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Sunday, March 1, 2015

हमारे धर्म का आधार शैव मत

माता जी की तीर्थ यात्रा में धर्म से सम्बंधित जानकारी खंगालने पर पता चला की वेदान्त सिद्धान्त हमारे जीवन का आधार है। सिद्वान्त हमारी संस्कृति की आत्मा है। वेदान्त का उदघोष है- ब्रम्हा ही जीव बन गया है। ब्रम्ह ही जगत बन गया है। 
हिन्दुत्व को प्राचीन काल में सनातन धर्म कहा जाता था. हिन्दुओं के धर्म के मूल तत्त्व सत्य, अहिंसा, दया,क्षमा, दान आदि हैं जिनका शाश्वत महत्त्व है. अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था. इस प्रकार हिन्दुत्व सनातन धर्म के रूप में सभी धर्मों का मूलाधार है क्योंकि सभी धर्म-सिद्धान्तों के सार्वभौम आध्यात्मिक सत्य के विभिन्न पहलुओं का इसमें पहले से ही समावेश कर लिया गया था. मान्य ज्ञान जिसे विज्ञान कहा जाता है प्रत्येक वस्तु या विचार का गहन मूल्यांकन कर रहा है और इस प्रक्रिया में अनेक विश्वास, मत, आस्था और सिद्धान्त धराशायी हो रहे हैं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आघातों से हिन्दुत्व को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसके मौलिक सिद्धान्तों का तार्किक आधार तथा शाश्वत प्रभाव है.
कुल मिला के देखा जाय तो हमारे हिन्दू धर्म का आधार कुछ ऐसा है..


४ वेद १८ पुराण
तीन देव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश (शंकर)
चार वेद - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद
चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्त, वानप्रस्थ, सन्यास
चार धाम - बद्रीनाथ (उत्तर में), जगन्नाथपुरी (पूर्व में), रामेश्वरम (दक्षिण में०, द्वारका (पश्चिम में)
चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य , सूद्र
पंचामृत - दही (दधि) + दूध (दुग्ध) + घी (घृत) + मधु (शहद) + गंगाजल
छः शास्त्र - न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त

सप्त ऋषि
आकाश में सात तारों का एक मंडल अस्तित्व मे है । उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है । उस मंडल के तारों के नाम भारत के सात महान संतोंके आधार पर ही रखे गए हैं । वेदोंमें उस मंडल की स्थिति, गति, दूरी एवं विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है । प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं ।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियोंके ऋषि-कुल के नामों का पता चलता है, वे नाम क्रमश: इस प्रकार है । 

वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत । विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।"

 
१. वशिष्ठ
२. कश्यप
३. अत्रि
४. जमदग्नि
५. गौतम
६. विश्वामित्र
७. भारद्वाज

आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु  के काल में जन्में सात महान ‍ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।

वेदों के रचयिता ऋषि : ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- १.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।

१. वशिष्ठ : राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।

२.विश्वामित्र : ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।

माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

३. कण्व : माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

४. भारद्वाज : वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।

ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।

५. अत्रि : ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।

अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।

६. वामदेव : वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।

७. शौनक : शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।

फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।

इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है।

आठ प्रकार के विवाह - ब्राह्म विवाह, दैत्य विवाह, ऋषि विवाह, प्रजापत्य विवाह, असुर विवाह, गान्धर्व विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह

नव ग्रह
दस अवतार (विष्णु के दस अवतार) मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार , वाराह अवतार , वामन अवतार, नरसिंह अवतार, राम अवतार , कृष्ण अवतार , बुद्ध अवतार , कल्कि अवतार

समुद्र मंथन में निकले चौदह रत्न


  1. हलाहल (विष) - शिव जी पी गये
  2. कामधेनु (या सुरभि गाय) - ऋषियों को यज्ञादि के लिये दे दी गयी
  3. लक्ष्मी - लक्ष्मीजी ने विष्णु का वरन किया
  4. मणि (कौस्तुभ एवं पद्मराग) - विष्णु के लिये
  5. अप्सरा (रम्भा)
  6. वारुणी (कन्या, सुरा लिये हुए) - असुरों को दी गयी
  7. हाथी (ऐरावत) - इन्द्र को दिया गया
  8. कल्पवृक्ष या पारिजात,
  9. पाञ्चजन्य शंख,
  10. चन्द्रमा,
  11. धनुष (सारंग)
  12. घोड़ा (उच्चैश्रवा) - राजा बालि को दिया गया
  13. धन्वन्तरि - अमृत लेकर आये
  14. अमृत - देवताओं एवं दैत्यों को बांटी गयी

