ऐसे हैं कि पार्टी या सरकार के भीतर चलने वाले विवादों में कभी भी युद्ध नहीं करते.

सरकार के बाद संगठन पर कब्जा जमाने की रणनीति
सरकार के बाद संगठन का सवाल आया. भारतीय जनता पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेताओं ने बताया कि राजनाथ सिंह सरकार में जाना ही नहीं चाहते थे. वह मोदी मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे, बल्कि पार्टी अध्यक्ष के नाते अपना काम करना चाहते थे. लेकिन, व्यापक रणनीति में यह बात कुछ लोगों को समझ में आ गई कि अगर ऐसा होगा, तो चूंकि राजनाथ सिंह दो बार पार्टी अध्यक्ष रहे हैं और उन्होंने हर प्रदेश की राजनीतिक गतिविधियां देखी हैं, ऐसे में वह सत्ता का एक केंद्र हो जाएंगे और पॉवर बैलेंस का काम करेंगे. इसलिए राजनाथ सिंह को यह ़खबर पहुंचाई गई कि संघ चाहता है कि वह अध्यक्ष पद छोड़ें, किसी और को दें और तत्काल मंत्रिमंडल में शामिल हो जाएं. उधर संघ को ़खबर पहुंचाई गई कि राजनाथ सिंह खुद मंत्री बनना चाहते हैं और पार्टी अध्यक्ष पद के लिए किसी और को लाने में रुचि दिखा रहे हैं. इस स्थिति में अमित शाह का चुनाव स्वाभाविक था, क्योंकि नरेंद्र मोदी अपने विश्वस्त व्यक्ति कोे ही पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहते थे. अरुण जेटली ने कहा कि उनसे (अमित शाह) विश्वस्त इस वक्त और कौन हो सकता है. हालांकि, अमित शाह के चुनाव को भारतीय जनता पार्टी का कोई भी नेता पचा नहीं पा रहा था. उसका स़िर्फ एक कारण था. उन्हें लगता था कि इससे शक्ति संतुलन या सत्ता संतुलन में असंतोष आ जाएगा और पार्टी एवं सरकार, दोनों मिलकर पार्टी की स्वतंत्र पहचान खो देंगी. पार्टी के बड़े नेता चाणक्य का एक कथन कहते हैं कि हमेशा सत्ता संतुलन बना रहना चाहिए और दूसरे शब्दों में, आग को पानी का और पानी को आग का डर बना रहना चाहिए. जब दोनों एक ही धरातल पर आ जाते हैं, तो वह स्थिति प्रशासन और राजनीति के संचालन के लिए विनाशकारी होती है.

वह विजय का दौर था, हरियाणा और महाराष्ट्र भारतीय जनता पार्टी जीत गई थी. लेकिन अब भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता बताते हैं कि चुनाव जीतने के बाद जो फैसले हुए, उनमें अनुभव की कमी दिखी. उदाहरण के तौर पर, हरियाणा के मुख्यमंत्री पद पर मनोहर लाल खट्टर की नियुक्ति और महाराष्ट्र में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला. अकेले चुनाव लड़ना तो ठीक था, लेकिन चुनाव के बाद जिस तरह शिवसेना के साथ सार्वजनिक संवाद हुए, आरोप-प्रत्यारोप हुए, खबरें लीक की गईं और जिस तरह का फ्लर्ट राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ हुआ, उससे भारतीय जनता पार्टी की नैतिक ताकत में बहुत कमी आई. यह लगा कि भारतीय जनता पार्टी स़िर्फ नैतिकता की बात करती है, वास्तव में उसका नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं है.

