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Tuesday, August 18, 2015

नागपंचमी (पचैंईया) और बनारस

नागपंचमी का त्योहार तो वैसे पूरे देश में मनाया जाता है, लेकिन बनारस में इसका कुछ ज्यादा महत्व दिखता है। यह हिंदुओं का साल का पहला त्योहार होता है। नगर और जिले के गांवों में कहीं कुश्ती दंगल तो कहीं बीन की धुन पर जादू का खेल होता है। प्रायः हर घरों में लोग सुबह नागदेवता को दूध और लावा चढ़ाते हैं। कहा जाता है कि घर के दरवाजे पर लावा और दूध इसलिये रखा जाता है कि नाग देवता इसे ग्रहण करेंगे। कुश्ती-दंगल के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में जलेबी की दुकानें भी सजती हैं लोग इसका खूब लुत्फ उठाते हैं। लेकिन बनारस में कहावत है "सात वार नौ त्यौहार", यानी सप्ताह में दिन तो सात होते हैं पर बनारस  में उनमें नौ त्यौहार पड़ते हैं। मौज-मजे के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है और अपनी इस प्रवृत्ति को चरितार्थ करने के लिएही बनारसियों ने अनेक त्यौहारों की कल्पनाएँ कीं। और लोग बहुत सी छुट्टियाँ मनाने के लिए बनारस वालों को नाकारा न कहें, इसलिए उन्होंने इनमें से अधिकतर त्यौहारों को भिन्न-भिन्न देवताओं के साथ जोड़ दिया। आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण बनारसियों के जीवन में परिवर्तन होता चला जा रहा है फिर भी जिस प्रेम से छुट्टियाँ और त्यौहार बनारस में मनाए जाते हैं - वैसे भारत में और किसी दूसरी जगह नहीं। बनारसियों के त्यौहार का रंग भी कभी मनहूस नहीं होता। अपने थोड़े से वित्त में ही लोग हँस-खेल कर त्यौहार मना लेते हैं। बनारस के त्यौहारों के इतिहास पर अभी अधिक प्रकाश नहीं पड़ा है, पर इसमें संदेह नहीं कि इनमें कुछ मेले बहुत प्राचीन होंगे। बनारस की दीवाली का तो उल्लेख जातकों में आया है और जातकों में वर्णित हस्तिपूजन का भी बाद में शायद विजया दशमी का रुप हो गया है। इन मेलों तमाशों का संबंध हम यक्षपूजा, वृक्षपूजा, देवीपूजा, कूप और नदी-पूजा तथा पौराणिक देव-देवताओं की पूजा से पाते हैं। बनारस के मेलों तमाशों में भी एक विकास क्रम है जिससे यह पता चल जाता है कि कौन-कौन से मेले प्राचीन है और कौन-कौन से मेले बनारस की भिन्न-भिन्न काल की धार्मिक प्रवृत्तियों के विकास के साथ-साथ बढ़ते गए।

