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Friday, February 5, 2016

वाराणसी-बानारसी-बनारस अविमुक्त क्षेत्र, महाश्मशान, आनंदवन, हरिहरधाम, मुक्तिपुरी, शिवपुरी, मणिकर्णी, तीर्थराजी, तपस्थली, काशिका

भारत को धर्म और दर्शन की धरा के रूप में जाना और माना जाता है। भारत अनेकता में एकता की सजीव प्रतिमा है। इसी भारतीयता का समग्र चरित्र किसी एक शहर में देखना हो तो वह होगा बनारस। बनारस को काशी और वाराणसी नामों से भी जाना जाता है। बनारस/वाराणसी/ काशी को जिन अन्य नामों से प्राचीन काल से संबोधित किया जाता रहा है वे हैं – अविमुक्त क्षेत्र, महाश्मशान, आनंदवन, हरिहरधाम, मुक्तिपुरी, शिवपुरी, मणिकर्णी, तीर्थराजी, तपस्थली, काशिका, काशि, अविमुक्त, अन्नपूर्णा क्षेत्र, अपुनर्भवभूमि, रुद्रावास इत्यादि। इसी का आभ्यांतर भाग वाराणसी कहलता है। वरुणा और अस्सी नदियों के आधार पर वाराणसी नाम पड़ा ऐसा भी माना जाता है। कहते हैं, दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी है पर बनारस शिव के त्रिशूल पर टिका हुआ है। यानी बनारस बाकी दुनिया से अलग है।
लोक परंपरा में वाराणसी-बानारसी-बनारस इस तरह नाम बदला होगा। वेदव्यास ने विश्वनाथ को वाराणसी पुराधिपति कहा है। द्वापर युग में काशी के राजा शौन हौत्र थे जिनके तीसरी पीढ़ी में जन्मे दिवोदास भी काशी के राजा हुये। ई.बी.हावेल के अनुसार लगभग 2500 साल पहले यहाँ कासिस नामक एक जाती रहती थी जिसके आधार पर इसका नाम काशी पड़ा। कुछ लोग कहते हैं कि जिसका रस हमेशा बना रहे वो बनारस। ज्ञानेश्वर, चैतन्य महाप्रभु, गुरुनानक, गौतम बुद्ध, विवेकानंद, सभी इस काशी क्षेत्र में आये। गोस्वामी तुलसीदास जी ने काशी को कामधेनु की तरह बताया है। विनय पत्रिका में वे लिखते हैं कि –

“सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलि कासी
समनि सोक –संताप-पाप-रुज, सकल-सुमंगल – रासी”


थात इस कलियुग में काशी रूपी कामधेनु का प्रेमसहित जीवन भर सेवन करना चाहिये। यह शोक, संताप, पाप और रोग का नाश करनेवाली तथा सब प्रकार के कल्याणों की खान है। काशी में छप्पन विनायक, अष्ट भैरव, संकटमोचन के कई रूप, वैष्णव भक्ति पीठ, एकादश महारुद्र, नव दुर्गा स्थल, नव गौरी मंदिर, माँ बाला त्रिपुर सुंदरी मंदिर, द्वादश सूर्य मंदिर, अघोर सिद्ध पीठ, बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ, एवं कई लोकदेव–देवियों के पवित्र स्थल विद्यमान हैं। जंगम वाड़ी जैसे मठ और अनेकों धर्मशालाएँ हैं। मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च सब कुछ है। और इन सबके साथ हैं मोक्ष दायनी माँ गंगा। काशी अपनी सँकरी गलियों, मेलों और हाट-बाज़ार के लिए भी जाना जाता रहा है। यहाँ का भरत मिलाप, तुलसीघाट की नगनथैया, चेतगंज की नक्कटैया, सोरहिया मेला, लाटभैरव मेला, सारनाथ का मेला, चन्दन शहीद का मेला, बुढ़वा मंगल का मेला, गोवर्धन पूजा मेला, लक्खी मेला, देव दीपावली, डाला छठ का मेला, पियाला के मेला, लोटा भंटा का मेला, गाजी मियां का मेला तथा गनगौर इत्यादि बनारस की उत्सवधर्मिता के प्रतीक हैं। काशी की संस्कृति एवं परम्परा है देवदीपावली। प्राचीन समय से ही कार्तिक माह में घाटों पर दीप जलाने की परम्परा चली आ रही है, प्राचीन परम्परा और संस्कृति में आधुनिकता का समन्वय कर काशी ने विश्वस्तर पर एक नये अध्याय का सृजन किया है। जिससे यह विश्वविख्यात आयोजन लोगों को आकर्षित करने लगा है। ठलुआ क्लब, उलूक महोत्सव, महामूर्ख सम्मेलन जैसे कई आयोजन बनारस को खास बनाते हैं। बनारस में इतने तीज-त्योहार हैं कि इसके बारे में “सात वार नौ त्योहार” जैसी कहावत कही जाती है।