सोलह संस्कार
(१) गर्भधारण संस्कार
(२) पुंसवन (दुग्ध) संस्कार - तीसरे माह
(३) सीमान्तनयन - छठवें माह
(४) जन्म या जातकर्म - जन्म के समय किया जाने वाला
(५) नामकरण(निष्क्रमण) - जन्म के कुछ दिनों बाद, शिशु को सूर्य का दर्शन कराकर उसे एक नाम प्रदान किया जाता है।
(६) निस्करण
(७) अन्नप्राशन - जब शिशु को सबसे पहले पकाया हुआ भोजन दिया जाता है।
(८) मुंडन
(९) कर्णभेदन या कर्णछेदन
(१०) उपनयन - इसमें बालक को यज्ञोपवीत दिया जाता है और शिक्षा के लिये गुरू के पास भेजा जाता है।
(११) वेदाध्ययन (वेद का अध्ययन)
(१२) संवर्तन - शिक्षा समाप्ति के पश्चात
(१३) विवाह
(१४) वानप्रस्थ - पचास वर्ष की आयु की प्राप्ति पर
(१५) सन्यास - प्राय: ७५ वर्ष की आयु की प्राप्ति पर
(१६) दाह संस्कार - अन्तिम संस्कार

१८ पुराण
१-ब्रह्म पुराण २-पद्म पुराण ३-विश्णु पुराण ४-शिव पुराण ५-भागवत पुराण,
६-नारद पुराण, ७-मार्कण्डेय पुराण, ८-अग्नि पुराण, ९-भविष्य पुराण, १०-ब्रह्म वैवर्त पुराण
११-लिंग पुराण १२-वाराह पुराण १३-स्कन्द पुराण १४-वामन पुराण, १५-कूर्म पुराण
१६-मत्स्य पुराण १७-गरुण पुराण १८ ब्रह्माण्ड पुराण

मुख्य उपनिषद
केन् उपनिषद् , ईशावास्य उपनिषद , कथ उपनिषद् , प्रश्नोपनिषद
मुण्डक उपनिषद , माण्डूक्य उपनिषद , ऐतरेय उपनिषद , तैत्तिर्य उपनिषद
शेताशेत उपनिषद , वृहदारण्यक उपनिषद , छान्दोग्य उपनिषद

चार युग - कृतयुग (सत्युग), त्रेतायुग, द्वापरयुग , कलियुग (वर्तमान)


भारतीय मास (१२  - चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद (भादो), अश्विन (क्वार), कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फाल्गुन


सत्ताइस नक्षत्र - चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र, अश्विन, रेवती, भरणी, कृतिका, रोहणी, मृगशिरा, उत्तरा, पुनवर्सु, पुष्य, मघा, अश्लेशा, पूर्वफाल्गुन, उत्तरफाल्गुन, हस्त

सात दिन - रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, वृहस्पतिवार (गुरुवार), शुक्रवार, शनिवार

आदि कवि - महर्षि वाल्मिकि, जिन्होने संस्कृत में रामायण की रचना की।
अद्वैत सिद्धान्त - एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति, ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या (एक ही ब्रह्म है, दूसरा कोई नहीं है। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या (झूठा) है।
गायत्री मंत्र - ॐ भूर्भुव: स्वः । तत् सवितुर्वरेण्यं । भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥


शान्ति पाठ
ॐ शान्तिरन्तरिशँ, शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः
शान्तिरोषधयः शान्ति वनस्पतयः शान्तिविशवेदेवाः
शान्तिब्रमहा शान्तिँ, सवॅ शान्तिः शान्तिरेव
शान्ति सामा शान्तिः, शान्तिरेधि़, शुभ शान्तिभॅवतु
ऒं शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः ॥


संकल्प मंत्र
दाहिने हाथ में जल, पुष्प तथा अक्षत लेकर निम्न संकल्प करे-


ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: भामद्भागवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतित मे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे........नगरे/ग्रामे.....वैक्रमाब्दे......संवत्सरे....मासे.....पक्षे....तिथौ.....वासरे.....गोत्र: शर्मा/वर्मा/गुप्तोऽहं श्रीगायत्रीप्रीत्यर्थं* सहस्रनामस्तोपाठं करिष्ये।
हाथ का जलाक्षत छोड़ दे। (यदि सहस्रार्चन करना हो तो ‘सहस्रनामार्चनं करिष्ये’-ऐसा बोलना चाहिये।)

