ऐ बनारस बिन तेरे यह ज़िन्दगी वीरान है
इस महानगरी का हर बाज़ार ज्यों शम्शान है
चौक लहुराबीर अस्सी और लंका की अदाएं
कौन जाने ज़िन्दगी में फिर कभी आएं न आएं
क्या करेंगे यन्त्र बनकर सोच मन हैरान है
ऐ बनारस बिन तेरे...
उन मनोरम गालियों कि तिक्त मधु बौछार छूटी
घाट पर जो रोज घटती अल्ह्डी गुंजार छूटी
जो न तुझको जान पाया वो बड़ा अनजान है
ऐ बनारस बिन तेरे...
ज़िन्दगी क्या मौत में भी मस्तियाँ जो खोज लेता
राव हो या रंक शिव का नाम वो हर रोज लेता
शूल पर ठहरा शहर तिहुँलोक से भी महान है
ऐ बनारस बिन तेरे...
कुछ पता न तत्व क्या तुझमें जो मुझको खींचता है
कौन सा सोता जो इस संतप्त दिल को सींचता है
दम तेरे दामन में निकले बस यही अरमान है
ऐ बनारस बिन तेरे…. (किसी अज्ञात लेखक की रचना )
Saturday, August 22, 2015
Tuesday, August 18, 2015
नागपंचमी (पचैंईया) और बनारस
नागपंचमी का त्योहार तो वैसे पूरे देश में मनाया जाता है, लेकिन बनारस में इसका कुछ ज्यादा महत्व दिखता है। यह हिंदुओं का साल का पहला त्योहार होता है। नगर और जिले के गांवों में कहीं कुश्ती दंगल तो कहीं बीन की धुन पर जादू का खेल होता है। प्रायः हर घरों में लोग सुबह नागदेवता को दूध और लावा चढ़ाते हैं। कहा जाता है कि घर के दरवाजे पर लावा और दूध इसलिये रखा जाता है कि नाग देवता इसे ग्रहण करेंगे। कुश्ती-दंगल के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में जलेबी की दुकानें भी सजती हैं लोग इसका खूब लुत्फ उठाते हैं। लेकिन बनारस में कहावत है "सात वार नौ त्यौहार", यानी सप्ताह में दिन तो सात होते हैं पर बनारस में उनमें नौ त्यौहार पड़ते हैं। मौज-मजे के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है और अपनी इस प्रवृत्ति को चरितार्थ करने के लिएही बनारसियों ने अनेक त्यौहारों की कल्पनाएँ कीं। और लोग बहुत सी छुट्टियाँ मनाने के लिए बनारस वालों को नाकारा न कहें, इसलिए उन्होंने इनमें से अधिकतर त्यौहारों को भिन्न-भिन्न देवताओं के साथ जोड़ दिया। आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण बनारसियों के जीवन में परिवर्तन होता चला जा रहा है फिर भी जिस प्रेम से छुट्टियाँ और त्यौहार बनारस में मनाए जाते हैं - वैसे भारत में और किसी दूसरी जगह नहीं। बनारसियों के त्यौहार का रंग भी कभी मनहूस नहीं होता। अपने थोड़े से वित्त में ही लोग हँस-खेल कर त्यौहार मना लेते हैं। बनारस के त्यौहारों के इतिहास पर अभी अधिक प्रकाश नहीं पड़ा है, पर इसमें संदेह नहीं कि इनमें कुछ मेले बहुत प्राचीन होंगे। बनारस की दीवाली का तो उल्लेख जातकों में आया है और जातकों में वर्णित हस्तिपूजन का भी बाद में शायद विजया दशमी का रुप हो गया है। इन मेलों तमाशों का संबंध हम यक्षपूजा, वृक्षपूजा, देवीपूजा, कूप और नदी-पूजा तथा पौराणिक देव-देवताओं की पूजा से पाते हैं। बनारस के मेलों तमाशों में भी एक विकास क्रम है जिससे यह पता चल जाता है कि कौन-कौन से मेले प्राचीन है और कौन-कौन से मेले बनारस की भिन्न-भिन्न काल की धार्मिक प्रवृत्तियों के विकास के साथ-साथ बढ़ते गए।
Monday, August 17, 2015
बनारस की गालियाँ