काशी के बारे में कहा जाता है कि जहाँ पर मरना मंगल है, चिताभस्म जहाँ आभूषण है। गंगा का जल ही औषधि है और वैद्य जहाँ केवल नारायण हरि हैं। काशी अगर भोलेनाथ की है तो नारायण की भी है। इसे हरिहरधाम नाम से भी जाना जाता है। बिंदुमाधव से हम परिचित हैं। बाबा विश्वनाथ के लिये पूरी काशी हर-हर महादेव कहती है और महादेव स्वयं रामाय नमः का मंत्र देते हैं। यहाँ आदिकेशव, शक्तिपीठ, छप्पन विनायक, सूर्य, भैरव इत्यादि देवी-देवताओं की पूजा समान रूप से होती है। दरअसल मृत्यु से अभय की इच्छा का अर्थ ही मुक्ति है। गंगा अपनी धार बदलने के लिये जानी जाती हैं लेकिन काशी नगरी की उत्तरवाहिनी गंगा न जाने कितने सालों से अपनी धार पर स्थिर हैं।


काशी के अतिरिक्त भी मोक्ष क्षेत्र के रूप में अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, कांची, अवंतिका और द्वारिकापूरी प्रसिद्ध हैं। कालिदास ने भी लिखा है कि गंगा–यमुना-सरस्वती के संगम पर देह छोड़ने पर देह का कोई बंधन नहीं रहता।

गंगा यामुनयोर्जल सन्निपाते तनु त्याज्मनास्ति शरीर बन्ध:

लेकिन काशी के संदर्भ में कहा जाता है कि यहाँ जीव को भैरवी चक्र में डाला जाता है जिससे वह कई योनियों के सुख-दुख के कोल्हू में पेर लिया जाता है। इससे उसे जो मोक्ष मिलता है वह सीधे परमात्मा से प्रकाश रूप में एकाकार होनेवाला रहता है। पंडित विद्यानिवास मिश्र जी मानते हैं कि भैरवी चक्र का अर्थ है समस्त भेदों का अतिक्रमण। इसी को वो परम ज्ञान भी कहते हैं। पद्मपुराण में लिखा है कि सृष्टि के प्रारंभ में जिस ज्योतिर्लिंग का ब्रह्मा और विष्णुजी ने दर्शन किया, उसे ही वेद और संसार में काशी नाम से पुकारा गया-

यल्लिङ्गंदृष्टवन्तौहि नारायणपितामहौ।
तदेवलोकेवेदेचकाशीतिपरिगीयते॥

स्कन्दपुराणके काशीखण्ड में स्वयं भगवान शिव यह घोषणा करते हैं-

अविमुक्तं महत्क्षेत्रं पञ्चक्रोशपरिमितम्।
ज्योतिर्लिङ्गम्तदेकंहि ज्ञेयंविश्वेश्वराऽभिधम्।।


पाँच कोस परिमाण का अविमुक्त (काशी) नामक जो महाक्षेत्र है, उस सम्पूर्ण पंचक्रोशात्मकक्षेत्र को विश्वेश्वर नामक एक ज्योतिर्लिङ्ग ही मानें। इसी कारण काशी प्रलय होने पर भी नष्ट नहीं होती।

काशी के साधकों ने सभी भेद मिटा दिये। वे सिद्धि के लिये नहीं आनंद और स्वांतःसुखाय के लिये साधना करते रहे। मधुसुदन सरस्वती, रामानन्द, रैदास, तुलसीदास, कबीर, भास्करराम, तैलंग स्वामी, लाहिरी, विशुद्धानंद, महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज, स्वामी करपात्री, बाबा कीनाराम, काष्ठ जिव्हा स्वामी, स्वामी मनीष्यानंद, जैसे अनेकों नाम उदाहरण स्वरूप गिनाए जा सकते हैं।

