काशी नाथ सिंह के 'उपन्यास' पर आधारित फिल्म 'मोहल्ला अस्सी'
पिछले दस वर्षों से ‘अस्सी’ काशीनाथ की भी पहचान रहा है और बनारस की भी। जब इस उपन्यास के
कुछ अंश ‘कथा रिपोर्ताज’ के नाम से पत्रिका में छपे थे तो पाठकों और लेखकों मे हलचल सी हुई थी। छोटे शहरों और कस्बों में उन अंक विशेषों के लिए जैसे लूट-सी मची थी, फोटोस्टेट तक हुए थे, स्वंय पात्रों ने बावेला मचाए थे और मारपीट से लेकर कोर्ट-कचहरी की धमकियाँ तक दी थीं।
अब वह मुकम्मल उपन्यास आपके सामने है सिनेमा के रूप में " मोहल्ला अस्सी " जिसमें पाँच कथाएँ हैं और उन सभी कथाओं का केन्द्र भी अस्सी है। हर कथा में स्थान भी वही, पात्र भी वे ही-अपने असली और वास्तविक नामों के साथ, अपनी बोली-बानी और लहजों के साथ। हर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे पर इन पात्रों की बेमुरव्वत और लट्ठ मार टिप्पणियाँ काशी की उस देशज और लोकपरम्परा की याद दिलाती है जिसके वारिस कबीर और भारतेन्दु थे !
उपन्यास की भाषा उसकी जान है-देशपन और व्यंग्य-विनोद में सराबोर। साहित्य की ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर’ वाणी शायद कहीं दिख जाय !
सब मिलाकर काशी नाथ की नजरों में ‘अस्सी’ पिछले दल वर्षों से भारतीय समाज में पक रही राजनीतिक-सांस्कृतिक खिचड़ी की पहचान के लिए चावल का एक दाना भर है, बस !
काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' काशी का चित्रण नहीं है बल्कि इसे पढ़ना ऐसा है कि जैसे काशी को जी रहे हों | ऐसा लगता है कि एक औपन्यासिक यात्रा कर आया | इस उपन्यास की ख़ासियत इसकी भाषा है जो ठेठ बनारसी से थोड़ी भी अलग नहीं रखी गयी है| काशी जी ने बनारस की फुरसतिया संस्कृति में विशुद्ध गालियों की जो परंपरा है उसे भी बिलकुल नहीं बदला है जो इस उपन्यास को काशी की पृष्ठभूमि पर लिखे गए बाकी हिंदी या गैर हिन्दी उपन्यासों से अलग रखता है |
जैसा काशीनाथ जी प्रारंभ में ही लिख देते हैं-
" ये संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढों के लिए नहीं |... जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता, और न जाने क्या-क्या देखते हैं .... , वे कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं "
व्यंग्य बड़े सारगर्भित हैं और चूँकि अस्सी की भाषा में ही हैं इसलिए बड़े सटीक भी बैठते हैं या कहा जाये तो बड़े जीवित लगते हैं| नुक्कड़ पर चाय पीते हुए हमारी ख़ालिस राजनीतिक चर्चाएं ( जो बड़े ही यथार्थ रूप में इस उपन्यास में पूरे कथानक के दौरान उपस्थित भी रहती हैं ) मुद्दों को जिस विशिष्ट शैली में समीक्षित करती हैं उसका ही उदहारण इस उपन्यास में देखिये -
" आप खामखाह में गलियाँ दे रहे हैं इन्हें|" कांग्रेसी वीरेंदर बोले ,"इसके लिए भाजपा को कोई दोष नहीं दे सकता! देश उसके एजेंडे में था ही नहीं| उसके एजेंडे पर था राष्ट्रीय स्वाभिमान और गो-संरक्षण! देश भोंसड़ी के रसातल में जाता है तो जाये , ये अयोध्या और पोखरण जायेंगे!"
