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Sunday, September 27, 2020

मस्ती से भरल रहीला बनारस के लोग, उहवें के किस्सा पढ़े रउओ हो जाइब मस्त!

मस्ती से भरल रहेला बनारस के लोग, उहवां के किस्सा पढ़के रउओ हो जाइब मस्त!
बनारसी संस्कृति अउर जीवनशैली क जीवनी तत्व मस्ती हौ. बनारसी बिना भोजन के रहि सकयलन, लेकिन मस्ती के बिना नाही रहि सकतन. खांटी बनारसी दूसरे जगह एही के नाते असानी से टिक नाही पउतन.

बनारस में आज भले ही धर्म क बोलबाला होय, लेकिन असल में बनारस धर्म के साथ ही देश क संस्कृति अउर विद्या क राजधानी हौ. संस्कृति भी गंगा-जमुनी. मस्ती बनारसी संस्कृति अउर जीवनशैली क जीवनी तत्व हौ. बनारसी बिना भोजन के रहि सकयलन, लेकिन मस्ती के बिना नाही रहि सकतन. खांटी बनारसी दूसरे जगह एही के नाते असानी से टिक नाही पउतन. बनारस में कहावत चलयला -जवन मजा बनारस में, उ न पेरिस न फारस में. आज भी कवनो बनारसी से पूछा कि आखिर बनारस में अइसन कवन खासियत हौ कि शहर से एतनी मोहब्बत हौ त उ इहय बात कही कि दुनिया में तमाम चीज मिलि सकयला, लेकिन बनारस जइसन मस्ती अउर बनारसिन जइसन अपनत्व नाही मिलि सकत.

बनारस में एक पन्नी गुरु क किस्सा सुना. हलांकि बनारस में सब गुरु हौ. यादव, दूबे, चउबे, मिश्रा, गुप्ता, सिंह, पटेल जइसन टाइटल बनारसी कगरी लगाइके रखयलन. गुरु तखल्लुस हिया बनारसी नागरिकता क पहिचान हौ. त पन्नी गुरु एक ठे पाने के दुकानी पर खड़ा रहलन. खड़ा का, घंटा भर से मुंहे में पान घुलइले जनता जनार्दन के बनारसी में ज्ञान देत रहलन. तबय बीचे में एक अर्द्ध बनारसी टपकि पड़ल -का बात कहत हय गुरु, अमेरिका रोज चांद पर आदमी भेजत हौ अउर तू हिया दुइ घंटा से खाली मुंहे में पान घुलावत हउवा. एतनय में टन्नी गुरु क भेजा गरम होइ गयल. पच्च से मुंहे क पान थूकलन अउर ताव में जवाब देहलन -देखा चाहे चंद्रमा होय या सूरज होय, जे सारे के गरज होई उ हिया आई, टन्नी गुरु टस से मस न होइहय. समझ में आयल कि नाही.
अजगर करय न चाकरी पंछी करय न काम,
दास मलूका कह गए सबके दाता राम.
त हर बनारसी एही सिद्धांत क पालन करयला. अउर बहरी अलंग के बहार क मजा लेवय के नाम पर देवतन तक के जीभी से पानी टपकयला. बहरी अलंग उ स्वर्ग हौ, जहां जाए बदे हर बनारसी मस्त मलंग मचलायल करयला. एकर मतलब इ नाही कि बनारसी लोग साधना करय उहां जालन. अरे बहरी अलंग बनारिसन के मस्ती क अड्डा हौ, पूरी पलटन के साथ रेजगारी (बच्चा लोग) लोगन के लेइके जालन. घरे में चाहे केतनव कचकच होय, लेकिन बहरी अलंग क निश्चय खंडित नाही होइ सकत. चाहे हड़ताल होय, या राष्ट्रपति शासन, राजा मरय चाहे रानी, कवनो भी कारण से अगर दुकान या दफ्तर बंद हौ त बनारसी हर हाल में बहरी अलंग क प्रोग्राम सेट कइ लेई. जवने तरह से व्यापारिन के भीतर हमेशा नफा-नुकसान जोड़य-घटावय क झक सवार रहयला, नेतन के दिमाग में हमेशा हर बाती में राजनीति घुसेड़य क सनक सवार रहयला, ओही तरह हर खांटी बनारसी के भीतर बहरी अलंग क धुन सवार रहयला.
बहरी अलंग कवनो तीर्थस्थल या पर्यटन स्थल नाही हौ. लेकिन बनारसिन बदे इ स्थान हर स्थल से बढ़ि के हौ. बनारसी गुरु लोगन क निच्छद्दम, स्वच्छंद होइके मउज-पानी लेवय क दिव्य स्थान. बनारसी भाषा में एके माचा मारब भी कहल जाला. बहरी अलंग ओही स्थान के कहल जाला, जहां पक्का तलाब होय. तलाब में चैचक पक्का घाट बनल होय, जहां तबीयत से साफा-पानी लगावल जाइ सकय. साफा-पानी मतलब नहाना-धोना, शरीर अउर कपड़ा क साफ-सफाई. अगर तलाब न भी होय त कम से कम बढ़िया क इनारा यानी कुंआ होय. आसपास पेड़-पल्लव, बगइचा, जंगल होेंय. निपटय लायक लंबा-चउड़ा मैदान होय, जवन साफ-सुथरा भी होवय के चाही. वरना गुरु लोग ठीक ओइसय मुंह बनइहय जइसन अफीमची इमली देखि के बनावयलन. बनारसी दरअसल निपटय क अत्यंत प्र्रेमी होलन. भोजन चाहे जइसन मिलय, सूतय क जुगाड़ भले ही गड़बड़ होय, लेकिन निपटय क स्थान दिव्य होवय के चाही. साफा लगावय लायक चैरस जमीन चाही. इहय कारण हौ कि बनारसी लोग जब बनारस के बहरे जालन त निपटय-नहाये क दिव्य स्थान तजबीजयलन.