इस बनारस/वाराणसी/काशी का अपना बृहद इतिहास है। मार्क ट्वेन (Mark Twain) ने लिखा है कि बनारस इतिहास से भी पुराना है। इतिहास और परंपरा दोनों ही दृष्टियों से विश्व की प्राचीनतम नागरियों में से एक है काशी। स्कंदपुराण में काशी खण्ड है। हरिवंश, श्रीमदभागवत जैसे अनेकों पुराणों में भी काशी की चर्चा मिलती है। रामायण और महाभारत में भी काशी का उल्लेख है। आज से तीन सहस्त्र वर्ष से भी पूर्व के माने जाने वाले शतपथ एवं कौपीतकी ब्राह्मणों में भी काशी की चर्चा है। माना यह भी जाता है कि त्रेता युग में राजा सुहोत्र के पुत्र काश और काश के पुत्र काश्य/काशिराज ने काशीपुरी बसाई। एक समय में काशी मौर्यवंश के अधीन भी रहा। शुंग, कण्व, आंध्र वंशों ने लगभग सन 430 ई. तक यहाँ शासन किया। गुप्त और उज्जैन शासकों के बाद कन्नौज के यशोवर्मा मौखरी यहाँ का शासक रहा जो सन 741 ई. के करीब काश्मीर नरेश ललितादित्य से लड़ते हुए मारा गया। उसके बाद चेदि के हैहय वंशीय नरेशों और गाहड़वालों के शासन के बाद लोदी वंश के कई सुल्तान जौनपुर के साथ काशी को भी अपने अधीन मानते रहे। सन 1526 ई. के बाद से मुगलों के आधिपत्य का सिलसिला शुरू हुआ। काशी पर शेरशाह और सूरी वंश का भी शासन रहा। सन 1565 से 1567 तक अकबर कई बार बनारस आया और उसके द्वारा बनारस को लूटने के भी प्रमाण मिलते हैं। सन 1666 ई. में शिवाजी दिल्ली से औरंगज़ेब को चकमा देकर जब भागे तो काशी होकर वापस दक्षिण गए थे। औरंगज़ेब के समय में काशी का नाम मुहम्मदाबाद रखा गया था। मुगलों के बाद नाबाबों का आधिपत्य काशी पर रहा।

वर्तमान काशी नरेशों की परंपरा श्री मनसाराम जी से शुरू होती है जो गंगापुर के बड़े ज़मींदार मनोरंजन सिंह के बड़े पुत्र थे। 1634 ई. में जब लखनऊ के नवाब सआदत खाँ मीर रुस्तम अली से नाख़ुश होकर अपने नए सहायक सफदरजंग को काशी भेजा उसी बीच मनसाराम ने बनारस, जौनपुर और चुनार परगनों को अपने पुत्र बलवंत सिंह के नाम बंदोबस्त करा लिये। राजा बलवंत सिंह ने ही रामनगर का किला बनवाया जो गंगा उसपार आज भी है। उनके बाद राजा चेत सिंह, राजा उदित नारायण सिंह, महाराजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह, महाराजा प्रभु नारायण सिंह, महाराजा आदित्य नारायण सिंह और महाराज विभूति नारायण सिंह हुए। महाराज विभूति नारायण सिंह की मृत्यु 25 दिसंबर सन 2000 ई. को हुई। उनके पुत्र कुंअर अनंत नारायण सिंह वर्तमान में काशी नरेश के रूप में पूरी काशी में सम्मानित हैं।

आज के बनारस की बात करें तो जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, मिर्जापुर और संत रविदास नगर जिलों की सीमाओं से यह बनारस जुड़ा हुआ है। इसका क्षेत्रफल 1535 स्क्वायर किलो मीटर तथा आबादी 31.48 लाख है। यहाँ आबादी का घनत्व बहुत अधिक है। इस बात को आंकड़े में इस तरह समझिये कि बनारस में प्रति स्क्वायर किलो मीटर में 2063 व्यक्ति हैं जबकि पूरे राज्य का औसत 689 प्रति स्क्वायर किलो मीटर का है। बनारस में मुख्य रूप से तीन तहसील हैं – वाराणसी, पिंडरा और राजतालाब जिनमें 1327 के क़रीब गाँव हैं। 08 ब्लाक, 702 ग्राम पंचायत और 08 विधानसभा क्षेत्र हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की पुरुष आबादी 19, 28, 641 और महिला आबादी 17, 53, 553 है। इस क्षेत्र में 122 किलोमीटर रेल मार्ग, नेशनल हाइवे – 100 किलोमीटर, और 2012-2013 तक 30, 50, 000 मोबाइल कनेकशन थे। 2012-13 तक के आकड़ों के अनुसार ही यहाँ ऐलोपैथिक अस्पताल – 202, आयुर्वेदिक अस्पताल- 26, यूनानी अस्पताल- 01, कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर -08, प्राइमरी हेल्थ सेंटर – 30 और प्राइवेट हास्पिटल – 70 हैं। बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से जुड़ा नवनिर्मित ट्रामा सेंटर शायद देश का सबसे बड़ा सेंटर हो जिसका कार्य अभी हो रहा है। यहाँ प्राइमरी स्कूल – 1851, मिडल स्कूल – 989, सीनियर और सीनियर सेकंडरी स्कूल – 409 तथा महाविद्यालय – 21 हैं।