दिल्ली पर एकाधिकार स्थापित करने की राजनीति
दिल्ली हमेशा से अरुण जेटली की जागीर रही है. उन्होंने हमेशा दिल्ली पर अपना एकाधिकार माना है. 2013 में उन्होंने विजय गोयल को हटाकर डॉ. हर्षवर्धन को दिल्ली सौंपी. फिर उन्होंने चांदनी चौक से सुधांशु मित्तल को सीन से हटाने के लिए उनका नाम काटकर डॉ. हर्षवर्धन का नाम उम्मीदवारों में जुड़वाया. अगर डॉ. हर्षवर्धन को लड़ाना ही था, तो उन्हें पूर्वी दिल्ली से लड़ाया जा सकता था, जहां उनका कार्य क्षेत्र रहा है. पर, चूंकि सुधांशु मित्तल को हटाना था और इसलिए हटाना था, क्योंकि वह प्रमोद महाजन के बहुत नज़दीक थे. सो, उनकी जगह डॉ. हर्षवर्धन लाए गए. सुधांशु मित्तल के बारे में यह माना जाता है कि वह भारतीय जनता पार्टी के समर्पित नेता हैं, व्यवसाय करते हैं और पार्टी के लिए बड़े पैमाने पर साधनों की व्यवस्था भी करते हैं. इसलिए लंबा भविष्य देखकर दिल्ली से उन सारे लोगों को दाएं-बाएं किया गया, जो कभी भविष्य में अरुण जेटली के लिए चुनौती बन सकते थे.

भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता बताते हैं कि जब इतने बड़े बहुमत से केंद्र में सरकार बनी, तो तत्काल दिल्ली विधानसभा का चुनाव करा लेना चाहिए था, लेकिन अरुण जेटली इसके पक्ष में नहीं थे. वही पुलिस कमिश्नर और वही उप-राज्यपाल बरकरार रखे गए, क्योंकि दोनों ने अरुण जेटली के यहां अपने विश्वासी होने का संदेश सफलतापूर्वक भेज दिया था. भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता यह भी कहते हैं कि जब सत्ता बदलती है, तो लोग चेहरों को भी बदला हुआ देखना चाहते हैं, पर अरुण जेटली ने ऐसा नहीं होने दिया. सात महीने तक पुलिस कमिश्नर एवं एलजी का न बदलना, आलस्य करना और दिल्ली में कोई काम न होना आदि ने भारतीय जनता पार्टी की साख पर बड़ा बट्टा लगाया. पार्टी के भीतर लगभग इस बात पर सहमति है कि यह सब अरुण जेटली की वजह से हुआ.

इतना ही नहीं, डॉ. हर्षवर्धन को पहले स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया और जब उन्होंने केतन देसाई को मदद करने वाली लाइन पर अमल नहीं किया, तो उन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय से हटाकर एक महत्वहीन मंत्रालय में भेज दिया गया. इसने भी पार्टी के भीतर अरुण जेटली को लेकर शंकाएं उत्पन्न कीं. लोगों को लगा कि अरुण जेटली का अपना कोई अलग एजेंडा है. लेकिन, बहुमत बहुत बड़ा था, नरेंद्र मोदी अब किसी के संपर्क में आ नहीं रहे थे. उनके संपर्क में केवल अरुण जेटली और अमित शाह थे. अन्य किसी में नरेंद्र मोदी को कुछ बताने की हिम्मत नहीं थी. लोगों को पहला डर यह था कि नरेंद्र मोदी सुनेंगे कि नहीं सुनेंगे? और, दूसरा डर यह कि अरुण जेटली अगर नाराज़ हो गए, तो उनके राजनीतिक भविष्य का क्या होगा? हर्षवर्धन के इस डिमोशन ने यह सवाल पैदा कर दिया कि जो शख्स छह महीने पहले पार्टी को जिताने के लिए लाया गया और चार महीने पहले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार था, वह अचानक इतना बुरा कैसे हो गया?

