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Friday, February 5, 2016

नरेंद्र मोदी सरकार का गला न सूख जाए इस बार का आम बजट बनाने में...?

मोदी जी, इस बार पीएम नहीं देश फेल होगा

दो दिन बाद संसद के बजट सत्र की शुरुआत राष्ट्रपति के अभिभाषण से होगी। जिस पर संसद की ही नहीं बल्कि अब देश की नजर होगी आखिर मोदी सरकार की किन उपलब्धियों का जिक्र राष्ट्रपति करते हैं और किन मुद्दों पर चिंता जताते हैं । क्योंकि पहली बार जाति या धर्म से इतर राष्ट्रवाद ही राजनीतिक बिसात पर मोहरा बनता दिख रहा है । और पहली बार आर्थिक मोर्चे पर सरकार के फूलते हाथ पांव हर किसी को दिखायी भी दे रहे है। साथ ही  संघ परिवार के भीतर भी मोदी के विकास मंत्र को लेकर कसमसाहट पैदा हो चली है। यानी 2014 के लोकसभा चुनाव के दौर के तेवर 2016 के बजट सत्र के दौरान कैसे बुखार में बदल रहे है यह किसी से छुपा नहीं है ।

कारपोरेट सेक्टर के पास काम नहीं है ।
औघोगिक सेक्टर में उत्पादन सबसे निचले स्तर पर है ।
निर्यात सबसे नीचे है। किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य तो दूर बर्बाद फसल के नुकसान की भरपाई भी नहीं मिल पा रही है ।

नये रोजगार तो दूर पुराने कामगारों के सामने भी संकट मंडराने लगा है । कोयला खनन से जुड़े हजारों हजार मजदूरों को काम के लाले पड़ चुके हैं ।कोर सेक्टर ही बैठा जा रहा है तो संघ परिवार के भीतर भी यह सवाल बडा होने लगा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने विकास मंत्र के आसरे संघ के जिस स्वदेशी तंत्र को ही हाशिये पर ढकेला और जब स्वयंसेवकों के पास आम जनता के बीच जाने पर सवाल ज्यादा उठ रहे हैं और जवाब नहीं है तो फिर उसकी राजनीतिक सक्रियता का मतलब ही क्या निकला।

मंदी की आफत

चौतरफा लक्षण हैं कि देश मंदी की कगार पर है। खाने-पीने की चीजों के अलावा दूसरे सामानों से बाज़ार पटे  पड़े हैं। बाज़ार में ग्राहकी घटती जा रही है। दीपावली तक पर बाज़ारों में ज्यादा रौनक नहीं थी। मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र भारी संकट में है। चीन के सस्ते माल ने देसी उद्योग की नाक में दम कर रखा है। इसके बावजूद अर्थव्यवस्था में कृषि को महत्व मिलता नज़र नहीं आता। यानी ले-देकर विनिर्माण के सहारे ही अर्थतंत्र का चक्का घुमाने की कोशिश फिर होगी, जबकि पूछा यह जाना चाहिए कि मंदी के भारी कदमों की आहट के बीच हम अपने उद्योगों में बनवाएंगे क्या...?

निर्यात की बुरी हालत

इस बार का बजट बनाने में सबसे बड़ी मुश्किल देश से निर्यात घटते चले जाने की है। नई सरकार की हिफाज़त में मीडिया का अब तक का जो रुख रहा है, उससे हालात के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। फिर भी निर्यात के आंकड़ों को छिपाया नहीं जा पाया। अपना माल दूसरे देशों को बेचने की मात्रा 20 से 30 फीसदी घट गई है, और इससे ही अंदाज़ा लग जाता है कि दुनिया में कितनी भयानक मंदी है।

कृषि क्षेत्र पर संकट
पिछले दो साल में कृषि क्षेत्र पर सुल्तानी और आसमानी, यानी दोतरफा मार पड़ी है। इस साल किसान जितनी  बुरी हालत में हैं, उन्हें उससे उबारने के बारे में इसी बजट में सोचना पड़ेगा। बुंदेलखंड और विदर्भ मरणासन्न स्थिति में पहुंच गए हैं। वैसे तो उनके लिए फौरी मदद की ज़रूरत थी, लेकिन लगता है, संकट के आकार को देखते हुए ही केंद्र सरकार ने आंखें मूंदें रखीं। पिछले हफ्ते दो-चार हज़ार करोड़ की राहत का जो ऐलान हुआ, वह बड़ी देर से भेजी गई बहुत नाकाफी राहत साबित हो रही है। लेकिन बजट पेश होने की तारीख, यानी फरवरी के आखिरी हफ्ते में बुंदेलखंड जैसे इलाकों में जैसा हाहाकार मचने का अंदेशा है, उस हिसाब से सरकार पर पूरा दबाव रहेगा कि इन इलाकों को 40 से 50 हज़ार करोड़ रुपये किस तरह पहुंचाए।

