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Tuesday, May 5, 2015

द्वारकाधीश मंदिर

(५ मई २०१५-मंगलवार, तीर्थ यात्रा का आठवा दिन) : यह पवित्र नगरी कई मायनों में अति महत्त्वपूर्ण है जैसे हिन्दू धर्म के मुख्य चार धामों में से एक, हिन्दू पुराणों के अनुसार सप्त मोक्षदायिनी पुरियों में से एक तथा आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों दिशाओं में स्थापित मठों में से एक श्री शारदा मठ यहीं पर स्थित है. यह नगर भगवान श्री विष्णु के १०८ दिव्य देसम में से भी एक है. हिन्दू पुराणों के अनुसार द्वारका सात मोक्षदायी तथा अति पवित्र नगरों में से एक है. गरुड़ पुराण के अनुसार- 

अयोध्या,मथुरा, माया, कासी, कांची अवंतिका,
पूरी, द्वारावती चैव सप्तयिता मोक्षदायिकाः

द्वारका को मोक्ष तीर्थ भी कहा जाता है। श्रद्धालुओं की ऐसी मान्यता है कि चारों धामों के साथ इन पवित्र पूरियों के दर्शन करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है तो मोक्ष के लालच में ले चले माता श्री को द्वारका दर्शन के लिए, अब हमारी टैक्सी चल पड़ी द्वारिका धीश की नगरी का अवलोकन करने, टैक्सी वाले से बात चित करने पर यही समझ में आया की नगर का अधिकांश राजस्व तीर्थयात्रियों से मिलता है ज्वार, बाजरा, घी, तिलहन और नमक यहां के बंदरगाह से जहाज़ों द्वारा भेजे जाते हैं। आज भी द्वारका की महिमा इसकी सुन्दरता बखानी नहीं जाती। समुद्र में उठती बड़ी-बड़ी लहरें इसके किनारों को इस तरह धोती है, जैसे इसके पैर पखार रही हो। कृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है। ऐसा कहा जाता है कि जंहा पर प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है, वंहा पर जब भगवान कृष्ण द्वारा इस नगरी को बसाया गया था उस समय यंहा पर उनका निजी महल 'हरि गृह' हुआ करता था। जरासंध के आक्रमण से बचने के लिए श्रीकृष्ण मथुरा से कुशस्थली आ गए थे और यहीं उन्होंने अपने यादव कुल के लिए गोमती नदी के किनारे नई नगरी द्वारका बसाई थी। द्वारकापुरी की रक्षा के लिए उन्होंने अभेद्य दुर्ग की रचना की थी, जहाँ रहकर स्त्रियां भी युद्ध कर सकती थीं।
  
तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्, स्त्रियोऽपियस्यां युध्येयु: किमु वृष्णिमहारथा: 
                                  
भगवान कृष्ण के जीवन से संबंध होने के कारण इस स्थान का विशेष महत्त्व है। महाभारत के वर्णनानुसार कृष्ण का जन्म मथुरा में कंस तथा दूसरे दैत्यों के वध के लिए हुआ था। इस कार्य को पूरा करने के पश्चात वे द्वारका (कठियावाड़) चले गये। आज भी गुजरात में स्मार्त ढंग की कृष्णभक्ति प्रचलित है। यहाँ के दो प्रसिद्ध मन्दिर 'रणछोड़राय' के हैं, अर्थात् उस व्यक्ति से सम्बन्धित हैं जिसने ऋण (कर्ज) छुड़ा दिया। इसमें जरासंध  के भय से कृष्ण द्वारा मथुरा छोड़कर द्वारका भाग जाने का अर्थ भी निहित है। किन्तु वास्तव में 'बोढाणा' भक्त की प्रीति से कृष्ण का द्वारका से डाकौर चुपके से चला आना और पंडों के प्रति भक्त का ऋण चुकाना यह भाव संनिहित है। ये दोनों मन्दिर डाकौर (अहमदाबाद के समीप) तथा द्वारका में हैं। दोनों में वैदिक नियमानुसार ही यज्ञ आदि किये जाते हैं।

