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Sunday, May 29, 2016

तिरुपति बालाजी की कथा और आस पास

तिरुपति बालाजी की कथा :
वराह पुराण में वेंकटाचलम या तिरुमाला को आदि वराह क्षेत्र लिखा गया है। वायु पुराण में तिरुपति क्षेत्र को भगवान विष्णु का वैकुंठ के बाद दूसरा सबसे प्रिय निवास स्थान लिखा गया है जबकि स्कंदपुराण में वर्णन है कि तिरुपति बालाजी का ध्यान मात्र करने से व्यक्ति स्वयं के साथ उसकी अनेक पीढ़ियों का कल्याण हो जाता है और वह विष्णुलोक को पाता है। पुराणों की मान्यता है कि वेंकटम पर्वत वाहन गरुड़ द्वारा भूलोक में लाया गया भगवान विष्णु का क्रीड़ास्थल है। वेंकटम पर्वत शेषाचलम के नाम से भी जाना जाता है। शेषाचलम को शेषनाग के अवतार के रूप में देखा जाता है। इसके सात पर्वत शेषनाग के फन माने जाते है। वराह पुराण के अनुसार तिरुमलाई में पवित्र पुष्करिणी नदी के तट पर भगवान विष्णु ने ही
श्रीनिवास के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर स्वयं ब्रह्मदेव भी रात्रि में मंदिर के पट बंद होने पर अन्य देवताओं के साथ भगवान वेंकटेश की पूजा करते हैं । 



तिरुपति बालाजी मंदिर के ११ सच; बताते है वहा के लोग
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१. मुख्यद्वार के दाएँ और बालाजी के सिर पर अनंताळवारजी के द्वारा मारे गये निशान हैं बालरूप में बालाजी को ठोड़ी से रक्त आया था, उसी समय से बालाजी के ठोड़ी पर चंदन लगाने की प्रथा शुरू हुई।

२. भगवान बालाजी के सिर पर आज भी रेशमी बाल हैं और उनमें उलझने नहीं आती और वह हमेशा ताजा लगते है।

३. मंदिर से २३ किलोमीटर दूर एक गाँव है, उस गाँव में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश निषेध है। वहाँ पर लोग नियम से रहते हैं। वहाँ की महिलाएँ ब्लाउज नहीं पहनती। वहीँ से लाए गये फूल भगवान को चढाए जाते है और वहीँ की ही वस्तुओं को चढाया जाता है जैसे- दूध, घी, माखन आदि।

४. भगवान बालाजी गर्भगृह के मध्य भाग में खड़े दिखते है मगर वे दाई तरफ के कोने में खड़े हैं बाहर से देखने पर ऎसा लगता है।

५. बालाजी को प्रतिदिन नीचे धोती और उपर साड़ी से सजाया जाता है।

६. गृभगृह में चढाई गई किसी वस्तु को बाहर नहीं लाया जाता, बालाजी के पीछे एक जलकुंड है उन्हें वही पीछे देखे बिना उनका विसर्जन किया जाता है।

७. बालाजी की पीठ को जितनी बार भी साफ करो, वहाँ गीलापन रहता ही है, वहाँ पर कान लगाने पर समुद्र घोष सुनाई देता है।

८. बालाजी के वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी निवास करती हैं। हर गुरूवार को निजरूप दर्शन के समय भगवान बालाजी की चंदन से सजावट की जाती है उस चंदन को निकालने पर लक्ष्मीजी की छवी उस पर उतर आती है। बाद में उसे बेचा जाता है।

९. बालाजी के जलकुंड में विसर्जित वस्तुए तिरूपति से २० किलोमीटर दूर वेरपेडु में बाहर आती हैं।

१०. गर्भगृह मे जलने वाले चिराग कभी बुझते नही हैं, वे कितने ही हजार सालों से जल रहे हैं किसी को पता भी नही है।

११. बताया जाता है सन् १८०० में मंदिर परिसर को १२ साल के लिए बंद किया गया था। किसी एक राजा ने १२ लोगों को गलती करने पर उन्हें मारकर दीवार पर लटकाया था उस समय विमान वेंकटेश्वर प्रकट हुए, ऎसा कहा जाता है।!!!!!