बेकाबू होती बेरोज़गारी

देश में 10 करोड़ प्रत्यक्ष बेरोज़गारों और 25 करोड़ अप्रत्यक्ष बेरोज़गारों को सपने दिखाकर ही मौजूदा सरकार को सत्ता हासिल हुई थी। पिछले दो साल तो सरकार ने अपने को नई-नई सरकार होने के बहाने से गुजार लिए, लेकिन अब युवा वर्ग के सब्र का बांध भी टूट रहा है। भले ही स्टार्ट-अप और स्टैंड-अप जैसे कार्यक्रमों का ऐलान करके अब तक उन्हें दिलासा दिया जाता रहा हो, लेकिन इस बार के बजट में उनके लिए स्पष्ट प्रावधान करना मजबूरी होगी। इधर हकीकत यह भी है कि रोज़गार बढ़ाने के पुराने कार्यक्रम चलाने के लिए ही पैसे के इंतज़ाम का रोना रोया जाता रहा, तो फिर नए नाम से इन रोज़गार कार्यक्रमों के लिए कितनी रकम निकल पाएगी, यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है।

हां, 10 करोड़ प्रत्यक्ष बेरोज़गारों को 25-50 हज़ार का कर्ज़ देकर कोई काम शुरू कराने की बात सोची जा सकती है। सरकार बैंकों से कर्ज़ा दिलाने का ऐलान कर सकती है, हालांकि यह भारी जोखिम का काम होगा, क्योंकि बैंक पुराने कर्ज़ों की वसूली में बुरी तरह फेल हो चुके हैं। उनकी भारी-भरकम रकमें बट्टेखाते में जा चुकी हैं। पांच-सात लाख करोड़ के नए कर्ज़ देने में इतना जोखिम होगा कि बैंकों का भट्टा बैठ सकता है। यानी बेरोज़गारों को कर्ज़ दिलाने के बहाने बैंकों को एनपीए की भरपाई के लिए इसी बजट में कोशिशें होती दिखेंगी। हालांकि यह काम इतना पेचीदा और बड़ा है कि घुमावदार बातें बनाते समय वित्त मंत्रालय का गला सूख जाएगा।

स्टार्ट-अप और स्टैंड-अप से बना माल बेचेंगे किसे?

गौरतलब है कि स्टैंड-अप जैसे कार्यक्रम दूसरे नामों से दसियों बार आज़माए जा चुके हैं, लेकिन उनसे होता-हवाता कभी कुछ नहीं दिखा। और फिर मंदी के दौर में ये कुटीर उद्योग स्तर के नए उद्यमी क्या बनाएंगे, और अपनी बनाई चीज़ें कहां बेचेंगे...? इसका हिसाब लगाता तो अभी कोई भी नहीं दिखता। हो सकता है, इस बार के बजट में इसका कोई हिसाब बताया जाए। वैसे भी देश में होशियार हो चुके युवा आम बोलचाल में मार्केटिंग का मतलब समझाते हुए पाए जाते हैं। गलियों आौर बाज़ारों में फिजूल में चक्कर काटते ये बेरोज़गार खूब देख रहे हैं कि बाज़ार में ज़रूरत से ज्यादा माल अटा पड़ा है और अगर कहीं ज़रूरत दिखती है तो अनाज और दालों की। पढ़े-लिखे युवा कैसे खेती-बाड़ी में लगाए जा सकेंगे...? इसे हम इस आधार पर खारिज कर सकते हैं कि ये युवा इस साल किसान की दुर्दशा अपनी आंखों से देख रहे हैं। वे मीडिया में देख-सुन रहे हैं कि इस साल कर्ज़ से लदे किसानों की आत्महत्याओं की तादाद कितनी है।