बनारस में ऐश्वर्य और दरिद्रता एक साथ हैं। रिक्शा खींचनेवाला, अनाज़ की बोरियाँ ढोनेवाला, कुलल्हड़ बनानेवाले, होटलों और छोटी दुकानों पर काम करते मासूम बच्चे, खोमचेवाले, ठेलेवाले, दोना-पतरी बनाने और बिननेवाले, घाटों के निठल्ले, मल्लाह और भिखमंगों की लंबी फौज, वेश्यालय, अनाथालय, अन्नक्षेत्र इत्यादि पर। ये सब बनारस की एक अलग ही तस्वीर पेश करते हैं।

सबसे बुरी हालत यहाँ के बुनकरों की है। बनारस के 90% से भी अधिक बुनकर मुस्लिम समुदाय से हैं। शेष अन्य पिछड़ा वर्ग या फ़िर दलित हैं। इन बुनकरों की कुल आबादी लगभग 5 लाख के आसपास मानी जाती लेकिन कोई अधिकृत सूचना इस संदर्भ में मुझे नहीं मिली है। अलईपुरा, मदनपुरा, जैतपुरा, रेवड़ी तालाब, लल्लापुरा, सरैया, बजरडीहा और लोहता के इलाकों में बुनकर आबादी अधिक है। सरकारी दस्तावेज़ों में ये मोमिन अंसार नाम से दर्ज हैं। अधिकांश रूप से ये सुन्नी संप्रदाय के हैं। इनके अंदर भी कई वर्ग हैं। जैसे कि बरेलवी, अहले अजीज, देवबंदी इत्यादि। इनकी अपनी जात पंचायत व्यवस्था भी है। सँकरे घर, आश्रित बड़े परिवार, आर्थिक तंगी और गिरते स्वास्थ के बीच Bronchitis, Tuberculosis, Visual Complications, Arthritis, के साथ साथ दमा की बीमारी बुनकरों में आम है। पिछले कुछ सालों में एड्स जैसी बीमारी से ग्रस्त मरीज़ भी मिले हैं। कम उम्र में शादी, बड़ा परिवार, धार्मिक मान्यताएँ, पुरानी शिक्षा पद्धति जैसी कई बातें इनकी दिक्कतों के मूल में हैं। PVCHR नामक संस्था ने अपने अध्ययन में पाया है कि 2002 से अब तक की बुनकर आत्महत्याओं की संख्या 175 से अधिक है।

गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण और बढ़ते कर्ज़ के बोझ तले दबे हुए बुनकर समाज़ में आत्महत्याओं का दौर शुरू हो गया। वाराणसी, 18 नवंबर 2014 को दैनिक जागरण में ख़बर छपी कि सिगरा थाना क्षेत्र के सोनिया पोखरा इलाके में रहनेवाले 38 वर्षीय बुनकर राजू शर्मा ने आर्थिक तंगी से लाचार होकर फांसी लगा ली। खबरों के अनुसार लल्लापुरा स्थित पावरलूम में काम करनेवाले राजू के पास बुनकर कार्ड एवं हेल्थ कार्ड भी थे जिनसे उसे कभी कोई लाभ नहीं मिला। यह समसामयिक घटना तमाम सरकारी योजनाओं के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगाती हैं।

बुनकर कर्म रूपी साधना तो कर रहा है लेकिन साधनों पर उसका अधिकार नहीं है। उसके और बाज़ार के बीच कई तरह के बिचौलिये और दलाल हैं। मालिक, दलाल, कमीशन एजेंट, कोठीदार, होलसेलर और खुरदरा व्यापारी इनके बीच बुनकर एक दम हाशिये पर है। बनारस के लगभग तीन चौथाई बुनकर ठेके या मजदूरी पर काम करते हैं। अनुमानतः 20% से भी कम बुनकर स्थायी कर्मचारी के रूप में कार्य करते हैं। बुनकरों को व्यापारी एक साड़ी के पीछे 300 से 700 रूपये से अधिक नहीं देते। और ये पैसे भी साड़ी के बिकने के बाद ही दिये जाते हैं। यह एक साड़ी बनाने के लिए एक बुनकर को प्रतिदिन 10 घंटे काम करने पर 10 से 15 दिन लग जाते हैं। औरतों को बुनकरी का काम सीधे तौर पर नहीं दिया जाता लेकिन वे घर में रहते हुए साड़ी से जुड़े कई महीन काम करती हैं जिसके बदले उन्हें 10 से 15 रूपये प्रति दिन के हिसाब से मिल पाता है। ऐसे में इनकी हालत का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

