शिवजी के गले के मुंडमाला का रहस्य व शुकदेव के उत्पत्ति का प्रसंग (बड़ों से सुनी कहानियों के आधार पर)
शिव के गले में मुंडमाला से यह भाव व्यक्त होता है कि उन्होंने मृत्यु को गले लगा रखा है तथा वे उससे भयभीत नहीं हैं। शिव के श्मशानवास का प्रतीक यह है कि जो जन्मता है, एक दिन अवश्य मरता है अत: जीवित अवस्था में शरीर-नाश का बोध होना ही चाहिए।
एक बार जब भोलेनाथ दीर्घकाल से समाधि में थे, उनकी सेवा में मां पार्वती समेत उनके गणों की सेना तत्पर रहती थी | उसी दौरान देवर्षि नारद का आगमन शिवलोक में हुआ | उन्होंने पार्वतीजी से पूछा कि माते ! क्या आप को पता है कि भोलेबाबा के गले में यह मुंडमाला किसकी है ? इस पर उन्होंने कहा कि नहीं,क्या आप को पता है ? यह बात सुनकर नारद बोले कि माते ! मैं तो इतना बता सकता हूं कि यह किसी स्त्री के मुंडों की मालायें हैं | अधिक जानकारी आप भोलेबाबा से ही ले लीजियेगा | इस प्रकार पार्वतीजी व्याकुल हो उठीं व प्रतीक्षा करने लगीं कि भोलेनाथ की समाधि कब खुलती है ? जब कुछ कालोपरान्त समाधि खुली तब यह ही प्रश्न रख बैठीं भोले नाथ के समक्ष | उन्होंने काफी टालना चाहा,परन्तु बात बनती न दीखने पर उन्होंने कह ही दिया कि गौरा यह सब तुम्हारे ही मुंड हैं | इस पर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि मैंने इतने जन्म ले लिये और आप प्रारम्भ से ही वह ही हैं | शिव ने कहा कि हां | तात्विक दृष्टि से देखा जाय तब शिव(आत्मा) सदैव वह ही रहता है परन्तु पार्वती(सृष्टि-शरीर-कलेवर) बदलता रहता है |
इस प्रकार उन्होंने जिज्ञासा रखी,इस पर शिवजी कहते हैं कि हां गौरी यह सत्य है | फिर क्या था,पार्वती पूछती हैं कि आप तो सर्वज्ञ हैं,क्या कोई ऐसी विधा नहीं है जिससे मैं भी आपकी तरह शाश्वत हो जाऊं | पार्वती की जिज्ञासा को देखकर सर्वज्ञ शिव कहते हैं कि अमर कथा सुन लो व अमर हो जाओ | तब पार्वती के विशेष आग्रह पर उन्होंनें अमरकथा सुनाने का निश्चय किया | एकान्त ढूंढा जाने लगा | तब अनन्तनाग(स्थान) के निकट एक गुफा मिली(जो वर्तमान में अमरनाथ गुफा के नाम से विख्यात है), जहां शिवजी पार्वती के संग पहुंचे तथा त्रिशूल को निर्देश दिया कि इस स्थान को निर्जन कर दो(समस्त प्राणियों को यहां से भगा दो) जिससे कहीं कोई अनधिकारी इस कथा का दुरुपयोग न कर दे |
इस प्रकार गुफा की निर्जनता के प्रति आश्वस्त हो जाने पर त्रिशूल को पहरे पर लगाकर दोनों जने कथा श्रवण व कथन में तल्लीन हो गये | संयोग से उस गुफा में तोती ने अंडे दिये थे जिसमें त्रिशूल के निकलते ही प्राण पड़ गये तथा वह बच्चा अंडे में ही रहकर पार्वती जी के साथ कथा श्रवण करने लगा | थोड़ी देर के बाद पार्वतीजी सो गयीं फिरभी कथा चालू थी तथा उस कथा के प्रभाव से वह बच्चा अंडे से बाहर निकल कर हुंकारी भरने लगा,शंकरजी को पता ही न चला कि पार्वती सो गयी थीं |