 

अब कुछ सुकून मिला क्यों की लगभग ४ घंटे में पूरा दर्शन सफल हुवा ..जब तक आप दर्शन करके मंदिर परिसर से बाहर नही आ जाते तब तक तो आपको ये भी नही पता चलता कि मंदिर किस दिशा में को और कैसा दिखता है क्योंकि लाइने जो लगती हैं वो शेड से ढकी है फिर उसके बाद हाल आ जाते हैं और फिर सीधे मंदिर में । दर्शनो के बाद ही पूरा मंदिर परिसर देखने को मिलता है । पैर गर्मी से एक दम जल रहा था, तो आब बाहर के रास्ते, दिन का 1 बज चूका था, मंदिर के बाहर के परिसर में एक रेस्टुरेंट दिखा तो माता जी को ले इडली डोसा खाया अब चप्पल और मोबाइल लेना था इस मंदिर में भक्तगण दर्शन के पश्चात मंदिर के बाहर बनी दुकानों से प्रसाद खरीदते हैं. प्रसाद में अधिकतर लड्डु खरीदे जाते हैं. इसके अतिरिक्त मंदिर में अन्न प्रसाद की भी व्यवस्था की गई है. इसमें चरणामृत, खिचडी़, दही-चावल आदि भगवान के दर्शन के बाद श्रद्धालुओं में वितरित किए जाते हैं. 



अब माता श्री को ले कर मंदिर परिसर से बाहर निकल चप्पल और मोबाइल ले मुख्य सड़क पर आते है, वहा के अन्य दर्शन के लिए गाइड घूमते है जो शेयर जिप से १५० रुपये और रिजर्व कार से ६०० रुपये, तो हमने भी सोचा अभी तो टाइम है, घूम लिया जाये, गाइड ने हमें एक जगह पेड़ की छाया में बैठा दिया और धुड्ने लगा और यात्रियों को , फिर पता नहीं कहा गायब, धुप तेज थी, कितना इतजार करते हम भी वापस हो लिए फिर मन्दिर के पास माता जी ने घर के लिए प्रसाद और छुट पुट खरीदारी की सोचे अब चला जाये रूम.. चौराहे पर पहुचे ही की वहा पर भी गाइड सक्रिय थे, साइड सीन कराने के लिए, तभी एक कोने में एक टैक्सी वाले से बात की साइड सीन के लिए तो उसके पास एक छोटा सा पोस्टर नुमा साइड सीन की डिटेल और रेट लिखा था उनके हाथ में जो पोस्टर होता है उसपर वहा के किसी बड़े पुलिस अधिकारी की फोटो बनी होती है.. जिसे दिखा को वो यात्रियों को ४ लोकेसन का ६०० और २ लोकेसन थोड़े दूर पर है तो सभी ६ लोकेसन का १००० रुपया... हमें तो देखना था समझना था तो १००० रूपये वाला पैकेज में माता श्री को ले बैठ गए टैक्सी में...

श्री पद्मावती समोवर मंदिर तिरुचनूर (इसे अलमेलुमंगपुरम भी कहते हैं) तिरुपति से पांच किमी. दूर है। यह मंदिर भगवान वेंकटेश्वर की पत्नी श्री पद्मावती को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमला की यात्रा तब पूरी नहीं हो सकती जब तक इस मंदिर के दर्शन नहीं किए जाते। माना जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर विष्णु के अवतार थे और पद्मावती स्वयं लक्ष्मी की अवतार थी। तिरुमला में सुबह 10.30 बजे से दोपहर 12 बजे तक कल्याणोत्सव मनाया जाता है। यहां दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाता हैं। शुक्रवार को दर्शन सुबह 8बजे के बाद शुरु होता हैं। तिरुपति से तिरुचनूर के बीच दिनभर बसें चलती हैं।