वो बनारस का बचपन, खास मुझे याद आता है.. वो अस्सी का होली सम्मलेन, शायद मै जब बाहर किसी से अपने बनारस की बात करता हु, अगर वो पूछ ले हो गया आप के इज्जत का कबाड़ा.. लेकिन सही ये है की ये ही बनारस का रस है.. लोग गाली न दे तो शहर का अपमान है... “भोसड़ी के” तो बनारस का ताज है, अगर आप को न मिले तो बनारस नीरस लगेगा
Sunday, August 9, 2015
बनारस त बनारसे रहेगा
पिछले रविवार ही लौटा हु बनारस से
तो हंसने की अदा भूल गया,
ये शहर नहीं भूला मुझे मैं ही इसे भूल गया।
पहले १९००/- रुपये महीने का खर्च था इन्टरनेट का आज से ५०००/- हो गया , लेकिन दोनों ही ५१२ का ही है... तो फर्क क्या ? ससुरे बनारसी होते है बकलंद ... जाये दा यार.. का करेगे हव... बनारस पहिलही से पेलायल हव .. ए बार मोदिया पेल देहलस... समझ ला बाबा बोला के ओनकर परिचय बनार्सियन से करवा देहले हउवन..औउर बतावा , का हाल हौ.. अबे नहीं यार.. बहरे ता हमहन के पता चलत हव की मोदी बनारस के क्योटो बनावट हउवन .. वो सामने वाला अपना सर का बाल नोच के एक उची सी कूद मरेगा .. फिर पूछेगा... का बे भौजी कहा हयीन.. मतलब आप खुद विदा ले लेगे... ये अभी पिछले हफ्ते ३ दिन के काशी यात्रा के दौरान मिला... काफी लोग है.. डॉक्टर से इंजिनियर लेखक, संपादक, बुद्धजीवी सभी तरह के लोग परिचित है लोग... लेकिन दबी जुबान से...
ये शहर नहीं भूला मुझे मैं ही इसे भूल गया।
पहले १९००/- रुपये महीने का खर्च था इन्टरनेट का आज से ५०००/- हो गया , लेकिन दोनों ही ५१२ का ही है... तो फर्क क्या ? ससुरे बनारसी होते है बकलंद ... जाये दा यार.. का करेगे हव... बनारस पहिलही से पेलायल हव .. ए बार मोदिया पेल देहलस... समझ ला बाबा बोला के ओनकर परिचय बनार्सियन से करवा देहले हउवन..औउर बतावा , का हाल हौ.. अबे नहीं यार.. बहरे ता हमहन के पता चलत हव की मोदी बनारस के क्योटो बनावट हउवन .. वो सामने वाला अपना सर का बाल नोच के एक उची सी कूद मरेगा .. फिर पूछेगा... का बे भौजी कहा हयीन.. मतलब आप खुद विदा ले लेगे... ये अभी पिछले हफ्ते ३ दिन के काशी यात्रा के दौरान मिला... काफी लोग है.. डॉक्टर से इंजिनियर लेखक, संपादक, बुद्धजीवी सभी तरह के लोग परिचित है लोग... लेकिन दबी जुबान से...
चना-चबेना गंग जल, जो पुरवे करतार
काशी कबहुं न छाड़िये,विश्वनाथ दरबार
इस फलसफे पर अमल जरूर लाइये मगर इसमें उल्लिखित चना-चबेना शब्द के भरम में न आइये क्यो कि बनारसी चबेने की परतें उतारेंगे तो सामने होगी अनगिन व्यंजनों की इतनी लंबी फेहरिस्त कि गिनते-गिनते अंगुलियों की पोरें घिस जाएंगी। स्वाद के सफर की इतनी बेशुमार राहें कि नजरें भटक जाएंगी। सच तो यह कि फक्कड़ी तबीयत वाले बनारसी अपनी रसना को ले कर बेहद संवेदनशील हैं। वे चना चबेना भी खाएंगे तो खाने के पहले अलहदा तदबीरों से उसमें स्वाद का जादू जरूर जगाएंगे। यकीन न हो तो मिलिये गोदौलिया चौराहे पर चने का ठेला लगाने वाले कल्लू भइया से जिनके चरपरे चने ने हजारों लोगों को अपने स्वाद का दीवाना बना रखा है।