वैदिक राष्ट्रगान या राष्ट्राभिवर्द्धन मन्त्र
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्य़ः शूर ईषव्यातिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्ध्रिर्योषा जिष्णूरथेष्टा सभेयो युवाऽस्य यजमानस्यवीरो जायताम्। निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् योगक्षेमो नः कल्प्यताम्। -- (शुक्ल यजुर्वेद ; अध्याय २२, मंत्र २२)

चौसठ कलाएँ
भारतीय साहित्य में ६४ कलाओं का वर्णन है, जो इस प्रकार हैं -
1- गानविद्या
2- वाद्य-भांति-भांतिके बाजे बजाना
3- नृत्य
4- नाट्य
5- चित्रकारी
6- बेल-बूटे बनाना
7- चावल और पुष्पादिसे पूजा के उपहार की रचना करना
8- फूलों की सेज बनान
9- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
10- मणियों की फर्श बनाना
11- शय्मा-रचना
12- जलको बांध देना
13- विचित्र सििद्धयां दिखलाना
14- हार-माला आदि बनाना
15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना
16- कपड़े और गहने बनाना
17- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
18- कानों के पत्तों की रचना करना
19- सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना
20- इंद्रजाल-जादूगरी
21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
22- हाथ की फुतीकें काम
23- तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना
24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
25- सूई का काम
26- कठपुतली बनाना, नाचना
27- पहली
28- प्रतिमा आदि बनाना
29- कूटनीति
30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी
31- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
32- समस्यापूर्ति करना
33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना
34- गलीचे, दरी आदि बनाना
35- बढ़ई की कारीगरी
36- गृह आदि बनाने की कारीगरी
37- सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
38- सोना-चांदी आदि बना लेना
39- मणियों के रंग को पहचानना
40- खानों की पहचान
41- वृक्षों की चिकित्सा
42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
43- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना
44- उच्चाटनकी विधि
45- केशों की सफाई का कौशल
46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
47- म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना
48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान
49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना
51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना
52- सांकेतिक भाषा बनाना
53- मनमें कटकरचना करना
54- नयी-नयी बातें निकालना
55- छल से काम निकालना
56- समस्त कोशों का ज्ञान
57- समस्त छन्दों का ज्ञान
58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
59- द्यू्त क्रीड़ा
60- दूरके मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
61- बालकों के खेल
62- मन्त्रविद्या
63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या



इस तरह अगर देखा जाय तो भारत भूमि में अनेक ऋषि, सन्त और द्रष्टा उत्पन्न हुए हैं. उनके द्वारा प्रकट किये गये विचार जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं. कभी उनके विचार एक दूसरे के पूरक होते हैं और कभी परस्पर विरोधी. हिन्दुत्व एक उद्विकासी व्यवस्था है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता रही है. इसे समझने के लिए हम किसी एक ऋषि या द्रष्टा अथवा किसी एक पुस्तक पर निर्भर नहीं रह सकते. यहाँ विचारों, दृष्टिकोणों और मार्गों में विविधता है किन्तु नदियों की गति की तरह इनमें निरन्तरता है तथा समुद्र में मिलने की उत्कण्ठा की तरह आनन्द और मोक्ष का परम लक्ष्य है. 

हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति अथवा जीवन दर्शन है जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को परम लक्ष्य मानकर व्यक्ति या समाज को नैतिक, भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के अवसर प्रदान करता है. हिन्दू समाज किसी एक भगवान की पूजा नहीं करता, किसी एक मत का अनुयायी नहीं हैं, किसी एक व्यक्ति द्वारा प्रतिपादित या किसी एक पुस्तक में संकलित विचारों या मान्यताओं से बँधा हुआ नहीं है. वह किसी एक दार्शनिक विचारधारा को नहीं मानता, किसी एक प्रकार की मजहबी पूजा पद्धति या रीति-रिवाज को नहीं मानता. वह किसी मजहब या सम्प्रदाय की परम्पराओं की संतुष्टि नहीं करता है.

खैर जानकारी तो अच्छी है, लेकिन मेरे जीवन का आधार शैव मत (Shaivism) तो आगे खोजते है


>> शैव मत (Shaivism)
 

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