अतीत से जुड़ी ढेरों कथाएँ और मान्यताएँ प्रचलित है, लेकिन आज के युग में द्वारकाधीश मंदिर द्वारका की आधुनिक पहचान है। धर्म के लिहाज से द्वारका को देश के चार धामों में शामिल करने में जितना इस नगरी के अतीत का योगदान है उतना ही द्वारका के वर्तमान ने इसमें अपना योगदान दिया है। आज द्वारका में कई ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रतीक है जो अतीत और वर्तमान के बीच डोर का काम कर रहे है।
तो बात करते करते हम फिर पहुच गए नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, फिर हमने टैक्सी वाले को बताया की हम तो सुबह ही पूजा कर चुके है तो टैक्सी वाला हमें अगले स्थान पर ले गया 
  
गोपी तालाब:
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से कुछ किलोमीटर चलने के बाद बेट द्वारका के रास्ते में आता है गोपी तालाब कहा जाता है की नटवर नागर कृष्ण के प्रेम में गोपियां दीवानी थीं। लेकिन जब कृष्ण नहीं लौटे तो हजारों गोपियों ने कृष्ण प्रेम में तालाब में समाहित होकर प्राण त्याग दिए। कान्हा की नगरी द्वारका से थोड़ी दूर पर स्थित है गोपी तालाब तीर्थ। कहा जाता है कि कृष्ण ने गोपियों को इस तालाब की पवित्र मिट्टी से स्नान करवा कर उन्हें पवित्र किया था। बाद में जब गोपियों ने कृष्ण के विरह में इस तालाब में प्राण त्याग दिए थे। मिट्टी है चंदन समान - कृष्ण ने इस तालाब की मिट्टी को वरदान दिया कि तालाब की मिट्टी चंदन के जैसी हो जाएगी। जो भी इस मिट्टी को अपने शरीर से लेप करेगा उसे शांति मिलेगी और उसके दुख दूर होंगे। सचमुच गोपी तालाब से मिलने वाली मिट्टी चंदन सरीखी है। लोग यहां से मिट्टी लेकर जाते हैं। मंदिरों के आसपास की दुकानों में इस तालाब की मिट्टी बिकती है। इसे गोपी चंदन कहते हैं।द्वारका और आसपास का भ्रमण वाली ज्यातर बसें/टैक्सीया श्रद्धालुओं को अपने आधे दिन के सैर सपाटा कार्यक्रम में गोपी तालाब भी लेकर जाते हैं। यहां तालाब के किनारे कई मंदिर बने बैं। इन मंदिरों में कृष्ण और गोपियों को रासलीला की झांकियां सजाई गई हैं। कई मंदिरों में भव्य प्रदर्शनियां भी लगी हैं। सभी मंदिर असली और अति प्राचीन होने का दावा करते हैं। इन मंदिरों के पुजारी श्रद्धालुओं को कृष्ण की कथा सुनाकर मंदिर में दान दक्षिणा करने का दबाव बनाते हैं। पर आप इनके चक्कर में नहीं आएं। यहां बने ज्यादातर मंदिर निजी मंदिरों की तरह हैं। इसलिए यहां दिया दान सीधे पुजारियों की जेब में जाता है। तालाब सिर्फ देखने के लायक है । ऐतिहासिक होने की वजह से उसे देखने के लिये रूक गये थे । कुछ देर इस जगह पर बिताने तथा तालाब के दर्शनों के पश्चात हमारी टैक्सी चल पड़ी बेट द्वारका की ओर.
 