एक बात और -यहां खान-पान के रसास्वादन का अपना अंदाज और अपना अनुशासन है। सुबह कचौड़ी -जलेबी छोड़ कर समोसा मांगेंगे तो ढूंढते रह जाएंगे। शाम को कचौड़ी-जलेबी तलाशेंगे तो बैरंग वापस आएंगे। जाहिर है खानपान के इस समृद्ध खजाने में सुबहे बनारस का भी अपना हिस्सा है और यह भागीदारी बनारसी आदत के रूप में सदियों से संरक्षित है। यही वजह है कि जब बाकी की दुनिया बेड-टी का इंतजार कर रही होती है, सयाने बनारसी सुबह छह बजे ही गरमा-गरम कचौड़ी और रसीली जलेबी का कलेवा दाब कर 'टंच' हो चुके होते हैं।
सुबह-सुबह नाश्ते की इस लत को ले कर बनारस वालों के अपने अलबेले तर्क हैं। चौखंभा के बुजुर्गवार बनारसी नागू महाराज की मानें तो भोर में गंगा स्नान और दर्शनपूजन के बाद सबसे जरूरी है 'खराई' मारना। कहते है- 'खर मेटाव से जे कइलस परहेज, रोग के ओके मिले दहेज।' बचवा! भोजन भले छूट जाय। कलेवा चउचक होवे के चाहीं। सो दुनिया जो भी कहे बनारसी अपने मन की करता है।
सुबहे बनारस की इंद्रधनुषी रंगोली में स्वाद के जादू का रंग भरता है। भोरहरी के इस रसास्वादन अनुष्ठान के कर्मकांड रात के तीसरे पहर से ही शुरू हो जाते हैं। भठठी दगाने और कड़ाहा चढ़ाने के बाद चार बजते-बजते शहर के टोले मुहल्ले भुने जा रहे गरम मसालों की सोंधी खुशबू से मह-मह हो उठते हैं। एक ऐसी नायाब खुशबू जो नासिका रंध्रों को उत्तेजित कर भूख को आक्रमक बना दे। इस सुगंध से आप वंचित हैं तो आप स्वाद के एक भरे पुरे अहसास को 'मिस' कर रहे हैं।
सुबह के पांच बजते न बजते तो खर कचौड़ियों की व्रत डिगा देने वाली सोंधी गंध, सरसों तेल की बघार से नथुनों को फड़का देने वाली कोहड़े की 'तरकारी' की झाक और खमीर के खट्टेपन और गुलाबजल मिश्रित शीरे में तर करारी जलेबियों की निराली गंध से सुवासित आबो हवा स्वाद का जादू जगा चुकी होती हैं। एक ऐसा जादू जो सोये हुए को जगा दे। जागे हुओं को सुंघनी करा कर सीधे ठीयें तक पहुंचा दे।
छह बजते-बजते तो विश्वेश्वरगंज के विश्वनाथ साव, चेतगंज के शिवनाथ साव, हबीबपुरा के मम्मा,डेढ़सी पुल वाली दोनो दुकानों, जंगमबाड़ी के बटुकसरदार, लोहटिया में लक्ष्मण भंडार, सोनारपुरा के वीरू और लंका वाली मरहूम चचिया की दुकान पर नरम-गरम कचौडियों की आठ दस घानी उतर चुकी होती है।
वार्धक्य की ओर कदम बढ़ा रहे बटुक सरदार कहते हैं- भइया खाली दुकानदारी नाहीं करत हई पीढ़ियन क परंपरा निभावत हई। ई खाली कलेवा नाहीं सुबहे बनारस क शोभा हौ। लड़िकन एके आगे बढ़इहन। ठीक उसी वक्त बनारसी कचौड़ी-जलेबी के स्वाद के सम्मोहन से अश..अश कर उठे बंगाल के एक बाबू मोशाय भरपूर डकार के साथ सरदार को धन्यवाद करते हुए बोल उठते हैं- शुंदर..मोन भोरे गेलो.. उनका यह कृतज्ञ भाव जहां बटुक सरदार को विभोर कर जाता है, सुबहे बनारस के ताज पर एक नगीना और जड़ जाता है।
कचौड़ी और जलेबी के साथ ही कई नायाब आइटम और भी हैं जो मन को लुभाते हैं। सुबहे बनारस के कलेवे की सूची को और समृद्ध बनाते हैं। इनमे आलू वाली छोटकी कचौड़ी और झोल दार घुघनी के अलावा सूजी का हलवा,ठोर और आलूदम का कोई जवाब नहीं। बदलते वक्त के साथ बदलते स्वाद ने सुबह के बनारसी नाश्ते में इडली-बड़ा और दोसे का भी पूरे औदार्य के साथ स्वागत किया है। ढोकला व हिमाचली मोमो फिलहाल नवागतो की सूची में प्रतीक्षित हैं। चौक, मैदागिन और कैंट पर चाय के साथ मक्खन टोस्ट की युगलबंदी भी देखी जा सकती है।