रामनगर, सारनाथ, राजा तलाब के अलावा अब विंध्याचल अउर चकिया-चंदौली तक बहरी अलंग क विस्तार होइ गयल हौ. बहरी अलंग क खास पहिनावा भी होला. बहरी अलंग क प्रेमी गुरु लोग धोती, गमच्छा, निगोटा अउर दुपट्टा क उपयोेग करयलन. धोती अउर दुपट्टा न रही तबौ चलि जाई, लेकिन गमच्छा अउर निगोटा हर हाल में चाही. जरूरी समाने में बल्टी-लोटा, डोरी, सिल-लोढ़ा, साबुन क बट्टी, तेल क शीशी अउर भांग क पैकेट हर बहरी अलंग प्रेमी अपने संघे रखयला. बहरी अलंग पहुंचतय सबसे पहिले गुरु लोग निगोटा पर आइ जालन. भांग के खूब साफ कइके बूटी तइयार कयल जाला. बूटी छनले के बाद नटई तक पानी डकारिके हाड़ी या बल्टी लेइके लोग निपटय जालन. निपटय क क्रिया एतना खास हौ कि इ शोध करय लायक हौ. घंटा-आध घंटा निपटब त साधारण बात हौ. कुछ अइसन भी बनारसी होलन जवन कई घंटा तक निपटत रहि जालन.
निपटले के बाद अब मालिश क नंबर आवयला. मालिश क दौर तबतक चलयला जबतक कि शरीर क तापमान 100 डिग्री से ऊपर न पहुंचि जाय. एकरे बाद नहान अउर फिर डंड बैइठक. अगर गदा-जोड़ी मिलि गयल त ओहू पर रियाज होई. हर बनारसी अपने परिवार के लेइके साल में कम से कम दुइ दइया बहरी अलंग बदे सारनाथ अउर रामनगर जरूर जाला. गरमी में सारनाथ अउर जाड़ा में रामनगर. इ दूनो स्थान क मेला देखतय बनयला. लेकिन परिवार के संघे रहले के बाद भी गुरु लोगन के कार्यक्रम में कवनो कंजूसी नाही होत. ओही तरह से भांग छनयला, साफा लगयला अउर नहान-निपटान होला. इ कुल काम से फुर्सत भइले के बाद अहरा पर बनावल बाटी, चूरमा, दाल-भात अउर चोखा, तरकारी भिड़ावल जाला. बहरी अलंग क ही प्रभाव हौ कि बनारस में अक्सर दंगल होलन. नागपंचमी देश में चाहे जइसे मनावल जात होय, लेकिन बनारस में छोटे गुरु-बड़े गुरु के रूप में पूजा होला, अउर पूरे बनारस भर में दंगल होला. बनारस में दंगल खाली पट्ठन के बीच नाही होत, जानवरन के बीच भी होला. सड़क पर सांड़ गरजयलन. भइस, भेड़ा अउर पक्षिन क दंगल जाड़ा के मौसम में हर साल होला. बुलबुल, तीतर, बटेर क भी युद्ध होला. मकर संक्रांति पर खासतौर से पक्षिन क दंगल होला. इ कुल दंगल खाली खेल तक सीमित नाही होतन, बल्कि बाजी भी लगयला. अपने-अपने पक्षिन के बनारसी लोग पूरे साल दंगल बदे ट्रेनिंग देलन, तइयार करयलन. कजरी, बिरहा, अउर शायरी क दंगल गरमी के मौसम में होलन.

बहरी अलंग क असली अर्थ विश्वकोश में चाहे जवन भी होय, लेकिन बहरी अलंग के मट्टी में उ बहार हौ, जवन न त बंबई के चैपाटी में हौ, न कनाट प्लेस के नफासत में हौ. बनारसी लोगन के जेतना गर्व बहरी अलंग पर हौ, ओतना अपने नगर पर नाही. बनारस अउर बनारसी लोगन क असली रूप बहरी अलंग में ही देखल जाइ सकयला. बिना बहरी अलंग देखले इ समझब कठिन हौ कि बनारसी लोगन के अपने बनारस से एतना मोहब्बत काहे हौ. बहरी अलंग खाली दिल बहलाव क क्षेत्र नाही हयन, बल्कि अध्यात्म अउर साधना क क्षेत्र भी हयन. बनारस के तीनों लोक से न्यारी नगरी क सर्टिफिकेट देवावय में बहरी अलंग क महत्वपूर्ण योगदान हौ. मृत्युलोक के मारा गोली, स्वर्ग तक में बनारस के बहरी अलंग क मिसाल नाही हौ. लेकिन सरकार आधुनिकता अउर नियोजन के चक्कर में कई ठे बहरी स्थानन के भीतरी यानी शहरी रंग में रंगले जात हौ, जवन बनारसी लोगन बदे बड़ी समस्या बनल जात हौ.





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