 
बेट द्वारका: बेट द्वारका, द्वारका शहर से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित ओखा बंदरगाह, कच्छ की खाड़ी के मुहाने पर स्थित है। यहाँ से पाकिस्तान की दूरी सिर्फ दो सौ किलोमीटर है। ओखा तट रक्षा और विदेश व्यापर के लिए देश के लिए बहुत महत्व-पूर्ण है। ओखा हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है क्यों कि शास्त्रों के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के ग्रीष्म आवास बेयत द्वारका जाने के लिए नौका(ferry) यहीं से जाती है। ऐसा माना जाता है की यह जगह भगवान कृष्ण का निवास स्थान थी. भगवान कृष्ण बेट द्वारका में निवास करते थे तथा उनका कार्यालय (दरबार) द्वारका में था. बेट द्वारका वही जगह है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की अपने बाल सखा सुदामा जी से मुलाकात (भेंट) हुई थी इसी वजह से इसे बेट द्वारका कहा जाता है. बेट द्वारका समुद्र के कुछ किलोमीटर अन्दर एक छोटे से द्वीप (Island) पर स्थित है जहाँ पहुँचने के लिए ओखा के समुद्री घाट (Jetty ) से फेरी (छोटा जहाज या नाव) की सहायता से जाना पड़ता है. फेरी से बेट द्वारका पहुँचने में लगभग आधे घंटे का समय लगता है. लेकिन यह आधे घंटे का सफ़र बड़ा ही आनंददायक होता है, खुले आकाश में नाव की सवारी करके एक टापू पर पहुंचना सचमुच बहुत सुखद अनुभव था. अस्सी सवारियों की क्षमता वाली नैय्या में कोई डेढ़ सौ आदमी भरे गए। डगमग चलती नाव कभी इधर तो कभी उधर झुकती जा रही थी। नाव वाला यात्रियों को इधर से उधर वजन कम-ज्यादा करने के निर्देश दे रहा था जिनकी तुरंत पालना की जा रही थी। नौका उलटने का डर सभी को लग रहा था। पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड हमारी नाव के ऊपर उड़ रहे थे एवं कई बार तो ये पक्षी एकदम हमारे करीब आ जाते थे इतना करीब की हम उन्हें छू सकते थे. इस कभी न भूलने योग्य अनुभव को हमने अपनी स्मृति में हमेशा के लिए बसा लिया और कुछ ही देर में हम बेट द्वारका के द्वीप पर पहुँच गए. बेट द्वारका में मंदिर के अन्दर कैमरा मोबाईल ले जाना मना है, सुरक्षा से गुजर कर हम अन्दर पहुचे और हमने सबसे पहले दर्शन किये भगवान कृष्ण के निवास स्थान के जो अब एक मंदिर है. मंदिर में हमलोगों ने पूजा-अर्चना की। इस मंदिर में लक्ष्मी-नारायण, त्रिविक्रम, जम्बावती सत्यभामा देवी और रुक्मणी देवी की मूर्तियाँ थी ।बेट द्वारका में और भी सुन्दर तथा देखने लायक मंदिर हैं. मंदिर की दीवारों पर श्री कृष्ण के जीवन की घटनाओं को उत्कीर्ण किया गया है। मंदिर के अन्दर पुजारी लोग भक्तो को बैठा के उनके पाप पुण्य का हिसाब भी समझाते है और उससे मुक्त होने के लिए दान लेने का भी बंदोबस्त है, पुजारियों के हाथो में बही खाता हमेसा रहता है एक दम चित्रगुप्त स्टाइल खैर दर्शन कर निकले बाहर टापू का छोटा सा बाज़ार अति सुंदर  हस्त शिल्प से पटा पड़ा है। बन्दनवारें,पाउच और कलात्मक हैण्ड बैग बरबस ही मन मोह लेते हैं। सभी दुकानो पर एक ही दाम और मोल भाव बिलकुल नहीं। साँझ ढली तो वापसी का सफ़र। रात आठ बजे फेरी बंद हो जाती है और नावें मछली पकड़ने चल पड़ती हैं। फिर बोट से वापस ओखा बंदरगाह.. , अब चल पड़े वापस , इस रास्ते के एक और स्थान जिसका मैं जिक्र करना चाहूँगा वो है वह नमक उत्पादन का नगर !! जी हा यही बनता है "देश का नमक "
  इस रास्ते में मीठापुर नाम की जगह है जहां पर "टाटा केमिकल्स लिमिटेड" का बृहद कारखाना है । अगर आप गुजरात के मानचित्र को ध्यान से देखें तो इसका समुद्रतटीय हिस्सा एक खुले हुए मुंह जैसा दिखेगा और यह मीठापुर इसके निचले जबड़े पर बिलकुल सिरे पर स्थित है जो कि द्वारकानगरी से लगभग २०  कि.मी. और ओखा पोर्ट से १०  कि.मी. की दूरी पर है । इस कारखाने की वजह से यह छोटी सी बसाहट शुरू से ही सुव्यवस्थित और विकसित है ।अबी आगे तो टाटा समूह ने देश का सबसे बड़ा सोलर फोटोवोल्टैक संयंत्र गुजरात के मीठापुर में लगाने की योजना बनायी है। इस संयंत्र की क्षमता 50 मेगावाट की होगी।
बेट द्वारका में करीब २ घंटे रुकने के बाद हमारी टैक्सी वापस रुक्मणि मंदिर की तरफ प्रस्थान की यह मंदिर द्वारका से करीब 3 किलोमीटर की दुरी पर द्वारका शहर के बाहरी हिस्से में स्थित है. इस मंदिर के बारे में एक रोचक कहानी है की एक बार दुर्वासा ऋषि जो भगवान श्री कृष्ण के गुरु थे, द्वारका में पधारने वाले थे यह खबर सुनकर भगवान कृष्ण तथा माता रुक्मणि उन्हें ससम्मान लेने के लिए जंगल में गए, दुर्वासा ऋषि की इच्छा के अनुरूप भगवान कृष्ण तथा रुक्मणि रथ में घोड़ों की जगह खुद जुत गए, अत्यधिक गर्मी तथा थकान की वजह से माता रुक्मणि को प्यास सताने लेगी तो भगवान श्रीकृष्ण के माता की प्यास बुझाने के लिए जमीं से कुछ पानी निकाला जिसे रुक्मणि जी पीने लगी, यह देखकर ऋषि दुर्वासा बहुत क्रोधित हो गए की पहले गुरु से पानी का पूछने के बजाय रुक्मणि ने खुद कैसे पानी पी लिया. अत्यधिक क्रोधी स्वाभाव के होने के कारन दुर्वासा ने रुक्मणि जी को श्राप दिया की अगले बारह वर्षों तक रुक्मणि जी भगवान कृष्ण से दूर इसी स्थान पर तथा प्यासी रहेंगी. इसी श्राप की वजह से माता रुक्मणि का यह मंदिर द्वारका से बाहर है. मंदिर में एक अजीब प्रथा भी है की हर भक्त मंदिर में प्रवेश से पहले एक छोटा ग्लास पानी पीकर ही प्रवेश कर सकता है अन्यथा नहीं.
मंदिर का शिल्प भी काफी अच्छा है । मंदिर की दीवारो पर प्रतिमाऐं सुंदरता से उकेरी गयी हैं । इस मंदिर का गुम्बदाकार मंडप और सीढिया इसकी प्राचीनता को साबित करते हैं । बाहरी दीवारो पर मनुष्यो और हाथियो की आकृति उकेरी गयी हैं । गर्भगृह में रूकमणी जी की मूर्ति है । मंदिर के बाकी जगहो में अन्य देवी देवताओ की मूर्तिया हैं । रुक्मणि मंदिर के दर्शनों के पश्चात करीब दस मिनट में बार यहाँ से आगे की ओर चल दी. टैक्सी का ड्राईवर ही गाइड का काम भी कर रहा था, तथा मंदिरों के बारे में बड़ी अच्छी जानकारी दे रहा था. यहाँ हमारी द्वारका दर्शन समाप्त हुई वैसे दृवार के अनुसार द्वारका में मंदिर ही मंदिर है अब हमें द्वारकाधीश के दर्शन करने थे, सुबह ही होटल के एक स्टाफ ने बताया था की शाम की आरती में भीड़ कम ही होती है , अच्छे से दर्शन हो जायेगा, तो लौट चले अपने होटल की तरफ और फिर आधे घंटे आराम करने के बाद माता जी को चाय पिलाया फिर शाम ८ बजे नहा धो कर चले दर्शन के लिए माता जी को ले कर ..