शायद विकास के धुन में बनारस के लोग भूल गए है की कल नागपंचमी है, नागपंचमी और वो भी बनारस में, याद आता है, बनारसी लोग इसे नागपंचमी (पचैंईया) के नाम से संबोधन करते है.. सुबह  इसी आवाज से नीद खुलती थे , नाग लो भाई नाग लो छोटे गुरु क, बड़े गुरु क, नाग लो भाई नाग लो, फटाफट उठते अम्मा से १ रुपये के लिए एक घंटा मिन्नत, तब जा कर मिलता था १ रूपया, मिलता तो था १ रुपया पर दादा जी ने इतना बड़ा मकान  बनवा दिया था की सब दरवाजो के लिए खरीद ही नहीं पाते थे ! यह प्रथा अब भी बनारस के पुराने शहर में है या नहीं मुझे पता नहीं. श्रावण की पंचमी को यह मेला नागकुँआ पर लगता था । नागकुआँ को करकोटक नागतीर्थ के नाम से भी पुकारा जाता है। उस दिन लोग नागकुआँ में स्नान करते तथा जीवित नागों का दर्शन करते हैं। बनारस में सावन के पावन महीने में नागपंचमी का बहुत महत्‍व है। नागपंचमी को नाग वंश की उत्पत्ति का दिन माना जाता है। महादेव के प्रिय आभूषण के रूप में नाग देवता हमेशा उनके साथ कंधे पर विराजमान रहते हैं। काशी के नवापुरा में विक्रम संवत १ के काल खंड का प्राचीन नागकूप (नागकुआ) जैतपुरा में  ,है। बताया जाता है कि यहां महर्षि पतंजलि ने खुद शिवलिंग स्थापित कर अराधना और तप किया था। यहां नागकूप में सात कुएं समाहित हैं। आज तक इसकी गहराई कोई जान पाया। कहा जाता है कि सूर्य की किरणें इस कूप के अंदर तक पहुंचती हैं। ऐसी मान्‍यता है कि इस कूप के जल से सारी समस्‍या हल हो जाती है। साथ ही सभी रोग ठीक हो जाते हैं। इस कारण यहां नागपंचमी पर सैकड़ों भक्‍तों की भीड़ लगती है। शहर में बहुत सी जगहों पर अहीरों की कुश्ती होती थी .. लड़के उस दिन बड़े गुरु और छोटे गुरु के नागों के चित्र गलियों में घूम-घूम कर बेचते हैं। यहाँ बड़े गुरु और छोटे गुरु से तात्पर्य पाणिनि और पंतजलि से है। इसमें संदेह नहीं कि यह मेला बनारस के बड़ प्राचीन मेलों में से एक है और किसी समय पूरे उत्तर भारत में नगापूजा के प्रचार की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। खैर खरीद कर लाते बड़े गुरु और छोटे गुरु गुरु को, फटा फट नाहा धो तैयार,अम्मा चिल्लाती रहती, हम गोंद ले कर दरवाजे पर चिपकाने के लिए बैचैन रहते.. लेकिन पहले माँ पूजा करती फिर महुआ के पत्ते पर धान का लावा और दूध हर कमरे और हर उस जगह जो महत्वपूर्ण थी, रखना पड़ता था, घरों में भी पकवान सुबह से ही बनने शुरू होते थे,गुलगुला एक मुख्य आईटम हुआ करता था. हमारे पसंद में तो घर में उरद के दाल (धुवास) की कचौड़ी, कोहड़े के सब्जी, सेवई, मुली का घिसुवा और पापड़, इंतजार रहता, कब पूजा ख़तम हो और खाना मिले ! कुल मिला कर कहे तो इस विश्वास के साथ ये पूजा इस लिए होती थे की नाग देवता की कृपा बनी रहेगी. 