श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर
श्री गोविंदराजस्वामी भगवान बालाजी के बड़े भाई हैं। यह मंदिर तिरुपति का मुख्‍य आकर्षण है। इसका गोपुरम बहुत ही भव्य है जो दूर से ही दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण संत रामानुजाचार्य ने ११३० ईसवी में की थी। गोविंदराजस्वामी मंदिर में होने वाले उत्सव और कार्यक्रम वैंकटेश्वर मंदिर के समान ही होते हैं। वार्षिक बह्मोत्‍सव वैसाख मास में मनाया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में संग्रहालय और छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें भी पार्थसारथी, गोड़ादेवी आंदल और पुंडरिकावल्ली का मंदिर शामिल है। मंदिर की मुख्य प्रतिमा शयनमूर्ति (भगवान की निंद्रालीन अवस्था) है। दर्शन का समय है- प्रात: 9.30 से दोपहर 12.30, दोपहर 1.00 बजे से शाम 6 बजे तक और शाम 7.00 से रात 8.45 बजे तक

श्री कोदंडरामस्वमी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति के मध्य में स्थित है। यहां सीता, राम और लक्ष्मण की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण चोल राजा ने दसवीं शताब्दी में कराया था। इस मंदिर के ठीक सामने अंजनेयस्वामी का मंदिर है जो श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर का ही उपमंदिर है। उगडी और श्री रामनवमी का पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर
यह तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है। यह तिरुपति से तीन किमी.दूर उत्तर में तिरुमला की पहाड़ियों के नीचे स्थित है। यहां पर कपिला तीर्थम नामक पवित्र झरना भी है। इसे अलवर तीर्थम के नाम से भी जाना जाता है। यहां महाबह्मोत्‍सव, महा शिवरात्रि, स्खंड षष्टी और अन्नभिषेकम बड़े धूमधाम से मनाया जाता हैं। वर्षा ऋतु में झरने के आसपास का वातावरण बहुत ही मनोरम होता है। कपिल तीर्थम जाने के लिए बस और ऑटो रिक्शा यातायात का मुख्य साधन हैं।

श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर यह मंदिर तिरुपति से १२ किमी.पश्चिम में श्रीनिवास मंगापुरम में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने से पहले भगवान वेंकटेश्वर यहां ठहरे थे। यहां स्थापित भगवान वेंकटेश्वर की पत्थर की विशाल प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों, आभूषणों और फूलों से सजाया गया है। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव और साक्षात्कार वैभवम यहां धूमधाम से मनाया जाता है।

श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से ४० किमी दूर, नारायणवनम में स्थित है। भगवान श्री वेंकटेश्वर और राजा आकाश की पुत्री देवी पद्मावती यही परिणय सूत्र में बंधे थे। यहां मुख्य रूप से श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी की पूजा होती है। यहां पांच उपमंदिर भी हैं। श्री देवी पद्मावती मंदिर, श्री आण्डाल मंदिर, भगवान रामचंद्र जी का मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर। इसके अलवा मुख्य मंदिर से जुड़े पांच अन्य मंदिर भी हैं। श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव मुख्य मंदिर श्री वीरभद्रस्वामी मंदिर और अवनक्शम्मा मंदिर में मनाया जाता है।

श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर
नगलपुरम का यह मंदिर तिरुपति से 70 किमी दूर है। माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मत्‍स्‍य अवतार लेकर सोमकुडु नामक राक्षस का यहीं पर संहार किया था। मुख्य गर्भगृह में विष्णु की मत्स्य रूप में प्रतिमा स्‍थापित है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। भगवान द्वारा धारण किया हुआ सुदर्शन चक्र सबसे अधिक आकर्षक लगता है। इस मंदिर का निर्माण विजयनगर के राजा श्री कृष्णदेव राय ने करवाया था। यह मंदिर विजयनगर की वास्तुकला के दर्शन कराता है। मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य उत्सव ब्रह्मोत्सव और सूर्य पूजा है। यह पूजा फाल्‍गुन मास की 12वीं, 13वीं और 14वीं तिथि को होती है। इस दौरान सूर्य की किरण प्रात: 6बजे से 6.15 मिनट तक मुख्य प्रतिमा पर पड़ती हैं। ऐसा लगता है मानो सूर्य देव स्वयं भगवान की पूजा कर रहे हों।