बनारस की गरीबी की तरह इसकी अमीरी भी अनोखी है। यहाँ के कोठीदार रईसों को लेकर न जाने कितनी क्विदंतियाँ हैं। पैसे और तबियत दोनों से ही रईस बनारस में रहे हैं। मखमल का कोट उल्टा पहनने वाले रईस, अपने तबेले में सैकड़ों गणिकाओं को बाँध कर रखने वाले रईस (पाण्डेयपुर के लल्लन-छक्कन), सोने और चाँदी के वर्क में लिपटे हुए पान को खाने वाले रईस, कुएँ, तालाब, धर्मशाला, अन्नक्षेत्र, मंदिर और विद्यालय-महाविद्यालय बनवाने वाले रईस और गुलाबबाड़ी की मस्ती में सराबोर रईस आप को बनारस में ही मिल सकते हैं। साह मनोहरदास और उनके वंशज, राजा पट्टनीमल के वंशज, राय खिलोधर लाल के वंशज (भारतेन्दु हरिश्चंद्र), फक्कड़ साह का घराना, जैसे कई रईसों के नाम से भी बनारस जाना जाता रहा है। इनकी रईसी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये कई राजाओं, ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेज़ों के कर्मचारियों तक को ऋण देते थे।

ये कलाप्रेमी, समाजसेवा में रुचि रखनेवाले तथा विद्वानों का आदर करनेवाले लोग थे। इन्हीं रईसों की खुली तबियत की वज़ह से बनारस में गणिकाओं का अपना शानदार मुहल्ला हुआ करता था। ये आलीशान कोठीदार मुहल्ले जितने मशहूर उतने ही मगरूर और बदनाम। दालमंडी, नारियल बाज़ार और गोविंदपुरा के इलाकों में इनके कोठे थे। यहाँ गणिकाओं के लिये बाई शब्द प्रचलित था। काशी की गणिकाओं ने संगीत की महफिलें ही नहीं सजाई अपितु ठुमरी, दादरा, टप्पा की बनारसी छाप एवं कई अवसरों पर गाये जानेवाले लोकगीतों को राग – रागिनियों में बाँध कर उनकी गायकी एवं प्रस्तुति की बनारसी शैली ही विकसित कर दी। यह उनका बहुत बड़ा योगदान है।

हुस्न, अदा, कला, नज़ाकत, हाज़िरजबाबी और तहज़ीबवाली वो तवायफ़ें, वो मुजरे वो शानो शौकत भरी कोठियाँ अब नहीं हैं और नाही अब वैसे क़द्रदान। अब तो मड़ुआडीह और रामपुर में गंदगी, सीलन, अश्लीलता और फूहड़ता भरी वेश्याओं की बस्ती है। कॉल गर्ल्स लगभग उसी तरह उपलब्ध हैं जैसे देश के हर महानगर में हैं। विदेशी काल गर्ल्स की बनारस में भरमार है। बिहार, कलकत्ता, नेपाल और बांग्लादेश से आई/लाई गई लड़कियां यहाँ देह व्यापार में बहुतायत में हैं। रांड, सांड, सीढ़ी, संन्यासी इनसे बचा तो जा सकता है लेकिन बनारस में रहते हुए इनसे वास्ता ज़रूर पड़ता है। बनारस में आजकल ट्रैफ़िक जाम से बचना बड़ी बात है।

मुक़दमेबाज़ी, व्यापार की उपेक्षा, घाटा और अपनी ऐयाशियों के चलते इनकी रईसी जाती रही। लेकिन वो बनारसीपन और रईस तबियत अभी भी बनारस में देखने को मिल जाती है। “गुरु हाथी केतनउ दूबर होई, बकरी ना न होई।’’ – यह कहकर अट्टहास करने वाले कई बिगड़े रईस आप को मिल जायेंगे। और कई रईस ऐसे भी हैं जिन्हें आप आवारा मसीहा या बिगड़ा हुआ पैगंबर कह सकते हैं। पूरे देश में कोई स्त्री अगर कोई परीक्षा पास हो और उसकी खबर भारतेन्दु हरिश्चंद्र को लगे तो उस स्त्री के लिये साड़ी भिजवाने का काम वे ज़रूर करते थे। बनारसी रईस शाहों के शाह रहे। उनके वैभव के दिन भले चले गये हों लेकिन उनकी तृष्णा, उनकी अमीर तबियत और उनका वो अक्खड़पन आज भी आप को बनारस में दिख जाएगा।। काशी में संत और साधू के वेश में धूर्तों, पाखंडियों की कोई कमी नहीं है। वर्तमान चित्रा टाकीज़ के पास भी कुछ कोठे थे।