जब विजय गोयल को हटाया गया, उस समय वह दिल्ली में जी-जान से मेहनत कर रहे थे और पार्टी को उन्होंने नए सिरे से खड़ा किया था. लेकिन, जब उन्हें हटाने का ़फैसला लिया गया, तो नरेंद्र मोदी से राय-मशविरा करके उनसे दो वादे किए गए. पहला यह कि उन्हें राज्यसभा में लाया जाएगा और दूसरा यह कि उन्हें कैबिनेट में जगह दी जाएगी. पार्टी के भीतर यह चर्चा शुरू हो गई कि हर्षवर्धन को मंत्री इसलिए बनाया गया, ताकि विजय गोयल को मंत्री न बनाना पड़े. एक ही प्रदेश से दो कैबिनेट मंत्री नहीं हो सकते और वैश्य समाज से दो हो ही नहीं सकते. यह एक मोटा सिद्धांत है. इसी सिद्धांत का सहारा लेकर विजय गोयल से वादा़िखला़फी की गई और उन्हें केंद्रीय मंत्री नहीं बनाया गया.

पार्टी के भीतर इन सभी घटनाओं को अरुण जेटली के निजी एजेंडे के तौर पर देखा गया. कार्य आवंटन में अरुण जेटली की राय चली, मंत्रिमंडल के फेरबदल में उन्होंने खुद सूचना प्रसारण मंत्रालय ले लिया और रविशंकर प्रसाद को विधि मंत्रालय से हटा दिया. प्रसाद को इसलिए हटाया गया, क्योंकि उन्होंने विधि एवं न्याय मंत्री के नाते इंडिपेंडेंट एजेंडा लागू करने की कोशिश की, जो अरुण जेटली को पसंद नहीं आया.

आर्थिक विकास के लिए ज़िम्मेदार मंत्रालय निष्क्रिय क्यों हुए
पार्टी में एक नई चर्चा शुरू हो गई कि आप अपने विश्वासपात्र लोगों को अवश्य रखिए, लेकिन अंत में वे जिस सिस्टम को चलाने के लिए लाए गए, उन्हें उस सिस्टम को डिलीवर करना पड़ेगा. अगर आप ऐसे लोगों को विश्वासपात्र बनाते हैं, जो देश को अपने कामों से कोई नतीजा नहीं दे पाते हैं, तो यह काउंटर प्रोडक्टिव होगा. आज भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं को लग रहा है कि इस स्थिति ने पार्टी के ़िखला़फ देश में माहौल बनाना शुरू कर दिया है. पार्टी के भीतर यह मानना है कि जितनी भी इकोनॉमिक मिनिस्ट्रीज (आर्थिक मामलों से जुड़े महत्वपूर्ण मंत्रालय) हैं, जो देश के विकास के लिए काम करके नतीजे ला सकती हैं, उनमें से कोई भी कामयाब नहीं है. पार्टी में एक आम राय बनी हुई है कि इकोनॉमिक मिनिस्ट्रीज का पूर्ण रूप से ब्रेक डाउन हो गया है. देश और नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़ा चैलेंज इकोनॉमिक रिफॉर्म (आर्थिक सुधार) ही है.

आज सबसे बड़ी समस्या इकोनॉमिक फ्रंट है. लोगों ने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही उनके वादों को सच माना और अपेक्षा कर रखी थी कि खुशहाली आएगी. नरेंद्र मोदी बिजनेस को समझते हैं, इसलिए बिजनेस बढ़ेगा, नौकरियां आएंगी, डेवलपमेंट होगा, इंफ्रास्ट्रक्चर एवं आर्थिक विकास होगा. लेकिन हुआ क्या? डेवलपमेंट की जगह फोकस काले धन पर हो गया. पार्टी के लोग कहते हैं कि नौकरी है नहीं. व्यापारियों का धंधा चल नहीं रहा है और सरकार डंडे दिखा रही है. सरकार को पता नहीं है कि वह काला धन कितना वापस ला पाएगी. लेकिन जो नए क़ानून बनाने की बात हुई, उससे सरकार ने भ्रष्ट अधिकारियों को तलवार दे दी. आज देश में हालत यह है कि इनकम टैक्स विभाग के हर अधिकारी ने पैसा वसूलना (एक्सटार्शन) शुरू कर दिया है. हर छोटे-बड़े बिजनेसमैन के पास फोन जाते हैं या दलाल जाते हैं और वे परेशान हैं. पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं का स्पष्ट मानना है कि कोई भी आर्थिक बदलाव (इकोनॉमिक चेंज) नहीं आने वाला. जिस फेरा को एनडीए सरकार ने ही फेमा में तब्दील किया था, उसे मौजूदा सरकार ने फेरा से ज़्यादा खतरनाक बना दिया और उसका विद्रूप स्वरूप देश के सामने रख दिया. इसकी जगह अर्थव्यवस्था में बड़े रिफॉर्म्स होते, लेकिन आपने इंस्पेक्टर राज बना दिया, ये शब्द अभी भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की ज़ुबान पर हैं. बिजनेस कम्युनिटी को व्यापार पर असर डालने लायक कोई भी कोशिश सरकार की तऱफ से होती हुई दिखाई नहीं दे रही है. उसकी जगह सरकार ने बिजनेस कम्युनिटी को अधिकारियों की दया पर छोड़ दिया है. विश्व का पूरा फिनांसियल मार्केट इस इंतज़ार में बैठा था कि कब कुछ अच्छा हो और वह हिंदुस्तान में निवेश करे. पर हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था और आर्थिक नीतियां देखकर उसने अपने हाथ पीछे खींच लिए.