श्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर यह मंदिर तिरुपति से 58 किमी. दूर, कारवेतीनगरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा स्थापित है। उनके साथ उनकी पत्नियां श्री रुक्मणी अम्मवरु और श्री सत्सभामा अम्मवरु की भी प्रतिमा स्‍थापित हैं। यहां एक उपमंदिर भी है।

श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर माना जाता है कि श्री पद्मावती अम्मवरु से विवाह के पश्चात् श्री वैंक्टेश्वरस्वामी अम्मवरु ने यहीं, अप्पलायगुंटा पर श्री सिद्धेश्वर और अन्य शिष्‍यों को आशीर्वाद दिया था। अंजनेयस्वामी को समर्पित इस मंदिर का निर्माण करवेतीनगर के राजाओं ने करवाया था। कहा जाता है कि आनुवांशिक रोगों से ग्रस्त रोगी अगर यहां आकर वायुदेव की प्रतिमा के आगे प्रार्थना करें तो भगवान जरुर सुनते हैं। यहां देवी पद्मावती और श्री अंदल की मूर्तियां भी हैं। साल में एक बार ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है।

श्री चेन्नाकेशवस्वामी मंदिर तल्लपका तिरुपति से 100 किमी. दूर है। यह श्री अन्नामचार्य (संकीर्तन आचार्य) का जन्मस्थान है। अन्नामचार्य श्री नारायणसूरी और लक्कामअंबा के पुत्र थे। अनूश्रुति के अनुसार करीब 1000 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण और प्रबंधन मत्ती राजाओं द्वारा किया गया था।

श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर
श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर (इसे श्री पेरुमला स्वामी मंदिर भी कहते हैं) तिरुपति से 51 किमी. दूर नीलगिरी में स्थित है। माना जाता है कि यहीं पर प्रभु महाविष्णु ने मकर को मार कर गजेंद्र नामक हाथी को बचाया था। इस घटना को महाभगवतम में गजेंद्रमोक्षम के नाम से पुकारा गया है।

श्री अन्नपूर्णा-काशी विश्वेश्वरस्वामी
कुशस्थली नदी के किनारे बना यह मंदिर तिरुपति से 56 किमी. की दूरी पर,बग्गा अग्रहरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से श्री काशी विश्वेश्वर, श्री अन्नपूर्णा अम्मवरु, श्री कामाक्षी अम्मवरु और श्री देवी भूदेवी समेत श्री प्रयाग माधव स्वामी की पूजा होती है। महाशिवरात्रि और कार्तिक सोमवार को यहां विशेष्‍ा आयोजन किया जाता है।

स्वामी पुष्करिणी इस पवित्र जलकुंड के पानी का प्रयोग केवल मंदिर के कामों के लिए ही किया जा सकता है। जैसे भगवान की प्रतिमा के स्नान के लिए, मंदिर को साफ करने के लिए, मंदिर में रहने वाले परिवारों (पंडित, कर्मचारी) द्वारा आदि। इस पानी का उपयोग मुख्य रूप से यहां आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा किया जाता है जो इस कुंड के पवित्र पानी में डुबकी लगाते हैं। कुंड का जल पूरी तरह स्वच्छ और कीटाणुरहित है। यहां इसे पुन:चक्रित किए जाने व्यवस्था की भी व्‍यवस्‍था की गई है।

माना जाता है कि वैकुंठ में विष्णु पुष्‍करिणी कुंड में ही स्‍नान किया करते थे। इसलिए गरुड़ श्री वैंकटेश्वर के लिए इसे धरती पर लेकर आए थे। यह जलकुंड मंदिर से सटा हुआ है। यह भी कहा जाता है कि पुष्करिणी में स्नान करने से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं और भक्त को सभी सुख प्राप्त होते हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व भक्त यहां डुबकी लगाते हैं। ऐसा करने से शरीर व आत्मा दोनों पवित्र हो जाते हैं।

आकाशगंगा जलप्रपात
आकाशगंगा जलप्रपात तिरुमला मंदिर से तीन किमी. उत्तर में स्थित है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि इसी जल से भगवान को स्‍नान कराया जाता है। पहाड़ी से निकलता पानी तेजी से नीचे धाटी में गिरता है। बारिश के दिनों में यहां का दृश्‍य बहुत की मनमोहक लगता है।