श्री द्वारकाधीश मंदिर-एक परिचय:
द्वारकाधीश का वर्तमान मंदिर सोलहवीं शताब्दी में निर्मित हुआ था, जबकि मूल (ओरिजिनल) मंदिर का निर्माण भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र राजा वज्र ने करवाया था. यह पांच मंजिला मंदिर चुने तथा रेत से निर्मित किया गया है. मंदिर के शिखर की ध्वजा प्रतिदीन पांच बार बदली जाती है. मंदिर के दो द्वार हैं स्वर्ग द्वार जहाँ से दर्शनार्थी भक्त प्रवेश करते हैं तथा दूसरा मोक्ष द्वार जहाँ से भक्त बाहर की ओर निकलते हैं. मंदिर से ही गोमती नदी का समुद्र से संगम देखा जा सकता है. मंदिर के अन्दर भगवान श्री कृष्ण की मूर्ति है जिसे राजसी वैवाहिक पोषाक से प्रतिदीन सजाया जाता है. रुक्मणि देवी का मंदिर अलग से बनाया गया है जो की बेट द्वारका के रास्ते पर पड़ता है. तो यह तो था एक सक्षिप्त परिचय द्वारका तथा द्वारकाधीश मंदिर से अब हम लौटते है पुनः अपनी दर्शन की ओर…………तो हम संध्या आरती के समय ८.३० पर हम लोग श्री द्वारकाधीश मंदिर पहुँचे मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था कड़ी थी तो जाच के बाद अन्दर लाइन में लग गए, और हमें बिना किसी परेशानी के करीब आधे घंटे में भगवान श्री द्वारकाधीश के दर्शन हो गए. भगवान का मोहक स्वरुप और मंदिर का भक्तिमय माहौल देखकर हम तो जैसे निहाल हो गए. अन्दर और भी ढेर सरे मंदिर थे जो अब बंद हो कर शयन की तयारी में थे, त्रैलोक्य सुन्दर जगत-मंदिर परिसर में विभिन्न देवी देवताओं एवं पटरानियों के मंदिर स्थित हैं,  