"हम न अयोध्या जायेंगे, न पोखरण: अब हम रोम और इटली जायेंगे ....."राधेश्याम दूसरे कोने से चिल्लाये|
"और क्या कर सकते हो तुम लोग ? जब से राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश,और मणिपुर में जनता ने डंडा किया है तब से दो फाड़ हो गयी है तुम्हारी !.. .. अयोध्या ने किसी तरह प्रधानमंत्री दे दिया और अब ऐसा मुद्दा हो जो बहुमत की सरकार दे दे |देश का कबाड़ा हो जाये लेकिन तुम्हे सरकार जरुर मिले| डूब मरो गड़ही में सालों!" हिकारत से वीरेंदर ने बेंच के पीछे थूका और रामवचन की ओर मुखातिब हुए - " पांडे जी, आपको बताने की जरुरत नहीं है कि 6 दिसम्बर की अयोध्या की घटना कि क्या देन है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का बोध नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातोंरात | रातोंरात चंदा करके सारी मस्जिदों का जीर्णोद्धार शुरू कर दिया| देश की सारी मस्जिदों पर लाउडस्पीकर लग गये | मामूली से मामूली टुटही मस्जिद पर भी लाउडस्पीकर लग गया| जिस मस्जिद में कभी नमाज नहीं पढ़ी जाती थी, उससे भोर और रात में अजान सुनाई देने लगी| जो नमाज में नियमित नहीं थे, नियमित हो गये| और सुनियेगा ? गाजीपुर , बक्सर आजमगढ़ -अरे आप तो उधर के ही हैं, सब जानते हैं- इस पूरे इलाके में हिन्दू से मुसलमान हुए लोगो कि कितनी बड़ी तादाद है |.... ....मस्जिद खड़ी करने में तो समय लगता है, यहाँ तो एक ईंट या पत्थर फेंका, गेरू या सेनुर पोता,फूल-पट्टी चढ़ाया और माथा टेक दिया-'जै बजरंगबली!' और दिन दहाड़े दो आदमी ढोलक-झाल लेके बैठ गए- अखंड हरिकीर्तन| भगवान धरती फोड़कर प्रगट भये हैं ,अब सर्कार चाहे भी तो झांट नहीं उखड सकती !समझा? अयोध्या का फायदा यह हुआ कि चंदौली और कछवा के बीच जी.टी.रोड के किनारे किनारे सैकड़ो एकड़ जमीन कब्जिया लिया तुम लोगों ने सेनुर पोत-पोतकर !... और एक फायदा हुआ है - नगर के हर गली-मोहल्ले में दो-दो चार-चार व्यास और मानस-मर्मज्ञ पैदा हो गए हैं भोंसड़ी के |जिन जजमनिया निठल्लों को कल तक पड़ने का भी सहूर नहीं था, वे घूम घूम कर रामकथा कह रहे हैं और एक एक दिन के पच्चीस पच्चीस हजार लूट रहे हैं | ...."
चूँकि ये काशीनाथ सिंह का संस्मरण है इसलिए उन्हें चरित्र निर्धारित करने में कोई समस्या नहीं हुई होगी और ये दीखता भी है | जैसे गया सिंह; बडबोले और अधीर इंसान के रूप में ये कथन देखिये -
" बबवा का जवाब नहीं है राजकिशोर गुरु! लिखा 'रामचरितमानस' और स्थापित किया हनुमान को ...राम को कौन पूछता है 'विश्वहिंदु परिषद' और अशोक सिंघल के सिवा ? कितने मंदिर हैं राम-जानकी के ? .. और हनुमान को देखो- हर मंगलवार ! हर शनिवार ! .. जबकि देखो, तो हनुमान कवी की कल्पना और अनुभव के सिवा कुछ नहीं है| ... सोचो तो एक कवी की कल्पना क्या हो सकती है ? ... इंसान को भगवान तो कोई भी बना सकता है लेकिन जिस बानर को इंसान बनने में अरबों-खरबों साल लगें उसे बबवा ने सीधे भगवान बना दिया |.. "
'कौन ठगवा नगरिया लूटल हो' इस भाग में पाठक का सामना कई बड़े ही जोरदार व्यंग्य से होता है - बेहद चुटीले, बेहद गूढ़ | एक उदाहरण -
" इंजीनियर? डॉक्टर ? ये तो बीते दिनों की बातें हैं | कलेक्टर ? ठीक लेकिन रिजर्वेशन ने साडी दिलचस्पी ख़तम कर दी है | चाहो तो एक दो चांस देख सकते हो लेकिन मल्टीनेशनल | इसकी बात ही कुछ और है | आज हांगकांग ,परसों न्यूयॉर्क नर्सों पेरिस ... मगर बीटा ये गुल्ली-डंडा नहीं जलेबी दौड़ है - तुम्हारे साथ दौड़ने वाले हजारों-लाखों में नहीं, करोड़ों में हैं| इसलिए दौड़ो, जान लड़ा दो| कुछ करके दिखाओ| शाब्बाश! और होमवर्क के बोझ के नीचे चाँप दो इतना कि कें कें करने का भी मौका न मिले| "