अच्छी आमदनी के दावों से उम्मीदें भी बढ़ीं
2-जी 3-जी के नए आवंटनों, कोयला खदानों की नई नीलामियों, कच्चे तेल के दाम में आश्चर्यजनक कमी जैसे दसियों मदों में कम से कम दस लाख करोड़ की आमदनी के दावों की जांच इस बार के बजट से होगी। पिछले साल के बजट की तुलना में इस बार का बजट आकार बढ़कर 25 लाख करोड़ हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है, इस बार पैसे का रोना नहीं रोया जा सकता, लेकिन पिछले डेढ़ साल में तरह-तरह की योजनाओं के ऐलान जिस ताबड़तोड ढंग से हुए हैं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि इतनी रकम भी पूरी पड़ेगी। अकेले स्टार्ट-अप और स्टैंड-अप कार्यक्रमों में कुछ होता हुआ दिखाने के लिए चार से छह लाख करोड़ का खर्चा मामूली बात होगी।

किसानों को देखना पड़ेगा बजट में

किसानों की दुर्दशा को देखते हुए उनके कर्ज़ माफ करने का काम भी इस साल के बजट में दिख सकता है। बजट के अलावा किसी और मौके के लिए इसे रोककर रखना इसलिए मुश्किल होगा, क्योंकि कम से कम डेढ़-दो लाख करोड़ की रकम का इंतजाम और कहीं से होना मुश्किल है। किसानों के लिए पानी का इंतजाम करने वाली चालू और नई योजनाओं पर एक-डेढ़ लाख करोड़ के खर्चे का हिसाब अलग है।

बहरहाल, मौजूदा हालात में आने वाला बजट यह सबक तो देगा ही कि जब तक पैसे का इंतज़ाम न हो, बड़े-बड़े काम न अमासे जाएं, वरना हर बजट में वायदों की पोल खुलती जाएगी।

दरअसल मोदी ही नहीं बल्कि उससे पहले मनमोहन सिंह के कार्यकाल से ही राजनीतिक सत्ता में सिमटते हर संस्थान के सारे अधिकार महसूस किये जा रहे थे । यानी संसाधनों का खत्म होना या राजनीतिक सत्ता के निर्देश पर काम करने वाले हालात मनमोहन सिंह के दौर में CBI से लेकर CVC और चुनाव आयोग से लेकर UGC तक पर लगे । लेकिन मोदी के दौर में संकेत की भाषा ही खत्म हुई और राजनीतिक सत्ता की सीधी दखलंदाजी ने इस सवाल को बड़ा कर दिया कि अगर चुनी हुई सत्ता का नजरिया ही लोकतंत्र है तो फिर लोकतंत्र के चार खम्भों के बारे में सोचना भी बेमानी है । इसलिये तमाम उल्झे हालातो के बीच जब संसद सत्र भी शुरु हो रहा है तो यह खतरा तो है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त ही विपक्ष बायकाट ना कर दें । और सड़क पर भगवा ब्रिगेड ही यह सवाल ना उठाने लगे कि नेहरु माडल पर चलते हुये ही अगर मोदी सरकार पूंजी के आसरे विकास की सोच रही है तो फिर इस काम के लिये किसी प्रचारक के पीएम बनने का लाभ क्या है। यह काम तो कारपोरेट सेक्टर भी आसानी से कर सकता है । और सही मायने में यही काम तो मनमोहन सिंह बतौर पीएम से ज्यादा बतौर सीईओ दस बरस तक करते रहे । यानी पेट का सवाल। भूख का सवाल । रोजगार का सवाल । किसान का सवाल । हिन्दुत्व का सवाल । हिन्दुत्व को राष्ट्र से आगे जिन्दगी जीने के नजरिये से जोड़ने का सवाल ।