फ़िर वैभव का गढ़ तो यहाँ के अखाड़े और मठ भी रहे हैं। आज भी हैं। तंत्र, ज्योतिष और वेद के प्रकांड विद्वान संत अवधूत 1008 नारायण स्वामी के संदर्भ में कहा जाता है कि जब उनका मन होता वे कोठे पर मुजरा सुनने चल देते वो भी कई लोगों के साथ खुलेआम। ये वो साधू थे जो अपने मन की करते और निष्काम भाव से जीवन जीते। जब कभी इन अखाड़ों की सवारी निकलती है तो इनका वैभव प्रदर्शन भी होता है। कुंभ इत्यादि मेलों में इसे देखा जा सकता है।

हिंदी साहित्य को काशी ने इतना दिया है कि अगर काशी के अवदान को अलग कर हिंदी साहित्य को आँकने का प्रयास किया गया तो इसे मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं कहा जा सकता। आखिर तुलसी, कबीर, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रामचन्द्र शुक्ल, भारतेन्दु हरिश्चंद्र और देवकीनंदन खत्री, बाबू श्यामसुंदर दास, हरिऔध, पंडित लक्ष्मीनारायण मिश्र, और उग्र जी को निकाल हम हिंदी साहित्य में क्या आँकेंगें? काशी ने हिंदी पत्रकारिता को भी समृद्ध किया। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने सन 1845 में “बनारस अखबार” निकाला। इसी तरह सुधाकर, कविवचन सुधा, साहित्य सुधानिधि, आज़, मर्यादा, स्वार्थ, हंस और सनातन धर्म जैसे कई महत्वपूर्ण दैनिक एवं पत्रिकाएँ बनारस से निकली जिनका हिंदी पत्रकारिता के विकास में अहम योगदान है।

काशी के लोगों का अक्खड़-फक्कड़-झक्कड़ अंदाज़ बनारसीपन की पहचान है। दिव्य निपटान, पहलवानी नित्य क्रिया के भाग थे। फिर खान-पान का भी तो अपना बनारसी मिज़ाज रहा है। कचौड़ी-जलेबी, जलेबा, चूड़ामटर, मलाई पूरी, श्रीखंड, मगदल, बसौंधी, गुड़ की चोटहिया जलेबी, खजूर के गुड़ के रसगुल्ले, छेना के दही वड़े, टमाटर चाट, पहलवान की लस्सी, मलाई, रबड़ी, मगही पान तथा बनारसी लंगड़ा चूसते तथा भांग छानते हुए बनारसी, दुनियाँ को भोसड़ीवाला कहकर अट्टहास करनेवाले अड़ीबाज बनारसी अब कम होते जा रहे हैं। लंका पर “लंकेटिंग” और पप्पू की अड़ी पर आनेवाले अब बकैती के साथ चाय-पान में ही खुश रहते हैं। संयुक्त परिवारों का टूटना, आर्थिक दबाव, शहर का विस्तार, बदलती जीवन शैली, समाजिकता का स्वरूप और आत्मकेन्द्रित सोच इसके पीछे के कारण हैं। लेकिन आज भी केशव पान की दुकान या पप्पू की अड़ी या फिर घाट की सीढ़ियों पर अनायास आप को “गुरु” संबोधित करके कोई बनारसी घंटों आप से मस्ती में बतिया सकता है।

काशी में मुस्लिम, मारवाड़ी, दक्षिण भारतीय, महाराष्ट्री, बंगाली, नेपाली, पहाड़ी, गुजराती, बिहारी और पंजाबी समेत देश के सभी प्रांतों के लोग सदियों से एक साथ रह रहे हैं जिन्हें कभी उन्हीं के राजाओं-महरजाओं ने काशी में बसाया। इन सभी के बीच एक नई संस्कृति विकसित हुई जिसे बनरसीपना कहा जा सकता है। बनारस के घाटों के आस-पास इनके मुहल्ले हैं जो अन्यत्र भी फैले हुए हैं।