जब कथा पूर्ण हुयी तब शंकर जी नें पूछा कि पार्वती कथा कैसी लगी ? तब उन्होंनें ध्यान दिया कि पार्वती तो सो रहीं हैं,फिर उनके जगाकर पूछा कि कथा कब तक सुनीं,इस पर पार्वती ने बताया कि अर्धरात्रि के पश्चात का नहीं सुना | इस पर शिवजी नें ध्यान लगाया तब तोते(शुक) के बच्चे पर दृष्टि गयी | उन्होंने तुरन्त त्रिशूल चला दिया | अब तो तोते नें भागना शुरू किया, तोता आगे-आगे व त्रिशूल पीछे-पीछे, त्रिलोक में उस शुक के बच्चे को सुरक्षित स्थान नहीं दीख रहा था | तभी वह व्यासजी के आश्रम से गुजरा, उसनें देखा कि उनकी पत्नी मुंह खोलकर जम्भाई ले रहीं थी | सो ब्राह्मण पत्नी के गर्भ को सुरक्षित मानकर वह मुख के रास्ते प्रविष्ट हो गया | यहां ऐसा प्रतीत होता है कि वह शुक भी कथा के प्रभाव से दिव्यदेहधारी हो गया था,जो तेजरूप में गर्भ में जा पहुंचा |
इस प्रकार व्यासजी व उनकी पत्नी को संतान की आशा हो गयी | त्रिशूल धर्मसंकट में पड़ गया कि यदि गर्भ पर वार करता हूं तब ब्रह्महत्या लग सकती है,तथा इसे जीवित छोड़ना उचित न होगा | अतः वह बाहर ही नियुक्त रहा कि गर्भ से बाहर आते ही इसका वध कर दूंगा | इस प्रकार वह बालक गर्भ में मानव बालक की भांति बढ़ने लगा तथा धीरे-धीरे गर्भ की अवधि पूर्ण हो गयी,परन्तु वह बाहर नहीं आया | ब्यासजी उस समय वेदों के भाग कर रहे थे तथा पुराणों की रचना कर रहे थे |
जब वह भी पूर्ण हो गया तब ब्यासजी को भी चिन्ता हो गयी कि सोलह वर्ष का गर्भकाल बीत गया,यह बालक बाहर क्यों नहीं आ रहा है ? उधर उनकी पत्नी की बहुत गंभीर स्थिति थी | तब उन्होंने बालक से बाहर आने का आग्रह किया कि यदि बाहर न आओगे तब तुम्हारा अन्त हो सकता है | इस पर उस बालक नें दिव्यवाणी में कहा कि हे तात! मृत्यु तो बाहर आकर भी मिलेगी ही | तब यहीं क्या बुरा है ?
ब्यासजी नें पुनः आग्रह किया व बाहर आने पर क्या भय है वह पूछा तब उस बालक नें सारी व्यथा कह सुनायी | इस पर विष्णु जी के अंशावतार ब्यासजी नें शिवजी की स्तुति की व समझाया कि यदि इस बालक का वध ही कर देंगे(जो आपके लिये असंभव नहीं है) तब आप की अमरकथा में अमरत्व कहां ? शिवजी को सब स्थिति स्पष्ट हुयी तथा वह स्वयं ही उस शुक के माध्यम से इस कराल संसार की समस्त व्याधाओं का निवारण करना चाहते ही थे , सो उनके द्वारा यह सब लीला रची गयी थी | तथा उन्होंने उस शुक को मृत्युभय से मुक्त किया | अब पुनः प्रार्थना करने रर शुकदेवजी नें ब्यासजी से भी त्रिवाचा धरा लिया कि ब्यासजी (विष्णु) की माया से शुकदेवजी मुक्त रहेंगे | सो निर्द्वन्द्व होकर वह वन को चले गये | षोडशवर्षीय बालक के सदृश तुरन्त के जन्में शुकदेवजी तप को चले गये तथा एक बार परीक्षितजी को शुकताल में भागवत सुनायी है उन्होंने | यह प्रसंग संभवतः भागवत में भी मिल जायेगा | जय राम जी की