द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चाँदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है। यहाँ इन्हें 'रणछोड़ जी' भी कहा जाता है। भगवान ने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारणकिए हैं। बहुमूल्य अलंकरणों तथा सुंदर वेशभूषा से सजी प्रतिमा हर किसी का मन मोह लेती है। द्वारकाधीश मंदिर के दक्षिण में गोमती धारा पर चक्रतीर्थ घाट है। उससे कुछ ही दूरी पर अरब सागर है जहाँ समुद्रनारायण मंदिर स्थित है। इसके समीप ही पंचतीर्थ है। वहाँ पाँच कुओं के जल से स्नान करने की परम्परा है। बहुत से भक्त गोमती में स्नान करके मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं। यहाँ से ५६ सीढ़ियाँ चढ़ कर स्वर्ग द्वार से मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। मंदिर के पूर्व दिशा में शंकराचार्य द्वार स्थापित शारदा पीठ स्थित है।

 

जिनका विवरण इस प्रकार है -
१.शक्ति माताजी मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर के चौथी मंजिल पर स्थित।
२.कुशेश्वर महादेव मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में कुल बीस मंदिर हैं. मोक्षद्वार से प्रवेश करने पर दाहिने और नवग्रह देवता के यंत्र और समीप कुशेश्वर महादेव शिवलिंग विराजमान है। कहा जाता है कि द्वारका की यात्रा के आधे भाग का मालिक कुशेश्वर महादेव है। एक मत के अनुसार कुश नामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है।
३.काशी विश्वनाथ मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में स्थित है।
४.कोलवा भगत - द्वारकाधीश जी के अपंग भक्त कोलवा का मंदिर।
५.गायत्री मंदिर