हम इंतजार करते कोई सपेरा आये तो घर में बुलाये.. छत से देखते रहते कोई सपेरा दिखे तो चिल्लाये अम्मा बोलाई.. नाग देवता का दर्शन करा दा.. सपेरा आता तो पापा चिल्लाते दूर रह... एक इक्षा रहती थी साप को गले में डाले.. लेकिन पापा के डर से हिम्मत नहीं होती थे..  अब तो पिछले ४-५ सालो से सपेरे भी ज्यादा नहीं मिलते, बन और जीव कानून जो लग गया है, उस समय तो सपेरे, नाग, कोबरा, करइत, बिच्छु, अजगर और पता नहीं कितने ऐसे, लेकिन बड़ी मुस्किल से वो १० से १५ रुपये जुटा पाते थे इतना तमासा दिखा कर हाई स्कूल पास कर चूका था , एक साल नाग पंचमी पर अपने लेबर कालोनी चौराहे पर एक सपेरा तिनचार साप ले कर बैठा था खूब भीड़.. हम भी आलू लेने निकले थे झोला ले कर, सभी साप इधर उधर टोकरी में फुफकार रहे थे.. मै सपेरे के ठीक पीछे.. इतने में सपेरे ने एक गायब करने वाला जादू दिखना शुरू किया की मै ठीक उसके बगल वाली टोकरी में बैठे नाग को उठा अपने झोले में भर गायब... अब उठा तो लिया करू क्या उसका, खैर सब्जी भी लाना था तो झोले के बढ़िया से बांध घर के बहार एक कोने में छिपा के दूसरा झोला ले आलू ले कर आये, उस समय पोलीथिन बैग का भी जमाना नहीं था न.. झोले को चुरा के ऊपर अपने कमरे में छपा दिया , रत में खाना पीना खा कर अपने कमरे में पहुचे नाग देवता बैचेन थे निकलने के लिए... अब तो दर से बुरा हाल कहे तो किस्से कहे, रात भर डर से सोये नही... सुबह होते ही झोला ले साइकिल से चल पड़े बसंत कालेज, राज घाट की तरफ...झोले का मुह खोला और फेक दिया नदी में... उस समय बचपना था तो समझ भी वैसी ही थे  लेकिन हमारे सुपुत्र जी ने पिछले साल ये इक्षा पूरी कर ली..
कभी बनारस के अखाड़े नागपंचमी के दिन कुश्ती के दांव पेंचों से जगमगाते थे। जोड़ी,गदा वाले मुसुक बल्ला वाले पहलवान आज के दिन खूब सम्मान पाते थे। हर अखाडों में भीड़ होती थी। आज सब सूना सूना है, पक्के महालो में घाट किनारे अभी भी कही कही देखने को मिल जाता है, वरना ये भी विकास के दौर में विलुप्त होती नजर आ रही है, कहा रहे वो अखाड़े  जिसमे मुगदर, विभिन्न भार के, मलखम्भ, विभिन्न आकार के, दंड..अबतोशहर में जिम का दौर है, जिसमे आज कल के नौजवानों को मलुवा के बाउ की तरह 'मुसुक' बनाने का शौक है..   
गावों में पंचैया मनाने का दूसरा रिवाज़ होता था. हर गाँव में एक प्राइमरी स्कूल के पास अखाड़ा होता था. गद्दे वाला नहीं मिटटी वाला. मिटटी भी बहुत मेहनत से तैयार की जाती थी. बिलकुल भुरभुरी महीन और उसे मांजा भी जाता था. व्यायाम के आधुनिक जिम की तरह नहीं बल्कि मुगदर, विभिन्न भार के, मलखम्भ, विभिन्न आकार के, दंड यानी सपाट जिसे आधुनिक शब्दावाली में पुश अप कहते हैं, आदि व्यायाम के तरीके थे. व्यायाम शाला में बजरंग बली की फोटो या मूर्ति हो, यह एक अनिवार्य प्राविधान था. हनुमान मल्ल के भी देवता है. पर अब उन व्यायाम शालाओं का स्थान जिम ने ले लिया और हनुमान के चित्रों का स्थान ब्रूस ली, ह्रितिक रोशन और सलमान खान ने ले लिया वक़्त बदल तो उसने इसे भी नहीं छोड़ा. 




इन अखाड़ों में दंगल होता था. आस पास के नामी नए पुराने पहलवान इकट्ठे होते थे. कुश्ती में हार जीत का फैसला होता था. गमछा, धोती, लंगोटा  और कुछ नक़द रुपये ईनाम में दिए जाते थे. बनारस के बहरी अलंग का ही ऐसा प्रभाव है कि बनारस में आए दिन दंगल की प्रतियोगिता होती है। नागपंचमी का पर्व भारत में चाहे जिस ढंग से मनाया जाता हो, पर यहाँ छोटे गुरु-बड़े गुरु के रूप में पूजा करते हुए सम्पूर्ण बनारस में दंगल प्रतियोगिता की जाती है।