मंदी के दरवाजे पर खड़ा भारत

हम मंदी की कगार पर है. एक खतरनाक खबर यह है कि मुद्रा अवस्फीति (डिफ्लेशन) तीन ़फीसद तक आ चुकी है. यह अंदाज़ा सरकार ने भी लगाया था और उद्योग जगत ने भी. अर्थव्यवस्था में दो या तीन फीसद मुद्रास्फीति (इंफ्लेशन) सहायक होती है, लेकिन तीन ़फीसद मुद्रा अवस्फीति! यह तो ऐसा लगता है, जैसे हम मंदी को आमंत्रित कर रहे हैं या फिर मंदी की कगार पर खड़े हैं. यह आंकड़ा  इंडस्ट्रियल प्रोड्यूस प्राइस इंडेक्स का है. इसका मतलब है कि हम मंदी की कगार पर बैठे हैं. जब अर्थव्यवस्था दबाव में हो, तब आम तौर पर लोगों की मदद की जाती है, उनकी जेब से पैसा नहीं निकाला जाता. भाजपा के दो बड़े नेताओं ने मुझसे कहा कि पहले जब सूखा पड़ता था, तब राजा अपने खजाने खोल देता था, पर मौजूदा प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री इसका उल्टा कर रहे हैं, उन्होंने पब्लिक स्पेंडिंग कम कर दी है. अपने बजट में केंद्र सरकार ने राज्यों का शेयर बढ़ा दिया और तर्क दिया कि यह वित्त आयोग की रिपोर्ट है.

भाजपा के नेता इस पर टिप्पणी करते हैं कि आपका अपना बजट है, आपकी अपनी  योजनाएं हैं, आप देश में चुनकर आए हैं, आपने आशाएं जगाई हैं और आप अपना ही बजट अगर काट देंगे, तो उसका देश की अर्थव्यवस्था पर, लोगों के मानस पर क्या असर होगा? भाजपा नेता कहते हैं कि आप वित्त आयोग की रिपोर्ट का बहाना लेते हैं. आप वित्त आयोग की रिपोर्ट न लेते या वित्त आयोग से कहते कि यह रिपोर्ट इस तरह बनाओ. ये सारे काम सरकारें अपनी योजनाओं के हिसाब से करती हैं, पर हमारी सरकार ने पुराने वित्त आयोग, जिसे कांग्रेस ने बनाया था, की अनुशंसा ज्यों  का त्यों स्वीकार कर ली. इसे भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता प्रबंधन की नाकामी की तरह देखते हैं. नरेंद्र मोदी सरकार का प्लस प्वॉइंट वह माहौल बनाना था कि देश में बड़ा निवेश आएगा, बड़े आर्थिक सुधार होंगे, बड़े बदलाव होंगे. इन तमाम क़दमों से वह माहौल खत्म हो गया या बहुत नीचे चला गया.