कथानक अंत तक आते आते बहुत-सी बातें स्पष्ट कर चुका रहता है लेकिन सबसे अंत में आकर जो सबसे बड़ी बात स्पष्ट होती है वो ये कि अस्सी,यानि 'काशी का अस्सी' जो कभी काशीनाथ सिंह का अस्सी था वो अब आधुनिक काशी शहर का अस्सी बन चुका है |भूमंडलीकरण का जो गहरा असर सांस्कृतिक बनारस पर पड़ा उससे हमारे साक्षात्कार की यात्रा इस निर्गुण के साथ लक्ष्य प्राप्त करती है-
एक दिन जाना होगा जरुर |
लछिमन राम अमर जो होते,होते हाल जरुर |
कुम्भकरण रावन बाद जोधा, कहत हेट हम सूर |
अर्जुन सा छत्री नहीं जग में, करण दान भरपूर |
भीम जुधिष्ठिर पांचों पांडों मिल गये माटी धूर |
धरती पवन अकासो जैहैं जैहें चंदा सूर|
कहत कबीर भजन कब करिहों ठाढ़ा काल हजूर |
एक दिन जाना होगा जरुर |
इस फिल्म को लेकर बनारस के लोगों में बेहद उत्सुकता थी क्योंकि ये उपन्यास बनारस के अस्सी मोहल्ले के प्रसिद्ध पप्पू के चाय की दूकान पर लगने वाली अड़ी और उसके हास विनोद के गिर्द बुनी गई है जिसमें बनारस के बिन्दास पन का अपना एक चरित्र नज़र आता है, इस फिल्म की पूरी शूटिंग वाराणसी के अस्सी मोहल्ले और उसके आस पास हुई है। यही वजह है कि इसके रिलीज का बनारस के लोगों को इंतज़ार था। काशी का अस्सी गालियों और लट्ठ मार भाषा के कारण कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगती है.पर असली बनारसी मूड और तेवर से परिचय भी कराती है.फिल्म का इंतजार रहेगा.
अभी मिडिया में शोर है की मशहूर लेखक काशी नाथ सिंह के 'उपन्यास' पर आधारित और वाराणसी की
पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर में रिलीज़ होगी.. "सन्नी देओल फिल्म में एक गरीब ब्राह्मण की भूमिका में हैं, जो संस्कृत के शिक्षक हैं. वह बनारस आने वाले विदेशियों और यहां घाटों पर उनके 'गांजा-भांग' पीने-खाने से दुखी हैं. बनारस को हम पवित्र मानते हैं, लेकिन ऐसा विदेशी पर्यटकों के साथ नहीं है."
चर्चा है कि 'मोहल्ला अस्सी’ के ट्रेलर को रूढ़िवादी तबकों और सेंसर बोर्ड के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है. फिल्म वाराणसी में टूरिज़्म के व्यवसायीकरण से संबंधित है. इसमें सनी देओल एक पुजारी बने हैं. वे वाराणसी के प्राकृतिक और नैतिक प्रदूषण से नाराज हैं. अपने पूरे फिल्मी करियर में एक भी गाली न देने वाले सनी ट्रेलर में आपको गाली देते दिखेंगे. बवाल का सबसे मुख्य विषय है एक दृश्य, जिसमें भगवान शिव सपने में एक भक्त को गाली देकर डांटते दिखेंगे. टूरिस्ट गाइड बने रवि किशन एक महिला सैलानी को साक्षी तंवर (सनी की की पत्नी) के घर लाते हैं, तो वह उन्हें भद्दे तरीके से संबोधित करती हैं. एक अन्य दृश्य में एक महिला साक्षी से अश्लील बातें कहती दिखाई पड़ती हैं. आखिर किस वजह से इस सिनेमा के हालत हुई है जो समझते है उन पहलूवो को ... कहानियों के संस्मरणों और चर्चित कथाकार काशीनाथ सिंह का उपन्यास है : काशी का अस्सी। जिन्दगी और जिन्दादिली से भरा एक अलग किस्म का उपन्यास है। उपन्यास के परम्परित मान्य ढाँचों के आगे प्रश्न चिह्न।पिछले दस वर्षों से ‘अस्सी’ काशीनाथ की भी पहचान रहा है और बनारस की भी। जब इस उपन्यास के
कुछ अंश ‘कथा रिपोर्ताज’ के नाम से पत्रिका में छपे थे तो पाठकों और लेखकों मे हलचल सी हुई थी। छोटे शहरों और कस्बों में उन अंक विशेषों के लिए जैसे लूट-सी मची थी, फोटोस्टेट तक हुए थे, स्वंय पात्रों ने बावेला मचाए थे और मारपीट से लेकर कोर्ट-कचहरी की धमकियाँ तक दी थीं।
अब वह मुकम्मल उपन्यास आपके सामने है सिनेमा के रूप में " मोहल्ला अस्सी " जिसमें पाँच कथाएँ हैं और उन सभी कथाओं का केन्द्र भी अस्सी है। हर कथा में स्थान भी वही, पात्र भी वे ही-अपने असली और वास्तविक नामों के साथ, अपनी बोली-बानी और लहजों के साथ। हर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे पर इन पात्रों की बेमुरव्वत और लट्ठ मार टिप्पणियाँ काशी की उस देशज और लोकपरम्परा की याद दिलाती है जिसके वारिस कबीर और भारतेन्दु थे !