बना रहे बनारस में विश्वनाथ मुखर्जी जी कहते है बनारस में आज दंगल की प्रतियोगिता केवल पट्ठों के बीच ही नहीं, जानवरों में भी व्याप्त है। आए दिन सड़कों पर साँड़ गरजते हुए लड़ते हैं। भैंस, मेढ़ा और पक्षियों का अनोखा दंगल प्रत्येक वर्ष जाड़े में अवश्य होता है। बुलबुल, तीतर और बटेर का भी युद्ध होता है। मकर-संक्रान्ति का पर्व पक्षियों के दंगल का खास दिन है। लोग अपने-अपने पक्षियों का दंगल उस दिन अवश्य कराते हैं। यह दंगल केवल दंगल के लिए नहीं, बाजी लगाकर किये जाते हैं। बनारस ही एक ऐसा नगर है जहाँ इस प्रकार का आयोजन होता है। कजली-विरहा और चनाजोर वालों का, शायरी का दंगल गर्मी के मौसम में होता है। फैन्सी ड्रेस का दंगल तो यहाँ प्रत्येक मेले में देखा जा सकता है।

बहरी अलंग का वास्तविक अर्थ विश्वकोश में क्या है, पता नहीं लेकिन बहरी अलंग की मिट्टी में वह बहार है जो बम्बई की चौपाटी में नहीं, धर्मतल्ला की ब्यूटी में नहीं और न कनाट सरकस की नफासत में है! बनारसियों को अपने इस क्षेत्र पर जितना गर्व है, उतना अपने नगर के प्रति नहीं है। बनारस और बनारसियों का असली रूप देखना हो तो बहरी अलंग अवश्य देखिए। बिना बहरी अलंग देखे आप यह कभी नहीं जान पाइएगा कि बनारसियों को अपने बनारस से इतनी मुहब्बत क्यों है। बहरी अलंग केवल दिल बहलाव का क्षेत्र नहीं, बल्कि अध्यात्म और साधना का क्षेत्र भी है।

बनारस के बड़े-बूढ़ों को जब रंग जमाना होता है तब वे बहरी अलंग के कितने प्रेमी थे, इसका उदाहरण पेश करते हुए कहते हैं - 'जेतना इंडिया निपट के फेंक देहले होब, ओतना तोहार बापौ न देखले होइयन।' बहरी अलंग में जब लोग निपटने जाते हैं तब आबदस्त के लिए मिट्टी की हँड़िया में पानी ले जाते हैं।

तीन लोक से न्यारेपन का सर्टिफिकेट दिलाने में, ‘बहरी अलंग’ का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। मर्त्यलोक कोमारिये गोली, स्वर्ग तक में बनारस के ‘बहरी अलंग’ की मिसाल नहीं। हमारी सरकार, आधुनिकता और प्लानों के जोश में बहुत-से ऐसे स्थानों को ‘भीतरी’ यानी शहरी रंग दे रही है-बनारसियों के समक्ष निस्सन्देह एक कठिन समस्या है यह! बनारसी के लिए ‘बहरी अलंग’ का सर्वोपरि महत्त्व है।
नाग भारतीय संस्कृति का अनिवार्य पक्ष है. कहा जाता है पूरी धरती ही शेष नाग के मस्तक पर टिकी है. शेष नाग का एक नाम अनंत है. विष्णु इसी शेष पर विश्राम करते हैं. इसी लिए उन्हें शेषशायी या अनंत शयनम कहता जाता है. शिव कोई आभूषण नहीं धारण करते है. स्वर्ण से उन्हें अनुराग नहीं है. उनके आभूषण के रूप में नाग ही सुशोभित होता है. भारतीय संस्कृति में सभी पूज्य हैं. यहाँ तक कि यम भी. नाग हमेशा पूज्य ही नहीं रहे बल्कि उनका विध्वंस भी किया गया. महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद परीक्षित राजा बने थे. उनके पुत्र जनमेजय ने नागों का सर्वनाश किया था. उनका यह नाग यग्य पुराणों में वर्णित है. जय शंकर 'प्रसाद' ने इस पर एक बहुत अच्छा नाटक भी लिखा है. जिसका नाम है जन्मेजय का नाग यज्ञ.