मानव संसाधन को विकास से जोड़ कर आदर्श गांव बनाने की सोच क्यों गायब है यह सवाल संघ परिवार के तमाम संगठनो के बीच तो अब उठने ही लगे है। किसान संघ किसान के मुद्दे पर चुप है । मजदूर संघ कुछ कह नहीं सकता । तोगडिया तो विहिप के बैनर तले राजस्थान में किसानों के बीच काम कर रहे है । यानी मोदी सरकार के सामने अगर  एक तरफ संसद के भीतर सरकार चल रही है यह दिखाने-बताने का संकट है तो संसद के बाहर संघ परिवार को जबाब देना है कि जिन मुद्दों को 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त उठाया वह सिर्फ राजनीतिक नारे नहीं थे । असर मोदी सरकार के इस उलझन का ही है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी अब संघ के राजनीतिक संगठन के तौर पर सक्रिय ऐसे वक्त हुये जब संसद शुरु होने वाली है। यानी टकराव सीधा नजर आना चाहिये इसे संघ परिवार समझ चुका है । इसलिये पीएम बनने के बाद मोदी के ट्रांसफरमेशन को वह बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है । और  ध्यान दे तो संघ की राष्ट्रभक्ति की ट्रेनिंग का ही असर रहा कि नरेन्द्र मोदी ने 2014 के चुनाव में राइट-सेन्टर की लाइन ली । पाकिस्तान को ना बख्शने का अंदाज था । किसान-जवान को साथ लेकर देश को आगे बढाने की सोच भी थी । कारपोरेट और औघोगिक घरानों की टैक्स चोरी या सरकारी रियायत को बंद कर आम जनता या कहे गरीब भारत को राहत देने की भी बात थी । यानी संघ परिवार के समाज के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचने की सोच के साथ देशभक्ति का जुनून मोदी के हर भाषण में भरा हुआ था । लेकिन बीते दो बरसो में राइट-सेन्टर की जगह कैपिटल राइट की लाइन पकड़ी और पूंजी की चकाचौंध तले अनमोल भारत को बनाने की जो सोच प्रधानमंत्री मोदी ने अपनायी उसमे सीमा पर जवान ज्यादा मरे । घर में किसान के ज्यादा खुदकुशी की । नवाज शरीफ से यारी ने कट्टर राष्ट्रवाद को दरकिनार कर संघ की हिन्दू राष्ट्र की थ्योरी पर सीधा हमला भी कर दिया । लेकिन इसी प्रक्रिया में स्वयंसेवकों की एक नयी टीम ने हर संस्धान पर कब्जा शुरु भी किया और मोदी सरकार ने मान भी लिया कि संघ परिवार उसके हर फैसले पर साथ खड़ा हो जायेगी क्योंकि मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर रक्षा मंत्रालय और पेट्रोलियम मंत्रालय से लेकर कृषि मंत्रालय और सामाजिक न्याय मंत्रालय में संघ के करीबी या साथ खडे उन स्वयंसेवकों को नियुक्ति मिल गई जिनके जुबा पर हेडगेवार-गोलवरकर से लेकर मोहन भागवत का गुणगान तो था लेकिन संघ की समझ नहीं थी । संघ के सरोकार नहीं थे ।

विश्वविद्यालयों की कतार से लेकर कमोवेश हर संसाधन में संघ की चापलूसी करते हुये बड़ी खेप नियुक्त हो गई जो मोदी के विकास तंत्र में फिट बैठती नहीं थी और संघ के स्वयंसेवक होकर काम कर नहीं सकती थी । फिर हर नीति । हर फैसले । हर नारे के साथ प्रधानमंत्री मोदी का नाम चेहरा जुड़ा । तो मंत्रियों से लेकर नौकरशाह का चेहरा भी गायब हुआ और समझ भी ।

पीएम मोदी सक्रिय है तो पीएमओ सक्रिय हुआ । पीएमो सक्रिय हुआ तो सचिव सक्रिय हुये । सचिव सक्रिय हुये तो मंत्री पर काम का दबाब बना । लेकिन सारे हालात घूम-फिरकर प्रदानमंत्री मोदी की सक्रियता पर ही जा टिके। जिन्हे 365 दिन में से सौ दिन देश में अलग अलग कार्यक्रमों में व्यस्त रखना नौकरशाही बखूबी जानती है। फिर विदेशी यात्रा से मिली वाहवाही 30 से 40 दिन व्यस्त रखती ही है । तो देश के सवाल जो असल तंत्र में ही जंग लगा रहे है और जिस तंत्र के जरीये अपनी योजनाओं को लागू कराने के लिये सरकार की जरुरत है वह भी संकट में आ गये तो उन्हें पटरी पर लायेगा कौन ।