उपन्यास की भाषा उसकी जान है-देशपन और व्यंग्य-विनोद में सराबोर। साहित्य की ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर’ वाणी शायद कहीं दिख जाय !
सब मिलाकर काशी नाथ की नजरों में ‘अस्सी’ पिछले दल वर्षों से भारतीय समाज में पक रही राजनीतिक-सांस्कृतिक खिचड़ी की पहचान के लिए चावल का एक दाना भर है, बस !
काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' काशी का चित्रण नहीं है बल्कि इसे पढ़ना ऐसा है कि जैसे काशी को जी रहे हों | ऐसा लगता है कि एक औपन्यासिक यात्रा कर आया | इस उपन्यास की ख़ासियत इसकी भाषा है जो ठेठ बनारसी से थोड़ी भी अलग नहीं रखी गयी है| काशी जी ने बनारस की फुरसतिया संस्कृति में विशुद्ध गालियों की जो परंपरा है उसे भी बिलकुल नहीं बदला है जो इस उपन्यास को काशी की पृष्ठभूमि पर लिखे गए बाकी हिंदी या गैर हिन्दी उपन्यासों से अलग रखता है |
जैसा काशीनाथ जी प्रारंभ में ही लिख देते हैं-
" ये संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढों के लिए नहीं |... जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता, और न जाने क्या-क्या देखते हैं .... , वे कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं "
व्यंग्य बड़े सारगर्भित हैं और चूँकि अस्सी की भाषा में ही हैं इसलिए बड़े सटीक भी बैठते हैं या कहा जाये तो बड़े जीवित लगते हैं| नुक्कड़ पर चाय पीते हुए हमारी ख़ालिस राजनीतिक चर्चाएं ( जो बड़े ही यथार्थ रूप में इस उपन्यास में पूरे कथानक के दौरान उपस्थित भी रहती हैं ) मुद्दों को जिस विशिष्ट शैली में समीक्षित करती हैं उसका ही उदहारण इस उपन्यास में देखिये -
" आप खामखाह में गलियाँ दे रहे हैं इन्हें|" कांग्रेसी वीरेंदर बोले ,"इसके लिए भाजपा को कोई दोष नहीं दे सकता! देश उसके एजेंडे में था ही नहीं| उसके एजेंडे पर था राष्ट्रीय स्वाभिमान और गो-संरक्षण! देश भोंसड़ी के रसातल में जाता है तो जाये , ये अयोध्या और पोखरण जायेंगे!"