एक सबसे महत्वपूर्ण बात, जो पार्टी के बड़े नेता महसूस कर रहे हैं, वह यह कि नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़ा हथियार या सबसे बड़ी ताकत पॉलिटिकल कम्युनिकेशन था. प्रधानमंत्री बनने के डेढ़ साल पहले से नरेंद्र मोदी देश की जनता के साथ सीधा संवाद कर रहे थे और पार्टी के नेता भी कर रहे थे. जब तक वह प्रधानमंत्री नहीं बने, तब तक यह पूरी तरह जारी था. प्रधानमंत्री बनने के बाद सरकारी कम्युनिकेशन या सरकार का जनता से संवाद करने का ज़िम्मा बौने लोगों के हाथों में आ गया. जिन साधारण लोगों के हाथों में भारतीय जनता पार्टी सरकार या नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियां-कार्रवाइयां जनता को बताने का ज़िम्मा आया, वे उसे कह नहीं पा रहे हैं या बता नहीं पा रहे हैं, बल्कि उलझा ज़्यादा रहे हैं. इसलिए देश में उसका कोई असर नहीं पड़ रहा है. क्या कहा जा रहा है, यह महत्वपूर्ण होता है, लेकिन इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है कि इसे कौन कह रहा है. भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी की जिस सबसे बड़ी ताकत की बात हम कर रहे हैं यानी पॉलिटिकल कम्युनिकेशन, उसी में पार्टी सबसे ज़्यादा पिट रही है या पिछड़ रही है. पार्टी के न वरिष्ठ नेता इसमें लगे हैं और न सरकार के वरिष्ठ मंत्री. जब मैंने एक मंत्री से पूछा कि आप लोग ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं? तो उन्होंने कहा, हम पहले कर रहे थे, लेकिन तब न पार्टी अध्यक्ष ने तारी़फ की और न प्रधानमंत्री ने और न हमसे बुलाकर कहा गया कि बहुत अच्छा काम कर रहे हो. अगर हमारे किसी साथी से कोई एक ग़लती हो जाए, तो उसके पीछे सब पड़ जाते हैं. इसलिए कैबिनेट के सारे वरिष्ठ मंत्रियों ने जनता से पॉलिटिकल कम्युनिकेशन करने का काम बंद कर दिया और यह रुख अपना लिया है कि जितना उनसे कहा जाएगा, उतना ही वे करेंगे. हर आदमी इस शक में पड़ गया कि वह जो बोलेगा या करेगा, पता नहीं, क्या अच्छा लगे और क्या बुरा. इसलिए उसने खुद को तटस्थ कर लिया.

फाइल लटकाने वाली कार्यशैली
सत्ता का एक उसूल है कि आप सत्ता को जितना अपनी मुट्ठी में रखेंगे, उतनी ही ग़लतियां करेंगे और जितना ज़्यादा आप अपने साथियों की सत्ता में भागीदारी रखेंगे, उतने ही मजबूत होंगे. इसी सिद्धांत के उलट मोदी सरकार काम कर रही है. ऐसा पार्टी के लोगों का सा़फ-सा़फ कहना है. इतना ही नहीं, एडमिशन अथॉरिटी या एडमिशन कंट्रोल नामक चीज राजनीतिक लोगों के हाथों से ़खत्म हो गई, क्योंकि पहले ही दिन प्रधानमंत्री ने सा़फ कह दिया कि मंत्रियों की कोई हैसियत नहीं है, सचिव उनसे सीधे बात कर सकते हैं. इस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में हज़ारों फाइलें पड़ी हैं, जिन्हें वह देख नहीं पा रहा है. फाइलें लौटकर नहीं जा पा रही हैं और मंत्रालय में काम नहीं हो रहा है. डेड लॉक की स्थिति हो गई है. हक़ीकत यह है कि ऐसा फैसला अरुण जेटली की राय से हुआ. भारतीय जनता पार्टी के लोगों का कहना है कि यह स्टाइल नरेंद्र मोदी की भी है. मजे की बात यह कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने मुझसे कहा कि अरुण जेटली कानाफूसी और छिपी राजनीति करने के माहिर हैं. अब मुझे इसमें इतना भरोसा नहीं हो रहा है, लेकिन चूंकि भारतीय जनता पार्टी के लोग ऐसा कह रहे हैं, इसलिए मैं मानता हूं कि वे सही बोल रहे होंगे. प्रधानमंत्री कार्यालय में जो हज़ारों फाइलें पड़ी हैं, उनके डिस्पोज होने या उनके ऊपर ़फैसला लेने में न्यूनतम समय तीन से चार माह लग रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय की अगर यह कार्य कुशलता है, तो भारतीय जनता पार्टी के लोग सही कह रहे हैं कि इससे वह छवि तो खत्म हो रही है, जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी एक दिन में ही फाइलें निपटा देते थे. वह दक्षता प्रधानमंत्री कार्यालय होने के नाते उनका कार्यालय क्यों नहीं दिखा पा रहा है? नरेंद्र मोदी की क्षमता, उनकी आर्थिक बुद्धिमता (इकोनॉमिक ब्रिलियंस) और उनका अग्रेशन, जिसे लेकर पार्टी में उनके प्रति आकर्षण था और जिसे जनता ने भी अपना आकर्षण मान लिया था, वह छाप प्रधानमंत्री की बहुत हद तक खत्म हो रही है.