मसलन एक तरफ सरकारी बैक तो दूसरी तरफ बैक कर्ज ना लौटाने वाले औघोगिक संस्थानों का उपयोग । यानी जो गुस्सा देशभक्ति के भाव में या देशद्रोह कहकर हैदराबाद यूनिवर्सिटी से लेकर जेएनयू तक में निकल रहा है । उसको देखने का नजरिया चाह कर भी छात्रों के साथ नहीं जुड़ेगा । यानी यह सवाल नहीं उटेगा कि छात्रो के सामने संकट पढाई के बाद रोजगार का है । बेहतर बढाई ना मिल पाने का है । शिक्षा में ही 17 फिसदी कम करने का है । शिक्षा मंत्री की सीमित समझ का है । रोजगार दफ्तरों में पड़े सवा करोड आवेदनों का है । साठ फिसदी कालेज प्रोफेसरो को अंतराष्ट्रीय मानक के हिसाब से वेतन ना मिलने का है । सवाल राजनीतिक तौर पर ही उठेंगे । यानी हैदराबाद यूनिवर्सिटी के आईने में दलित का सवाल सियासी वोट बैक तलाशेगा । तो जेएनयू के जरीये लेफ्ट को देशद्रोही करारते हुये बंगाल और केरल में राजनीतिक जमीन तलाशने का सवाल उठेंगे । या फिर यह मान कर चला जायेगा कि अगर धर्म के साथ राष्ट्रवाद का छौक लग गया तो राजनीतिक तौर पर कितनी बडी सफलता बीजेपी को मिल सकती है । और चूंकि राजनीतिक सत्ता में ही सारी ताकत या कहे सिस्टम का हर पूर्जा समाया हुआ बनाया जा रहा है तो विपक्षी राजनीतिक दल हो या सड़क पर नारे लगाते हजारों छात्र या तमाशे की तर्ज पर देश के हालात को देखती आम जनता । हर जहन में रास्ता राजनीतिक ही होगा ।

इससे इतर कोई वैकल्पिक सोच उभर सकती है या सोच पैदा कैसे की जाये यह सवाल 2014 के एतिहासिक जनादेश के आगे सोचेगा नहीं । और दिमाग 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले दिनो की गिनती करने लगेगा । यानी सवाल यह नहीं है कि संघ परिवार अब सक्रिय हो रहा है कि मोदी फेल होते है तो वह फेल ना दिखायी दे । या फिर कांग्रेस हो या अन्य क्षेत्रिय राजनीतिक दल इनकी पहल भी हर मुद्दे का साथ राजनीतिक लाभ को देखते हुये ही नजर आयेगी । हालात इसलिये गंभीर है क्योकि संसद का बजट सत्र ही नहीं बल्कि बीतते वक्त के साथ संसद भी राजनीतिक बिसात पर प्यादा बनेगी और लोकतंत्र के चारो पाये भी राजनीतिक मोहरा बनकर ही काम करेंगे।  इस त्रासदी के राजनीतिक विकल्प खोजने की जरुरत है इससे अब मुंह चुराया भी नहीं जा सकती । क्योंकि इतिहास के पन्नो को पलटेंगे तो मौजूदा वक्त इतिहास पर भारी पड़ता नजर आयेगा और राजद्रोह भी सियासत के लिये राजनीतिक हथियार बनकर ही उभरेगा । क्योंकि इसी दौर में अंरुधति से लेकर विनायक सेन और असीम त्रिवेदी से लेकर उदय कुमार तक पर देशद्रोह के आरोप लगे । पिछले दिनो हार्दिक पटेल पर भी देशद्रोह के आरोप लगे । और अब कन्हैया कुमार पर ।

लेकिन उंची अदालत में कोई मामला पहले भी टिक नहीं पाया लेकिन राजनीति खूब हुई । जबिक आजादी के बाद महात्मा गांधी से लेकर नेहरु तक ने राजद्रोह यानी आईपीसी के सेक्शन 124 ए को खत्म करने की खुली वकालत यह कहकर की अंग्रेजों की जरुरत राजद्रोह हो सकती है । लेकिन आजाद भारत में देश के नागरिको पर कैसे राजद्रोह लगाया जा सकता है । बावजूद इसके संसद की सहमति कभी बनी नहीं । यानी देश की संसदीय राजनीति 360 डिग्री में घुम कर उन्ही सवालों के दायरे में जा फंसा है जो सवाल देश के सामने देश को संभालने के लिये आजादी के बाद थे । और इसी कडी 2014 के जनादेश को एक एतिहासिक मोड माना गया ।  इसलिये मौजूदा दौर के हालात में अगर मोदी फेल होते है तो सिर्फ एक पीएम का फेल होना भर इतिहास के पन्नो में दर्ज नहीं होगा बल्कि देश फेल हुआ । दर्ज यह होगा । और यह रास्ता 2019 के चुनाव का इंतजार नहीं करेगा।

-पुण्य प्रसून बाजपेयी की रिपोर्ट से साभार ;


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