६.प्रद्युम्न मंदिर - कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का मंदिर।
७.अनिरुद्ध मंदिर - कृष्ण के प्रपौत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का मंदिर। अनिरुद्ध का विवाह बाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था, जिसके कारण द्वारका क्षेत्र को उषामण्डल कहा जाता है।
८.अम्बा मंदिर - कृष्ण की कुलदेवी का मंदिर जिसकी पूजा शारदा पीठ द्वारा संपन्न की जा रही है।
९.पुरुषोत्तम मंदिर - द्वारकाधीश को पुरुषोत्तम कहते हैं।
१०.दत्तात्रेय मंदिर - नवनाथ के गुरु दत्तात्रेय की मूर्ति यहाँ है जिनकी पादुका जूनागढ़ के गिरनार के शिखर पर स्थापित है।
११.शेषावतार श्री बलदेव मंदिर - बलदेवजी भगवान त्रिविक्रमजी के साथ पातळ लोक से पधारे थे। श्री द्वारकाधीश मंदिर के सभा मंडप के कोने आपका मंदिर है।
१२.देवकी माता मंदिर - कृष्ण की माताजी का मंदिर।
१३.राधा-कृष्ण मंदिर - कृष्णने बाल्यावस्था में राधा के साथ बाल क्रीड़ाएँ तथा रासलीला की थी।
१४.माधवराय मंदिर - रुक्मिणी हरण के बाद कृष्ण की शादी रुक्मिणी के साथ माधवपुर गाँव में हुई थी। उस स्मृति के फलस्वरूप यहाँ मंदिर है।
१५.त्रिविक्रम मंदिर - कृष्ण के बड़े भाई बलभद्र का यह मंदिर है
१६.दुर्वासा मंदिर - दुर्वासा मुनि के शाप से श्रीकृष्ण और रुक्मिणी में वियोग हुआ। इस कारण रुक्मिणी का मंदिर द्वारका से बाहर है।
१७.जाम्बुवती मंदिर - जाम्बुवान की पुत्री और कृष्ण की पटरानी का मंदिर।
१८.राधिका मंदिर - वृषभान की पुत्री और कृष्ण की पटरानी का मंदिर, इनके साथ कृष्ण ने गोकुल-वृन्दावन में बाल लीलाएं की।
१९.लक्ष्मी मंदिर - कृष्ण की ज्येष्ठ पटरानी का मंदिर।
२०.सत्यभामा मंदिर - कृष्ण की पटरानी, सत्राजित की पुत्री। सत्राजित ने कृष्ण पर स्यमन्तक मणि चुराने का आरोप लगाया था। जाम्बुवन से मणि प्राप्त होने पर लज्जित होकर अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ मणि दहेज़ में दी। इनके रूठने पर कृष्ण ने स्वर्गलोक के नंदनवन से पारिजात वृक्ष इनको प्रसन्न किया।
२१. सरस्वती मंदिर - भगवती शारदा के रूप में यहाँ की प्रसिद्धि है।
२२. लक्ष्मी नारायण मंदिर लक्ष्मी जी और विष्णु का मंदिर है।
२३. ज्ञान मंदिर नारदा मठ - छप्पन सीढ़ी पर स्थित।
२४. शंकराचार्य समाधि - द्वारकाधीश मंदिर प्रांगण में भोग चोक के सामने माधवराय 


और देवकीजी मंदिर के बीच शारदापीठ परंपरा के दो शंकराचार्यों की प्राचीन समाधी है। पूरा मंदिर घुमने में २ घंटे बिताने के बाद हम लौट चले होटल की तरफ, रात का १०.३० हो चूका था तो मंदिर के पास ही एक दम शाकाहारी भोजनालय दिख गया घुस गए खाने के चक्कर में वहा मस्त पूरी सब्जी मिल गयी तो माता जी को खिला कर मैंने भी खाया फिर होटल में आ कर रात्रि विश्राम और यकीन मानिए भगवान कृष्ण की इस पावन नगरी में हमें इतनी मीठी नींद आई की सफ़र की सारी थकान मिट गई...

