“समाज में बस लोग सिर्फ़ एक ही चीज़
से डरते हैं.. वो है बदनामी...पर क्या आप जानते हैं.. कि बदनामी में भी
नाम होता है.. लोग बदनामी के डर की वजह से अपने घर को ही पंचायत और खुद को
सरपंच बना लेते हैं.. जैसे बस अब सारे फैसले अपने हक में ही हों... पर
जितना हम उसे रोकने की कोशिश करते हैं.. फिर भी वैसा हो ही जाता है.. पता
है क्यों???? जब रबड़ को ज्यादा खींचकर छोड़ते हैं.. तो चोट हमें ही पहुंचाती
है... और अगर कसकर खींच दो तो टूट जाती है... कहीं हम समाज से रिश्ते
निभाते-२ अपनों से दूर तो नहीं हो गये.. कहीं हमने अपने घर को परीक्षा-भवन
और स्वयं को जांचकर्ता तो नहीं बना लिया??
आज दोस्तों के साथ बैठा था.. लोग जिंदगी कि कितनी परिभाषाये बता रहे थे.. जिंदगी कितनी आसान है.. अपना अपना नसीब है भैया ..............
हसी आ रही रही है .. हमारे एक सहपाठी ने कितना अच्छा जिंदगी को परिभासित किया.. हमारे बच्चे तो चाँद पर घूमने जायेगे.. हम तो २ दिन के लिए जाने के लिए कितनी तयारी करते है.. अभी घूमने और मस्ती करने का समय है.. आज लगा हम भारतीय कितने कूप मंडूक है.. वास्तव में जिंदगी तो भारत के बाहर है.. हम लोग तो सिर्फ फेसबुक .. वो भी ऑफ लाइन हो कर ऑनलाइन हुवे तो कोई मैसेज पेल देगा .. ये मेरा पेज लाइक कर लो.. या देश कि कोई राजनीती.. हम बस इसी में परेशां है..
अपने बारे में कम देश के बारे में.. ज्यादा.. जब आपको अपनेसे ज्यादा, अपनोंका दर्द सताए तो समझिये, वही सच्चा दोस्त है।
स्वार्थी दुनियामें तुलसी दास जी वह पंक्ति याद करें-
जेन मित्र दुख होंहि दुखारी, तिनहि विलोकत पातक भारी।
मुझे लगता है भारती लोगो को भी बायलर मुर्गे या हाईब्रीड के तरह बनाना चाहिए..
सोच में फर्क आएगा... हम लोग तो संस्करों के बिच में मरते है काम धाम नहीं तो राजनीत करते है..
ईश्वर ने हमारे शरीर की रचना कुछ इस प्रकार की है की ना तो हम अपनी ही पीठ थप-थपा सकते है ............
और ना ही अपने आप को लात मार सकते है ............
इसलिए हर इक मित्र और आलोचक जरूरी होता है ......
भगवन ये क्या लीला है तेरी.. अगर तू एक ही है.. कैसे इतने तरह के इन्सान बनाये.. आज के युग में तो किसी मोल में भी इतनी तरह का प्रोडक्ट नहीं मिलता..
और तू इतने तरह के इन्सान बना डाला .... कोई भारत का कोई कही का..
एक तरफ तो गीता में लिखवाता है अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥
हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझ में अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझ में युक्त्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।। १४ ।।ॐ ~ψ~ || Shrimad Bhagwad Gita – Chapter 8 – Shloka 14 || ~ψ~ ॐ
और पीछे से तो मेरी ही लेता है..
वाह गुरु वाह..
कलाकार है तू यार..
याद आता है एक शेर
न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में
ख़ुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते
तो क्या होता
न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-
पा होता
*आलम ज़ेरे-पा=दुनिया संसार पैरों के
नीचे
घटा छाती, बहार आती,
तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-
दिल हरा होता
*तज़किरा=ज़िक्र
बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से
उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर
दिया होता
तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लौट
आए
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ
कहा होता
~ नौशाद 'लखनवी'
अब क्या लिखे.. सपने तो लग गए बट्टे खाते.. देर हो चुकी है.. हम सिर्फ अपनी बनायीं ही दुनिया देखते है.. दूसरा कोई बनाये तो अपनी राय ही पलते है.. खुद तो खुद कर सकते नहीं .. हा अपना तो सिर्फ एक ही.. अपना हाथ जग्गनाथ.. ... बजाते रहो.. मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में..