इसका एक उदाहरण पार्टी के नेता स्वच्छ भारत अभियान का देते हैं. वे कहते हैं कि आपने अभियान शुरू कर दिया, लेकिन वह जनता तक कैसे जाए, इसकी कोई योजना नहीं बनी. अगर आप चाहते हैं कि देश स्वच्छ रहे, तो आप दिल्ली को सा़फ करके दिखा देते. यहां एलजी था, जो केंद्र सरकार के नीचे काम कर रहा था. यहां सफाई के लिए जो ज़िम्मेदार संस्थान हैं, उन्हें मजबूत करते, उनकी प्लाानिंग करते, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और आज स्वच्छ भारत अभियान का सारे देश में गला घुट रहा है. इसका फायदा स़िर्फ टीवी चैनलों एवं अ़खबारों को विज्ञापन के रूप में हुआ, जनता को कोई फायदा नहीं हुआ.

मोदी-जेटली की गहरी मित्रता का राज क्या है
मेरे इस सवाल पर कि अरुण जेटली और नरेद्र मोदी की इस गहरी मित्रता का क्या राज है? भारतीय जनता पार्टी के कम से कम तीन नेताओं ने हंसकर कहा, दिस इज अनसॉल्व्ड मिस्ट्री (अनसुलझा रहस्य). जब मैंने पूछा कि जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने, तो उनके सामने दो दिनों में शपथ लेने से पहले, पूरे मंत्रिमंडल का खाका अगर अरुण जेटली ने बनाकर रखा, तो क्या प्रधानमंत्री जी ने उसे ध्यान से देखा नहीं? इन भाजपा नेताओं ने मुस्कुराते हुए कहा, इसी रहस्य का पता चल जाता, तो फिर क्या बात थी!  पर इन नेताओं ने एक बात कही कि अरुण जेटली पार्टी के बहुत बुद्धिमान, समझदार, होशियार एसेट (संपत्ति) हैं, लेकिन वह अर्थशास्त्री नहीं हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश सुधारने वाला एक ऐसा वित्त मंत्री चाहिए, जो आने वाले वक्त की नज़ाकत भांप सके और देश को दुनिया के सामने खड़ा कर सके, न कि दुनिया के सामने देश की कमजोरी जाहिर करे. इन नेताओं का कहना है कि डॉलर 65 रुपये पार कर 66 को छूने वाला है और कहीं यह 67-68 रुपये तक पहुंच गया, तो देश की अर्थव्यवस्था से न केवल देश का, बल्कि सारी दुनिया का विश्वास उठ जाएगा. पार्टी में यह कोई नहीं मानता कि नरेंद्र मोदी इन सारी बातों को समझते नहीं हैं, पर पार्टी के लोगों को यह सवाल मथता है कि वह (मोदी)  सुधार का कोई प्रयत्न क्यों नहीं कर रहे हैं? यह ऐसा सवाल है, जिसका जवाब खुद प्रधानमंत्री दे सकते हैं या फिर ईश्वर दे सकता है.