अगले दिन ६ मई द्वारका से मुंबई की ट्रेन थी तो सुबह जल्दी उठकर नहा धो सामान पैक कर माता जी को लेकर भगवान द्वारकाधीश के दर्शनों के लिए निकल पड़े और मंदिर पहुंचकर भगवान को अर्पण करने के लिए तुलसीदल (मंजरी) की माला ली. जिस प्रकार भगवान शिव जी को बेल पत्र प्रिय हैं उसी प्रकार भगवान विष्णु (कृष्ण) को तुलसी दल प्रिय है. दिन के समय मंदिर की सुन्दरता तथा विशालता देखकर मैं तो भावविभोर हो गया, और मंदिर के शिखर पर लहराती विशाल ध्वजा तो इतनी मनमोहक लगी की बस मैं देखता ही रह गई और मेरी पलके ही नहीं झपक रही थीं. दर्शन के पश्चात हमने प्रसाद काउंटर से प्रसाद ख़रीदा. मंदिर में एक २५० रु. का माखन मिश्री का भोग लगता है, मेरी बहुत इच्छा थी यह भोग चढाने की लेकिन पता नहीं क्यों मैंने यह नहीं किया, और इसीलिए आज भी मेरे दिल में एक टीस सी उठती है लेकिन कोई बात नहीं मैं तो सोचता हूँ शायद भगवान मुझे दुबारा अपने द्वार बुलाना चाहते हैं शायद इसी लिए यह कमी रह गई.
दर्शन पूर्ण हुवा लेकिन अभी भी बहुत कुछ घूमना बाकि था लेकिन समय की कमी के कारण एक गाइड ख़रीदे द्वारिका के बारे में , उसके अनुसार द्वारका के निकट अन्य दर्शनीय स्थान

गोमती द्वारका - द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते है। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते है।
निष्पाप कुण्ड: इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें हैं।

पंचनद तीर्थ - द्वारका तीर्थ के गोमती नदी पर पंचनद तीर्थ है। यहाँ की लोक भाषा में इस तीर्थ को पंचकुई कहा जाता है। यहाँ चारों तरफ समुद्र का खारा पानी है परन्तु इन पांच कुओं में मीठा पानी है। कहते हैं कि यहाँ पांडवों ने निवास किया था। इसके समीप ही लक्ष्मीनारायणदेव जी का मंदिर है। बगल में पांडवों की गुफा है। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर।

शंकराचार्य स्मारक - गोमती पार पंचकुआँ के पास शंकराचार्य स्मारक स्थल है।

गोमती जी - द्वारका नगरी गोमती नदी एवं अरब तट पर स्थित है। गोमती नदी का उद्गम स्थल द्वारका से १६ किमी दूर नानाभावड़ा गाँव के पास है। इसलिए इस जगह को मूल गोमती के नाम से जाना जाता है। कुछ लोग इसे मूल गोमता नाम से भी पुकारते हैं। गोमती नदी गंगा का दूसरा स्वरुप है। जिसे वशिष्ठ जी की पुत्री कहा गया है। इसका स्कंदपुराण के द्वारका महात्म्य के अंतर्गत पांचवें अध्याय में किया गया है। स्कंदपुराण में बताया गया है कि मन, वाणी तथा कर्म के द्वारा किये गए समस्त पाप गोमती में स्नान करने से नष्ट हैं।