सिर्फ आपना ही.. अहम् ब्रस्मामी
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आज दोस्तों के साथ बैठा था.. लोग जिंदगी कि कितनी परिभाषाये बता रहे थे.. जिंदगी कितनी आसान है.. अपना अपना नसीब है भैया ..............
हसी आ रही रही है .. हमारे एक सहपाठी ने कितना अच्छा जिंदगी को परिभासित किया.. हमारे बच्चे तो चाँद पर घूमने जायेगे.. हम तो २ दिन के लिए जाने के लिए कितनी तयारी करते है.. अभी घूमने और मस्ती करने का समय है.. आज लगा हम भारतीय कितने कूप मंडूक है.. वास्तव में जिंदगी तो भारत के बाहर है.. हम लोग तो सिर्फ फेसबुक .. वो भी ऑफ लाइन हो कर ऑनलाइन हुवे तो कोई मैसेज पेल देगा .. ये मेरा पेज लाइक कर लो.. या देश कि कोई राजनीती.. हम बस इसी में परेशां है..
अपने बारे में कम देश के बारे में.. ज्यादा.. जब आपको अपनेसे ज्यादा, अपनोंका दर्द सताए तो समझिये, वही सच्चा दोस्त है।
स्वार्थी दुनियामें तुलसी दास जी वह पंक्ति याद करें-
जेन मित्र दुख होंहि दुखारी, तिनहि विलोकत पातक भारी।
मुझे लगता है भारती लोगो को भी बायलर मुर्गे या हाईब्रीड के तरह बनाना चाहिए..
सोच में फर्क आएगा... हम लोग तो संस्करों के बिच में मरते है काम धाम नहीं तो राजनीत करते है..
ईश्वर ने हमारे शरीर की रचना कुछ इस प्रकार की है की ना तो हम अपनी ही पीठ थप-थपा सकते है ............
और ना ही अपने आप को लात मार सकते है ............
इसलिए हर इक मित्र और आलोचक जरूरी होता है ......
भगवन ये क्या लीला है तेरी.. अगर तू एक ही है.. कैसे इतने तरह के इन्सान बनाये.. आज के युग में तो किसी मोल में भी इतनी तरह का प्रोडक्ट नहीं मिलता..
और तू इतने तरह के इन्सान बना डाला .... कोई भारत का कोई कही का..
एक तरफ तो गीता में लिखवाता है अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥
हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझ में अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझ में युक्त्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ, अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ ।। १४ ।।ॐ ~ψ~ || Shrimad Bhagwad Gita – Chapter 8 – Shloka 14 || ~ψ~ ॐ
और पीछे से तो मेरी ही लेता है..
वाह गुरु वाह..
कलाकार है तू यार..
याद आता है एक शेर
न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में
ख़ुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते
तो क्या होता
न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-
पा होता
*आलम ज़ेरे-पा=दुनिया संसार पैरों के
नीचे
घटा छाती, बहार आती,
तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-
दिल हरा होता
*तज़किरा=ज़िक्र
बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से
उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर
दिया होता
तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लौट
आए
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ
कहा होता
~ नौशाद 'लखनवी'
अब क्या लिखे.. सपने तो लग गए बट्टे खाते.. देर हो चुकी है.. हम सिर्फ अपनी बनायीं ही दुनिया देखते है.. दूसरा कोई बनाये तो अपनी राय ही पलते है.. खुद तो खुद कर सकते नहीं .. हा अपना तो सिर्फ एक ही.. अपना हाथ जग्गनाथ.. ... बजाते रहो.. मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में..
सिर्फ आपना ही.. अहम् ब्रस्मामी