श्री वराहस्वामी मंदिर तिरुमला के उत्तर में स्थित श्री वराहस्वामी का प्रसिद्ध मंदिर पुष्किरिणी के किनारे स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वराह स्वामी को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि तिरुमला मूल रूप से आदि वराह क्षेत्र था और वराह स्वामी की अनुमति के बाद ही भगवान वैंकटेश्वर ने यहां अपना निवास स्थान बनाया। ब्रह्म पुराण के अनुसार नैवेद्यम सबसे पहले श्री वराहस्वामी को चढ़ाना चाहिए और श्री वैंकटेश्वर मंदिर जाने से पहले यहां दर्शन करने चाहिए। अत्री समहित के अनुसार वराह अवतार की तीन रूपों में पूजा की जाती है: आदि वराह, प्रलय वराह और यजना वराह। तिरुमला के श्री वराहस्वामी मंदिर में इनके आदि वराह रूप में दर्शन होते हैं।

श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर स्वामी पुष्किरिणी के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर श्री वराहस्वामी मंदिर के ठीक सामने है। यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। यहां स्थापित भगवान की प्रतिमा के हाथ प्रार्थना की अवस्था हैं। अभिषेक रविवार के दिन होता है और यहां हनुमान जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।

टीटीडी गार्डन इस गार्डन का कुल क्षेत्रफल 460 एकड़ है। तिरुमला और तिरुपति के आस-पास बने इन खूबसूरत बगीचों से तिरुमला के मंदिरों के सभी जरुरतों को पुरा किया जाता है। इन फूलों का प्रयोग भगवान और मंडप को सजाने, पंडाल निर्माण में किया जाता है।

ध्यान मंदिरम मूल रूप से यह श्री वैंकटेश्वर संग्रहालय था। जिसकी स्थापना 1980 में की गई थी। पत्थर और लकड़ी की बनी वस्तुएं, पूजा सामग्री, पारंपरिक कला और वास्तुशिल्प से संबंधित वस्‍तुओं का प्रदर्शन किया गया है। 




 

ये जगह विश्व में सबसे ज्यादा धनी क्यों है और यहां पर सबसे ज्यादा चढावा क्यों चढता है ? इसके बारे में कह सकते है कि जहां पर भक्तो की या आमजनो की अपील ज्यादा सुनी जाती है वहीं पर ज्यादा चढावा चढता है पर यहां इसके बारे में एक कथा भी कही जाती है । सागर मंथन जो कि राक्षसो और देवताओ ने मिलकर किया था और जिसके बारे में आप सबने पढा ही होगा , में विष के साथ साथ चौदह रत्न निकले थे । विष को तो शिव भोलनाथ ने अपने कंठ में धारण कर लिया । जो रत्न निकले उनमें एक लक्ष्मी जी भी थी । लक्ष्मी जी को देखकर और उनकी भव्यता को देखकर सभी चाहे वो देवता हो या राक्षस उनको पाने के लिये लालायित हो उठे । कुछ तो उनसे विवाह करना चाहते थे और कुछ उन्हे अपने पास रखना चाहते थे । किन्तु फैसला देवी को करना था और उन्होने सब में से विष्णु जी को अपना वर चुना । तब विष्णु जी ने उन्हे अपने वक्ष पर स्थान दिया । 



अब इसी कथा में आगे प्रसंग आता है कि एक बार धरती पर विश्व कल्याण हेतु यज्ञ किया गया । इस यज्ञ का फल किसे अर्पित किया जाये और उसके लिये सबसे उपयुक्त कौन है इस पर काफी विचार विमर्श के बाद भृगु रिषी को इसके लिये जिम्मेदार बना दिया गया कि आप जिसे चुनोगे उसी को इस यज्ञ का फल दिया जायेगा । भृगु रिषी ब्रहमा जी और शिव के पास गये पर जब वे विष्णु जी के पास गये तो विष्णु जी आराम कर रहे थे और उन्हेाने रिषी जी की ओर नही देखा । इस पर रिषी क्रोधित हो गये और उन्होने इसे अपना अपमान मानकर गुस्से में आकर विष्णु जी के वक्ष पर ठोकर मार दी । विष्णु जी ने इसके बाद भी क्रोध नही किया और रिषी महाराज के पैर पकड लिये और कहा कि महाराज कहीं आपको चोट तो नही आयी ? विष्णु जी की ये विनम्रता देखकर भृगु रिषी पिघल गये और उन्हेाने विष्णु जी को क्षमा कर दिया और यज्ञ का भाग अर्पित करने के लिये विष्णु जी को उपयुक्त पाया । लेकिन चुंकि विष्णु जी का वक्षस्थल लक्ष्मी जी का निवास स्थान था इसलिये लक्ष्मी जी ने इसे अपना अपमान माना और उन्होने भृगु रिषी को भी श्राप दिया और विष्णु जी को छोडकर चली गयी ।