गोमती माता का मंदिर- छप्पन सीढ़ी के सामने गोमती माता का मंदिर स्थित है।

संगम नारायण मंदिर - माता गोमती जी का संगम जिस स्थान पर समुद्र से होता है, वहीँ पर संगम नारायण मंदिर है।

चक्रतीर्थ - संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहते है। चारधाम एवं सप्तपुरियों में वर्णित द्वारका को चक्रतीर्थ के नाम से जाना जाता है। स्कन्द पुराण में प्रभास खंड के द्वारका महात्म्य के अध्याय में इसका वर्णन है। गोमती और समुद्र के संगम स्थल पर शीला की प्राप्ति होने के कारण इसे चक्रतीर्थ कहा गया है। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे 'ज्ञान-कुण्ड' कहते है। इससे आगे जूनीराम बाड़ी है, जिससे, राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तिया है। इसके बाद एक और राम का मन्दिर है, जो नया बना है। इसके बाद एक बावली है, जिसे सौमित्री बावली यानी लक्ष्मणजी की बावजी कहते है। काली माता और आशापुरी माता की मूर्तिया इसके बाद आती है।

कैलासकुण्ड़: इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड़ का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड़ के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है। इसके आगे द्वारका शहर का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय बैकुण्ठ में भगवान के महल के चौकीदार है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है। यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं परिश्रम खत्म हो जाती है। यही असली द्वारका है।

रणछोड़जी का मन्दिर: रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। भगवान कृष्ण को उधर रणछोड़जी कहते है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल । सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे है। एक तरफ ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिले है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती है।

शंख तालाब : रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।

बाण तीर्थ: द्वारका कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के भील ने कृष्ण भगवान के पैर में तीर मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मे बड़ा भारी मेला भरता है।बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है। हिरण्य नदी के दाहिने तट पर एक पतला-सा बड़ का पेड़ है। पहले इस सथान पर बहुत बड़ा पेड़ था। बलरामजी ने इस पेड़ के नीचे ही समाधि लगाई थी। यहीं उन्होनें शरीर छोड़ा था

यादवस्थान: सोमनाथ पट्टन बस्ती से थोड़ी दूर पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके चौड़े-चौड़ पत्ते होते है। यही वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां वे खत्म हुए थे।

सोमनाथ पट्टल:
बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पट्टल है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।

सोमनाथ: इस सोमनाथ पट्टन कस्बे में ही सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर को महमूद गजनवी ने तोड़ा था। यह समुद्र के किनारे बना है इसमें काला पत्थर लगा है। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी शरमा जायं। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका। लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर कस्बे के अन्दर बनबाया था। यह अब भी खड़ा है।

शामलशाह भगवान का मंदिर
- द्वारकाधीश ने नरसिंह भगत की हुंडी की रकम शामलशाह बन कर दिया।

सिद्धेश्वर महादेव मंदिर - द्वारका तीर्थ के अंतर्गत आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदापीठ के आराध्य सिद्धेश्वर महादेव मंदिर का वर्णन स्कन्द पुराण के द्वारका महात्म्य के चतुर्थ अध्याय में किया गया है।

भद्रकाली माताजी मंदिर
- द्वारकाधीश स्थित शारदापीठ की आराध्या भगवती का मंदिर इससे आधा किमी स्थित है। इस मंदिर के पत्थर पर श्रीचक्र अंकित है।

११ बज चूका था १२.३० की हमारी अगली ट्रेन थी, तो वापस लौट चले, रस्ते में ही नास्ता किया और ट्रेन के लिए दिन का खाना पैक करा के चल पड़े मुंबई के लिए ये हमारे माता जी का तीर्थ यात्रा का समापन था, चुकी माता जी मुंबई में ही पैदा हुई, मतलब मेरा ननिहाल तो बनारस में पर नाना जी मुंबई में भी जमे है तो सदियों पहले की मुंबई दिखने के लिए चल दिए 
फिर द्वारका – मुंबई ट्रेन # 19006 Saurashtra Mail Dwarka 12:58.. Mumbai Central 07:10






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