वैसे तो भारत एक महान देश है. जहा तमाम भोली भाषाए है.. सबके अपने अपने रिवाज है लेकिन बनारस के अगर आप कुछ समय निकाल ले तो ले लग ही जायेगा की काशी तीनो लोको से अलग ही है.. हर प्रान्त के लोग नागपंचमी की एक परंपरा के तहत, लोगो की अलग अलग मान्यता है जैसे :


  1. प्रातः उठकर घर की सफाई कर नित्यकर्म से निवृत्त हो जाएँ।

  2. पूजन के लिए सेंवई-चावल आदि ताजा भोजन बनाएँ। कुछ भागों में नागपंचमी से एक दिन भोजन बना  कर रख लिया जाता है और नागपंचमी के दिन बासी खाना खाया जाता है।

  3. इसके बाद दीवाल पर गेरू पोतकर पूजन का स्थान बनाया जाता है। फिर कच्चे दूध में कोयला घिसकर उससे गेरू पुती दीवाल पर घर जैसा बनाते हैं और उसमें अनेक नागदेवों की आकृति बनाते हैं।

  4. कुछ जगहों पर सोने, चांदी, काठ व मिट्टी की कलम तथा हल्दी व चंदन की स्याही से अथवा गोबर से घर के मुख्य दरवाजे के दोनों बगलों में पाँच फन वाले नागदेव अंकित कर पूजते हैं।

  5. सर्वप्रथम नागों की बांबी में एक कटोरी दूध चढ़ा आते हैं।

  6. और फिर दीवाल पर बनाए गए नागदेवता की दधि, दूर्वा, कुशा, गंध, अक्षत, पुष्प, जल, कच्चा दूध, रोली और चावल आदि से पूजन कर सेंवई व मिष्ठान से उनका भोग लगाते हैं।

  7. पश्चात आरती कर कथा श्रवण करना चाहिए।

  8. पश्चात स्नान कर साफ-स्वच्छ वस्त्र धारण करें।


पूरे श्रावण माह विशेष कर नागपंचमी को धरती खोदना निषिद्ध है। इस दिन व्रत करके सांपों को खीर खिलाई व दूध पिलाया जाता है। कहीं-कहीं सावन माह की कृष्ण पक्ष की पंचमी को भी नाग पंचमी मनाई जाती है। इस दिन सफेद कमल पूजा में रखा जाता है।

पौराणिक संदर्भ

गरुड़ पुराण के अनुसार नागपंचमी के दिन घर के दोनों ओर नाग की मूर्ति खींचकर अनन्त आदि प्रमुख महानागों का पूजन करना चाहिए। स्कन्द पुराण के नगर खण्ड में कहा गया है कि श्रावण पंचमी को चमत्कारपुर में रहने वाले नागों को पूजने से मनोकामना पूरी होती है। नारद पुराण में सर्प के डसने से बचने के लिए कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को नाग व्रत करने का विधान बताया गया है। आगे चलकर सुझाव भी दिया गया है कि सर्पदंश से सुरक्षित रहने के लिए परिवार के सभी लोगों को भादों कृष्ण पंचमी को नागों को दूध पिलाना चाहिए। नागपचंमी का त्यौहार मात्र एक त्यौहार नही है वरन हिँदु अज्ञानता का एक ज्वलंत उद्धाहरण है , इस त्यौहार के मनाने के आज के ढंग से पता चलता है कि कैसे हिँदु समाज अपने प्राचीन त्यौहारो , उत्शव व मेले की वैज्ञानिकता से कट गया है

दुनिया तो काल सर्प योनी से मुक्ति पाने के लिए नाग देवता को पुजती है लेकिन ये शहर बनारस अपने ही मस्ती में चलता है दिन भर से देखा कोई सुगबुहट नहीं थी तो बनारस याद आ गया अब ये लगता है की बाज़ार और अंग्रेजी कल्चर ने हमारे ढेर सारे त्योहारों को मार डाला है इसी तरह कर के हमने हर उत्शव का बंटाधार किया है वैज्ञानिकता को समाप्त कर दिया है और आज कोइ पुछता है तो दाँत निपोरते हुये कह देते है कि हमे क्या पता जी ये तो बहुत पहले से हो रहा है तो हम भी कर रहे है 


नाग पंचमी की सब को हार्दिक शुभकामनाएं !
!





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