शिव के गले में मुंडमाला से यह भाव व्यक्त होता है कि उन्होंने मृत्यु को गले लगा रखा है तथा वे उससे भयभीत नहीं हैं। शिव के श्मशानवास का प्रतीक यह है कि जो जन्मता है, एक दिन अवश्य मरता है अत: जीवित अवस्था में शरीर-नाश का बोध होना ही चाहिए।
एक बार जब भोलेनाथ दीर्घकाल से समाधि में थे, उनकी सेवा में मां पार्वती समेत उनके गणों की सेना तत्पर रहती थी | उसी दौरान देवर्षि नारद का आगमन शिवलोक में हुआ | उन्होंने पार्वतीजी से पूछा कि माते ! क्या आप को पता है कि भोलेबाबा के गले में यह मुंडमाला किसकी है ? इस पर उन्होंने कहा कि नहीं,क्या आप को पता है ? यह बात सुनकर नारद बोले कि माते ! मैं तो इतना बता सकता हूं कि यह किसी स्त्री के मुंडों की मालायें हैं | अधिक जानकारी आप भोलेबाबा से ही ले लीजियेगा | इस प्रकार पार्वतीजी व्याकुल हो उठीं व प्रतीक्षा करने लगीं कि भोलेनाथ की समाधि कब खुलती है ? जब कुछ कालोपरान्त समाधि खुली तब यह ही प्रश्न रख बैठीं भोले नाथ के समक्ष | उन्होंने काफी टालना चाहा,परन्तु बात बनती न दीखने पर उन्होंने कह ही दिया कि गौरा यह सब तुम्हारे ही मुंड हैं | इस पर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि मैंने इतने जन्म ले लिये और आप प्रारम्भ से ही वह ही हैं | शिव ने कहा कि हां | तात्विक दृष्टि से देखा जाय तब शिव(आत्मा) सदैव वह ही रहता है परन्तु पार्वती(सृष्टि-शरीर-कलेवर) बदलता रहता है |
इस प्रकार उन्होंने जिज्ञासा रखी,इस पर शिवजी कहते हैं कि हां गौरी यह सत्य है | फिर क्या था,पार्वती पूछती हैं कि आप तो सर्वज्ञ हैं,क्या कोई ऐसी विधा नहीं है जिससे मैं भी आपकी तरह शाश्वत हो जाऊं | पार्वती की जिज्ञासा को देखकर सर्वज्ञ शिव कहते हैं कि अमर कथा सुन लो व अमर हो जाओ | तब पार्वती के विशेष आग्रह पर उन्होंनें अमरकथा सुनाने का निश्चय किया | एकान्त ढूंढा जाने लगा | तब अनन्तनाग(स्थान) के निकट एक गुफा मिली(जो वर्तमान में अमरनाथ गुफा के नाम से विख्यात है), जहां शिवजी पार्वती के संग पहुंचे तथा त्रिशूल को निर्देश दिया कि इस स्थान को निर्जन कर दो(समस्त प्राणियों को यहां से भगा दो) जिससे कहीं कोई अनधिकारी इस कथा का दुरुपयोग न कर दे |
इस प्रकार गुफा की निर्जनता के प्रति आश्वस्त हो जाने पर त्रिशूल को पहरे पर लगाकर दोनों जने कथा श्रवण व कथन में तल्लीन हो गये | संयोग से उस गुफा में तोती ने अंडे दिये थे जिसमें त्रिशूल के निकलते ही प्राण पड़ गये तथा वह बच्चा अंडे में ही रहकर पार्वती जी के साथ कथा श्रवण करने लगा | थोड़ी देर के बाद पार्वतीजी सो गयीं फिरभी कथा चालू थी तथा उस कथा के प्रभाव से वह बच्चा अंडे से बाहर निकल कर हुंकारी भरने लगा,शंकरजी को पता ही न चला कि पार्वती सो गयी थीं |