अब वरिष्ठ नेताओं की आशा स़िर्फ कृष्ण गोपाल जी हैं
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता इन दिनों निराशा की तऱफ जा रहे हैं. उन्हें लगता है कि जिस पार्टी की स्थापना दीनदयाल उपाध्याय के विचारों के आधार पर हुई और जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने आकार दिया, वह पार्टी अब किसी और रास्ते पर चल पड़ी है. भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक वरिष्ठ नेताओं का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से न संपर्क है, न संवाद है. छोटे नेताओं की हिम्मत नहीं है कि वे संपर्क और संवाद कर सकें. इसलिए नरेंद्र मोदी चंद्रमा की तरह चमक रहे हैं, जिनके आसपास कोई नहीं जा सकता. स़िर्फ दो व्यक्ति उनके आसपास जा रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की आशा श्री कृष्ण गोपाल जी हैं. वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम देश के उत्तर-पूर्व में देखते रहे और उनका देश की राजनीति से बहुत ज़्यादा संपर्क नहीं रहा. उन्हें सुरेश सोनी की जगह भारतीय जनता पार्टी में संघ का कार्यपालक बनाकर लाया गया है और मजे की बात यह है कि देश को अभी तक नहीं पता कि सुरेश सोनी ने एक साल की छुट्ठी ली है. इस दौरान वह अपना इलाज कराएंगे, अध्ययन करेंगे. पूरे मीडिया से यह खबर गायब हो गई है कि सुरेश सोनी एक साल की छुट्ठी पर हैं और अब संघ की तऱफ से भारतीय जनता पार्टी को संदेश-सलाह देने और पार्टी के समाचार संघ तक पहुंचाने का काम कृष्ण गोपाल जी को सौंपा गया है. कृष्ण गोपाल जी का भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति से बहुत ज़्यादा संपर्क नहीं रहा. इसके बावजूद वह भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आशा का केंद्र बन गए हैं. मैं आ़िखर में एक बात कहना चाहता हूं. भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता मुझे अरुण जेटली के ़िखला़फ बोलता नहीं दिखाई दिया. सबको इस बात का एहसास है कि अरुण जेटली में कार्यकुशलता है, उनमें बोलने और तर्कों को विश्लेषित करने की शक्ति है और वह कांग्रेस का अच्छी तरह मुक़ाबला कर सकते हैं. लेकिन, उन्हें अरुण जेटली की कार्यशैली पर अवश्य ऐतराज है. अरुण जेटली समझदार हैं. हो सकता है, उन्हें पार्टी के भीतर चल रही चर्चाओं की जानकारी न मिलती हो, क्योंकि वह भी जी-हुजूरी वाले लोगों से घिरे हुए हैं. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी अगर अपनी कुछ चीजें सुधार ले, तो शायद वह अपने सांसदों को उत्साहित कर पाएगी और सरकार के साथ उसका संबंध भी सही रह पाएगा. पर इस सबके एकमात्र नियंता प्रधानमंत्री पद पर बैठे नरेंद्र मोदी हैं. बिगाड़ना भी उनके  हाथ में है और बनाना भी उनके  हाथ में है.

संतोष भारतीय
संतोष भारतीय चौथी दुनिया (हिंदी का पहला साप्ताहिक अख़बार) के प्रमुख संपादक हैं. संतोष भारतीय भारत के शीर्ष दस पत्रकारों में गिने जाते हैं. वह एक चिंतनशील संपादक हैं, जो बदलाव में यक़ीन रखते हैं. 1986 में जब उन्होंने चौथी दुनिया की शुरुआत की थी, तब उन्होंने खोजी पत्रकारिता को पूरी तरह से नए मायने


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