रविदास घाट, असीसंगम घाट, दशाश्वमेघ घाट, मणिकर्णिका घाट, पंचगंगा घाट, वरुणासंगम घाट, तुलसी घाट, शिवाला घाट, दंडी घाट, हनुमान घाट, हरिश्चंद्र घाट, राज घाट, केदार घाट, सोमेश्वर घाट, मानसरोवर घाट, रानामहल घाट, मुनशी घाट, अहिल्याबाई घाट, मानमन्दिर घाट, त्रिपुर-भैरवी घाट, मीर घाट, दत्तात्रेय घाट, सिंधिया घाट, ग्वालियर घाट, पंचगंगा घाट, प्रह्लाद घाट, राजेन्द्र प्रसाद घाट इत्यादि के निर्माण में भारत के अनेकों राजा, महाराजा, रईसों, मठों एवं व्यापारिक घरानों का योगदान रहा है। काशी के घाटों और मंदिरों के निर्माण एवं उनके जीर्णोद्धार में महाराष्ट्र के राजाओं-महाराजाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। काशी नामक अपने लेख में भारतेन्दु हरिश्चंद्र लिखते हैं कि, “जो हो, अब काशी में जितने मंदिर या घाट हैं उनमें आधे से विशेष इन महाराष्ट्रों के बनाए हुए हैं।’’ बनारस में गंगा किनारे कच्चे-पक्के मिलाकर 80 से अधिक घाट हो गए हैं। नए घाटों का निर्माण कार्य भी ज़ारी है। सरकार भी पहल कर रही है। प्रधानमंत्री द्वारा चलाये गये स्वच्छ भारत अभियान के तहत घाटों की साफ-सफाई और इसके सुंदरीकरण की कई योजनाएँ प्रस्तावित हैं। सुबह-ए-बनारस में इन घाटों से गंगा को निहारना मन अकल्पनीय शांति प्रदान करता है। अब काशी में फिल्म निर्माण भी होने लगे हैं। वॉटर, लागा चुनरी में दाग, गैंग्स ऑफ वासेपुर, मोहल्ला अस्सी, यमला पगला दीवाना, राँझणा जैसी फिल्में काशी पर बनी हैं। कई डाकुमेंट्री काशी पर हैं जो अंतर्जाल पर उपलब्ध हैं।

काशी विद्वानों, संतों एवं कलाकारों की नगरी रही है। श्री गौड़ स्वामी, श्री तैलंग स्वामी, स्वामी भास्करानंद सरस्वती, श्री देवतीर्थ स्वामी, श्री रामनिरंजन स्वामी, स्वामी ज्ञाननंद जी, स्वामी करपात्री जी, स्वामी अखंडानन्द, पंडित अयोध्यानाथ शर्मा, डॉ. भगवान दास, गोस्वामी दामोदर लाल जी, श्री गणेशानन्द अवधूत, पंडित सुधाकर द्विवेदी, श्री बबुआ ज्योतिषी, पंडित अमृत शास्त्री, पंडित शिवकुमार शास्त्री, महामना पंडित मदनमोहन मालवीय, लाल बहादुर शास्त्री, तुलसी, कबीर, रैदास, प्रेमचंद, प्रसाद, उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, गुदई महराज, किशन महाराज, महादेव मिश्र, बाबू जोध सिंह, दुर्गा प्रसाद पाठक, रामव्यास पाण्डेय, कविराज अर्जुन मिश्र, चिंतामणि मुखोपाध्याय, शिरोमणि भट्टाचार्य, शिव प्रसाद गुप्त, और डॉ. जयदेव सिंह जी जैसे कितने नामों का उल्लेख करूँ? सिर्फ़ नाम भी लूँ तो हज़ार पृष्ठों की पुस्तक तैयार हो सकती है।

काशी अपने वीर क्रांतिकारी पुत्रों के लिये भी जानी जाती है। आज़ादी की लड़ाई में इन वीरों ने अपने प्राणों तक की आहुति दे दी। इन वीर सपूतों में चंद्र शेखर आज़ाद, रास बिहारी बोस, शचीन्द्र नाथ सान्याल, राजेन्द्र लाहिडी, झारखण्डे राय, दामोदर स्वरूप सेठ, सुरेशचंद्र भट्टाचार्य, मणींद्रनाथ बनर्जी जैसे अनेकों सपूत शामिल रहे।