"हम न अयोध्या जायेंगे, न पोखरण: अब हम रोम और इटली जायेंगे ....."राधेश्याम दूसरे कोने से चिल्लाये|
"और क्या कर सकते हो तुम लोग ? जब से राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश,और मणिपुर में जनता ने डंडा किया है तब से दो फाड़ हो गयी है तुम्हारी !.. .. अयोध्या ने किसी तरह प्रधानमंत्री दे दिया और अब ऐसा मुद्दा हो जो बहुमत की सरकार दे दे |देश का कबाड़ा हो जाये लेकिन तुम्हे सरकार जरुर मिले| डूब मरो गड़ही में सालों!" हिकारत से वीरेंदर ने बेंच के पीछे थूका और रामवचन की ओर मुखातिब हुए - " पांडे जी, आपको बताने की जरुरत नहीं है कि 6 दिसम्बर की अयोध्या की घटना कि क्या देन है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का बोध नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातोंरात | रातोंरात चंदा करके सारी मस्जिदों का जीर्णोद्धार शुरू कर दिया| देश की सारी मस्जिदों पर लाउडस्पीकर लग गये | मामूली से मामूली टुटही मस्जिद पर भी लाउडस्पीकर लग गया| जिस मस्जिद में कभी नमाज नहीं पढ़ी जाती थी, उससे भोर और रात में अजान सुनाई देने लगी| जो नमाज में नियमित नहीं थे, नियमित हो गये| और सुनियेगा ? गाजीपुर , बक्सर आजमगढ़ -अरे आप तो उधर के ही हैं, सब जानते हैं- इस पूरे इलाके में हिन्दू से मुसलमान हुए लोगो कि कितनी बड़ी तादाद है |.... ....मस्जिद खड़ी करने में तो समय लगता है, यहाँ तो एक ईंट या पत्थर फेंका, गेरू या सेनुर पोता,फूल-पट्टी चढ़ाया और माथा टेक दिया-'जै बजरंगबली!' और दिन दहाड़े दो आदमी ढोलक-झाल लेके बैठ गए- अखंड हरिकीर्तन| भगवान धरती फोड़कर प्रगट भये हैं ,अब सर्कार चाहे भी तो झांट नहीं उखड सकती !समझा? अयोध्या का फायदा यह हुआ कि चंदौली और कछवा के बीच जी.टी.रोड के किनारे किनारे सैकड़ो एकड़ जमीन कब्जिया लिया तुम लोगों ने सेनुर पोत-पोतकर !... और एक फायदा हुआ है - नगर के हर गली-मोहल्ले में दो-दो चार-चार व्यास और मानस-मर्मज्ञ पैदा हो गए हैं भोंसड़ी के |जिन जजमनिया निठल्लों को कल तक पड़ने का भी सहूर नहीं था, वे घूम घूम कर रामकथा कह रहे हैं और एक एक दिन के पच्चीस पच्चीस हजार लूट रहे हैं | ...."
चूँकि ये काशीनाथ सिंह का संस्मरण है इसलिए उन्हें चरित्र निर्धारित करने में कोई समस्या नहीं हुई होगी और ये दीखता भी है | जैसे गया सिंह; बडबोले और अधीर इंसान के रूप में ये कथन देखिये -
" बबवा का जवाब नहीं है राजकिशोर गुरु! लिखा 'रामचरितमानस' और स्थापित किया हनुमान को ...राम को कौन पूछता है 'विश्वहिंदु परिषद' और अशोक सिंघल के सिवा ? कितने मंदिर हैं राम-जानकी के ? .. और हनुमान को देखो- हर मंगलवार ! हर शनिवार ! .. जबकि देखो, तो हनुमान कवी की कल्पना और अनुभव के सिवा कुछ नहीं है| ... सोचो तो एक कवी की कल्पना क्या हो सकती है ? ... इंसान को भगवान तो कोई भी बना सकता है लेकिन जिस बानर को इंसान बनने में अरबों-खरबों साल लगें उसे बबवा ने सीधे भगवान बना दिया |.. "
'कौन ठगवा नगरिया लूटल हो' इस भाग में पाठक का सामना कई बड़े ही जोरदार व्यंग्य से होता है - बेहद चुटीले, बेहद गूढ़ | एक उदाहरण -
" इंजीनियर? डॉक्टर ? ये तो बीते दिनों की बातें हैं | कलेक्टर ? ठीक लेकिन रिजर्वेशन ने साडी दिलचस्पी ख़तम कर दी है | चाहो तो एक दो चांस देख सकते हो लेकिन मल्टीनेशनल | इसकी बात ही कुछ और है | आज हांगकांग ,परसों न्यूयॉर्क नर्सों पेरिस ... मगर बीटा ये गुल्ली-डंडा नहीं जलेबी दौड़ है - तुम्हारे साथ दौड़ने वाले हजारों-लाखों में नहीं, करोड़ों में हैं| इसलिए दौड़ो, जान लड़ा दो| कुछ करके दिखाओ| शाब्बाश! और होमवर्क के बोझ के नीचे चाँप दो इतना कि कें कें करने का भी मौका न मिले| "