जब कथा पूर्ण हुयी तब शंकर जी नें पूछा कि पार्वती कथा कैसी लगी ? तब उन्होंनें ध्यान दिया कि पार्वती तो सो रहीं हैं,फिर उनके जगाकर पूछा कि कथा कब तक सुनीं,इस पर पार्वती ने बताया कि अर्धरात्रि के पश्चात का नहीं सुना | इस पर शिवजी नें ध्यान लगाया तब तोते(शुक) के बच्चे पर दृष्टि गयी | उन्होंने तुरन्त त्रिशूल चला दिया | अब तो तोते नें भागना शुरू किया, तोता आगे-आगे व त्रिशूल पीछे-पीछे, त्रिलोक में उस शुक के बच्चे को सुरक्षित स्थान नहीं दीख रहा था | तभी वह व्यासजी के आश्रम से गुजरा, उसनें देखा कि उनकी पत्नी मुंह खोलकर जम्भाई ले रहीं थी | सो ब्राह्मण पत्नी के गर्भ को सुरक्षित मानकर वह मुख के रास्ते प्रविष्ट हो गया | यहां ऐसा प्रतीत होता है कि वह शुक भी कथा के प्रभाव से दिव्यदेहधारी हो गया था,जो तेजरूप में गर्भ में जा पहुंचा |
इस प्रकार व्यासजी व उनकी पत्नी को संतान की आशा हो गयी | त्रिशूल धर्मसंकट में पड़ गया कि यदि गर्भ पर वार करता हूं तब ब्रह्महत्या लग सकती है,तथा इसे जीवित छोड़ना उचित न होगा | अतः वह बाहर ही नियुक्त रहा कि गर्भ से बाहर आते ही इसका वध कर दूंगा | इस प्रकार वह बालक गर्भ में मानव बालक की भांति बढ़ने लगा तथा धीरे-धीरे गर्भ की अवधि पूर्ण हो गयी,परन्तु वह बाहर नहीं आया | ब्यासजी उस समय वेदों के भाग कर रहे थे तथा पुराणों की रचना कर रहे थे |
जब वह भी पूर्ण हो गया तब ब्यासजी को भी चिन्ता हो गयी कि सोलह वर्ष का गर्भकाल बीत गया,यह बालक बाहर क्यों नहीं आ रहा है ? उधर उनकी पत्नी की बहुत गंभीर स्थिति थी | तब उन्होंने बालक से बाहर आने का आग्रह किया कि यदि बाहर न आओगे तब तुम्हारा अन्त हो सकता है | इस पर उस बालक नें दिव्यवाणी में कहा कि हे तात! मृत्यु तो बाहर आकर भी मिलेगी ही | तब यहीं क्या बुरा है ?
ब्यासजी नें पुनः आग्रह किया व बाहर आने पर क्या भय है वह पूछा तब उस बालक नें सारी व्यथा कह सुनायी | इस पर विष्णु जी के अंशावतार ब्यासजी नें शिवजी की स्तुति की व समझाया कि यदि इस बालक का वध ही कर देंगे(जो आपके लिये असंभव नहीं है) तब आप की अमरकथा में अमरत्व कहां ? शिवजी को सब स्थिति स्पष्ट हुयी तथा वह स्वयं ही उस शुक के माध्यम से इस कराल संसार की समस्त व्याधाओं का निवारण करना चाहते ही थे , सो उनके द्वारा यह सब लीला रची गयी थी | तथा उन्होंने उस शुक को मृत्युभय से मुक्त किया | अब पुनः प्रार्थना करने रर शुकदेवजी नें ब्यासजी से भी त्रिवाचा धरा लिया कि ब्यासजी (विष्णु) की माया से शुकदेवजी मुक्त रहेंगे | सो निर्द्वन्द्व होकर वह वन को चले गये | षोडशवर्षीय बालक के सदृश तुरन्त के जन्में शुकदेवजी तप को चले गये तथा एक बार परीक्षितजी को शुकताल में भागवत सुनायी है उन्होंने | यह प्रसंग संभवतः भागवत में भी मिल जायेगा | जय राम जी की
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