काशी अपने विद्या प्रतिष्ठानों के लिए भी जाना जाता है। इन्हीं में प्रसिद्ध है काशी हिंदू विश्वविद्यालय जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के नाम से भी जाना जाता है। लगभग 1300 एकड़ में फैले इस अर्ध चंद्राकार विश्वविद्यालय परिसर के लिये भूमि महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी के प्रयासों से काशी नरेश प्रभु नारायण सिंह जी ने दी थी। इसका शिलान्यास 04 फरवरी सन 1916 ई. को तत्कालीन गवर्नर लार्ड हाडीज़ द्वारा हुआ था। इस विश्वविद्यालय में 20,000 विद्यार्थी और लगभग 5000 शिक्षक-शिक्षकेतर कर्मचारी वर्तमान में कार्यरत हैं। यहाँ का हिंदी विभाग दुनियाँ का सबसे बड़ा हिंदी विभाग माना जाता है। इस विभाग में 300 शोध छात्रों के पंजियन की व्यवस्था है।

इसी तरह महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ भी बनारस की एक शान ही है। इसकी स्थापना 10 फरवरी 1921 ई. को बाबू शिवप्रसाद गुप्त के प्रयासों से हुई। इसका शिलान्यास स्वयं महात्मा गांधी जी ने किया था। स्व. प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी यहीं से स्नातक थे। परिसर में स्थित “भारत माता मंदिर” भी काफी प्रतिष्ठित है। इसी तरह की दूसरी संस्था है – सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। अंग्रेज़ी सरकार द्वारा सन 1791 ई. में स्थापित हिंदू पाठशाला ही आगे चलकर क्वीन्स कालेज कहलाया और सन 1958 ई. में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय कहलाया। सन 1974 ई. में इसी का नाम सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय पड़ा। इसके अतिरिक्त बनारस में केंद्रीय तिब्बती उच्च अध्ययन संस्थान एवं जामिया सल्फिया जैसे महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थान भी हैं। पूरा बनारस ही मानों ज्ञान का तीर्थस्थल हो।

संगीत कला का बनारस सदैव से गढ़ रहा है। इसे संगीत नगरी के रूप में भी जाना जाता है। गुप्तलिक जैसे वीणा वादक इसी काशी से थे। बका मदारी और शादी खाँ की टप्पा गायकी कौन भूल सकता है? सारंगी वादक जतन मिश्र, कल्लू, धन्नू दाढ़ी, नक्कार वादक सुजान खाँ, शहनाई के जादूगर बिस्मिल्ला खाँ क्या परिचय के मोहताज़ हैं? बनारस के तबला घरानों की अपनी अलग छाप थी। बनारस के जो संगीत घराने प्रसिद्ध रहे उनमें तेलियानाला घराना, पियरी घराना, बेतिया घराना और सम्पूर्ण कबीर चौरा घराना शामिल हैं। मशहूर कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी जिनका हाल ही में निधन हुआ बनारस से थीं। गायन और वादन के लगभग सभी क्षेत्रों के प्रकांड संगीतकार बनारस से जुड़े रहे। इसी तरह बनारस की मूर्तिकला, पारंपरिक खिलौनों, चित्रकारी, नक्कासी, जरी के काम, नाट्यकला, मंचन इत्यादि का भी अपना गौरवशाली इतिहास रहा है।

बनारस पर कवि केदारनाथ की कविता की बानगी देखिये

“.....
यह आधा जल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में
आधा मंत्र में
अगर ध्यान से देखो
तो आधा है
और आधा नहीं है।’’

बनारस अपनी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, व्यापारिक और प्राकृतिक संपन्नता के साथ जब मस्ती और मलंगयी का संदेश देता है तो पूरी दुनियाँ यहाँ खिची चली आती है। बनारस माया और मोह के सारे आवरण के बीच जीवन का यथार्थ दर्शन है। यह बाँध कर बंधन मुक्त बनाता है। यह जीवन को समझने और जानने से कहीं अधिक जीवन को जीने का संदेश देता है। यह शरीर की मृत्यु का आनंद मनाता है और कर्मों से जीवन को अर्थ देने का संदेश देता है। यह आधा होकर भी आधा नहीं हैं। क्योंकि यह होकर भी न होने का अर्थ सदियों से समझा रहा है। सचमुच काशी परमधाम है।

डॉ मनीषकुमार सी. मिश्रा
यूजीसी रिसर्च अवार्डी
हिंदी विभाग
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी
वाराणसी।
मो.- 8080303132 , 8853523030, 8090100900
manishmuntazir@gmail.com
www.onlinehindijournal.blogspot.in

वाराणसी। साहित्य कुञ्ज डॉट नेट से साभार )....


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