कालान्तर में भृगु रिषी को दिये गये श्राप के कारण उनके तीन वंश् में दैत्यगुरू शुक्राचार्य , च्यवन रिषी और परशुराम जी ने अपमान सहा इस बीच विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को ढूंढते हुए धरती पर श्रीनिवास के नाम से जन्म लिया और लक्ष्मी जी ने पदमावती के रूप में । वे दोनो फिर से मिले और उनका विवाह भी हो गया । इस विवाह में सभी देवताओ ने भाग लिया और भृगु रिषी ने लक्ष्मी जी से क्षमा मांगी तो लक्ष्मी जी ने उन्हे क्षमा कर दिया । पर इस विवाह के आयोजन हेतु और लक्ष्मी जी को भेंट करने हेतु विष्णु जी ने कुछ धन कुबेर देव से उधार ले लिया इस वादे के साथ कि वे इसे कलयुग तक चुका देंगें वो भी ब्याज सहित । इसलिये भगवान बालाजी के भक्त केवल अपनी मनोकामना की पूर्ति् हेतु ही नही अपितु बालाजी के धन को चुकाने के लिये भी यहां पर सोना चांदी और अन्य जेवर चढाते हैं । इस कथा को भी यहां के चढावे से जोडकर माना जाता है ।तिरूपति में जिस पहाडी पर मंदिर बना है उसे तिरूमला कहते हैं । इसे वेंकट पहाडी और शेषाचंलम भी कहते हैं । ये पहाडी जिसकी सात चोटियां हैं शेषनाग के फन के जैसी लगती हैं । इन सातो चोटियो के अलग अलग नाम भी हैं ।

मंदिर को नौवी शताब्दी से लेकर पन्द्रहवी शताब्दी तक पल्लव राजाओ ,चोल राजाओ ,पांडया और विजयनगर के शासको का संरक्षण रहा । उन सभी ने इस मंदिर का समय समय पर जीर्णो द्धार और विस्तार भी कराया । बाद में जब हिंदू राजाओ के राज का पतन हो गया तो कर्नाटक के मुसलमान राजाओ और उसके बाद ब्रिटिश राजाओ के अधिकार में भी ये मंदिर रहा । अंग्रेजो ने यहां तिरूपति देवमाला देवस्थानम नाम से एक समिति की स्थापना की जिसे 1951 में भारत सरकार ने बोर्ड आफ ट्रस्टीज बनाने के साथ साथ एक सरकारी अधिकारी यहां पर तैनात किया । 

 

तिरूपति मंदिर भारत का सबसे ज्यादा अमीर मंदिर है । पूरे विश्व के धनी मंदिरो मे भी इसकी गिनती होती है । विश्व में जितने भी धर्मो के धार्मिक स्थान है जैसे कि मुसलमानो के लिये मक्का मदीना, ईसाइयो के लिये वेटिकन और यहूदियो के लिये येरूशलम आदि सभी स्थानो की तुलना में यहां पर हर साल ज्यादा श्रद्धालु आते हैं ।तो समय कम था कमरा भी छोड़ना था , तो वापस अपने काटेज में, सामान पैक किया चुकी ३ बज चूका था इस लिए एक दिन का कमरे का किराया और देना पड़ा, ५०/- अपना ५०० कासन मनी वापस ले एक शेयर जिप में चल दिए निचे तिरुपति बस स्टैंड पर जहा से अपनी अगली यात्रा थी श्री सैलम के लिए...



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