कथानक अंत तक आते आते बहुत-सी बातें स्पष्ट कर चुका रहता है लेकिन सबसे अंत में आकर जो सबसे बड़ी बात स्पष्ट होती है वो ये कि अस्सी,यानि 'काशी का अस्सी' जो कभी काशीनाथ सिंह का अस्सी था वो अब आधुनिक काशी शहर का अस्सी बन चुका है |भूमंडलीकरण का जो गहरा असर सांस्कृतिक बनारस पर पड़ा उससे हमारे साक्षात्कार की यात्रा इस निर्गुण के साथ लक्ष्य प्राप्त करती है-
एक दिन जाना होगा जरुर |
लछिमन राम अमर जो होते,होते हाल जरुर |
कुम्भकरण रावन बाद जोधा, कहत हेट हम सूर |
अर्जुन सा छत्री नहीं जग में, करण दान भरपूर |
भीम जुधिष्ठिर पांचों पांडों मिल गये माटी धूर |
धरती पवन अकासो जैहैं जैहें चंदा सूर|
कहत कबीर भजन कब करिहों ठाढ़ा काल हजूर |
एक दिन जाना होगा जरुर |
इस फिल्म को लेकर बनारस के लोगों में बेहद उत्सुकता थी क्योंकि ये उपन्यास बनारस के अस्सी मोहल्ले के प्रसिद्ध पप्पू के चाय की दूकान पर लगने वाली अड़ी और उसके हास विनोद के गिर्द बुनी गई है जिसमें बनारस के बिन्दास पन का अपना एक चरित्र नज़र आता है, इस फिल्म की पूरी शूटिंग वाराणसी के अस्सी मोहल्ले और उसके आस पास हुई है। यही वजह है कि इसके रिलीज का बनारस के लोगों को इंतज़ार था। काशी का अस्सी गालियों और लट्ठ मार भाषा के कारण कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगती है.पर असली बनारसी मूड और तेवर से परिचय भी कराती है.फिल्म का इंतजार रहेगा.
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ऐसा लगता है, ललित मोदी के पास बहुत मसाला है. तभी तो पूरा संघ परिवार नतमस्तक है. :))
ReplyDeleteहिंदी फिल्म मोहल्ला अस्सी और बजरंगी भाईजान के बारे में कोई राय कायम करने से पहले उसके बारे गहराई से जान लीजिये...
ReplyDeleteमोहल्ला अस्सी चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन में बन रही है फिल्म है जिसका विषय भारतीय संस्कृति और साहित्य है ... ये चन्द्रप्रकाश द्विवदी जी वही है जिन्होंने चाणक्य और उपनिषद् गंगा जैसे धारावाहिकों का निर्दशन किया .. हमसे ज्यादा संस्कृति और धरोहरों की रक्षा के लिए वो प्रयत्नरत है .. तो मोहल्ला अस्सी मूवी बनाने का ध्येय बहुत ही सुन्दर है जिसके लिए जितनी प्रशंसा की जाए कम है .. जो ट्रेलर वायरल हुआ है अगर वो वास्तविक भी है तो भी मैं उसका समर्थन करूँगा क्युकी "इंडिया का टेस्ट" यही है और इसी टेस्ट को पहचानकर कोई 70% अच्छा कार्य कर रहा है तो ये भी बड़ी बात है
अब आते है बजरंगी भाईजान पे .. बहुत दिनों से whatsapp पे एक msg वायरल है की इसका बहिष्कार किया जाये .. इसमें लव जिहाद दिखाया गया है .. मैंने ट्रेलर दिखाया कुछ दिनों पहले तो देखने के बाद उन अंध विरोधियो पर हंसी आई जिन्होंने इसे बिना देखे समझे इसे लव जिहाद के रूप में प्रचारित किया ... क्युकी इसमें करीना का किरदार एक मुस्लिम लड़की का है और सलमान एक बजरंग वली के भक्त .. और सलमान का किरदार बहुत ही अच्छे हिन्दू का है .. तो लव जिहाद की बात तो बिलकुल भी नहीं आती है हा रिवर्स लव जिहाद है जिसका समर्थन तो योगी आदित्यनाथ से लेकर प्रवीन तोगड़िया जी तक कर चुके है ... तो आप उनसे बड़े "कट्टर हिंदूवादी" तो हो नहीं सकते
अतः अब ये बचकानी हरकते छोडिये ,, किसी भी msg को फॉरवर्ड करते समय उसके बारे में एक बार अवश्य गहराई से समझ लीजिये की आप क्या प्रचारित कर रहे है