आज भी आप लहुराबीर से गौदौलिया खाली १० रूपया दे कर पुलिस को तो गौदौलिया जा सकते है.... वही सडको की खुदाई.. जो मै पिछले ३५ सालो से देख रहा हु , नया क्या हुवा... इन पिछले १८ महीनो में.. , हा सेन्ट्रल और प्रदेश के सरकार के अहम् बर्मस्मी के तर्ज पर बनारस को अधिक बत्ती मिल जाता है... वहिसही है बनारस... खैर नया इन्टरनेट कनेअक्सन लिया है तो श्री गणेश कुछ सद्कर्मो में खर्च किया जाय तो एक खबर दिखी ..मोदी को चाहने वाले भी क्यों हैं निराश? वो भी बीबीसी की खबर... लेकिन आज राधे माँ की चर्चा जोरो पर है , वाह.. मिनी स्कर्ट.. कसी कसी... साले हम बचपने से हरामी है... इए मामले में... लेकिन बाऊ के डर से किस्मत दक्खिन लग गयी... लेकिन बाऊ करने नहीं दिए तो का हुवा.. माल दिलाये है तजबीज के .... नुकसान ज्यादा नहीं हुवा.. बच गए.. तो चाय पे चर्चा : मोदी को चाहने वाले भी क्यों हैं निराश?
तो शुरुवात करे पहले बनारस से ही
काशी कबहुं न छाड़िये,विश्वनाथ दरबार
इस फलसफे पर अमल जरूर लाइये मगर इसमें उल्लिखित चना-चबेना शब्द के भरम में न आइये क्यो कि बनारसी चबेने की परतें उतारेंगे तो सामने होगी अनगिन व्यंजनों की इतनी लंबी फेहरिस्त कि गिनते-गिनते अंगुलियों की पोरें घिस जाएंगी। स्वाद के सफर की इतनी बेशुमार राहें कि नजरें भटक जाएंगी। सच तो यह कि फक्कड़ी तबीयत वाले बनारसी अपनी रसना को ले कर बेहद संवेदनशील हैं। वे चना चबेना भी खाएंगे तो खाने के पहले अलहदा तदबीरों से उसमें स्वाद का जादू जरूर जगाएंगे। यकीन न हो तो मिलिये गोदौलिया चौराहे पर चने का ठेला लगाने वाले कल्लू भइया से जिनके चरपरे चने ने हजारों लोगों को अपने स्वाद का दीवाना बना रखा है।
एक बात और -यहां खान-पान के रसास्वादन का अपना अंदाज और अपना अनुशासन है। सुबह कचौड़ी -जलेबी छोड़ कर समोसा मांगेंगे तो ढूंढते रह जाएंगे। शाम को कचौड़ी-जलेबी तलाशेंगे तो बैरंग वापस आएंगे। जाहिर है खानपान के इस समृद्ध खजाने में सुबहे बनारस का भी अपना हिस्सा है और यह भागीदारी बनारसी आदत के रूप में सदियों से संरक्षित है। यही वजह है कि जब बाकी की दुनिया बेड-टी का इंतजार कर रही होती है, सयाने बनारसी सुबह छह बजे ही गरमा-गरम कचौड़ी और रसीली जलेबी का कलेवा दाब कर 'टंच' हो चुके होते हैं।
सुबह-सुबह नाश्ते की इस लत को ले कर बनारस वालों के अपने अलबेले तर्क हैं। चौखंभा के बुजुर्गवार बनारसी नागू महाराज की मानें तो भोर में गंगा स्नान और दर्शनपूजन के बाद सबसे जरूरी है 'खराई' मारना। कहते है- 'खर मेटाव से जे कइलस परहेज, रोग के ओके मिले दहेज।' बचवा! भोजन भले छूट जाय। कलेवा चउचक होवे के चाहीं। सो दुनिया जो भी कहे बनारसी अपने मन की करता है।
सुबहे बनारस की इंद्रधनुषी रंगोली में स्वाद के जादू का रंग भरता है। भोरहरी के इस रसास्वादन अनुष्ठान के कर्मकांड रात के तीसरे पहर से ही शुरू हो जाते हैं। भठठी दगाने और कड़ाहा चढ़ाने के बाद चार बजते-बजते शहर के टोले मुहल्ले भुने जा रहे गरम मसालों की सोंधी खुशबू से मह-मह हो उठते हैं। एक ऐसी नायाब खुशबू जो नासिका रंध्रों को उत्तेजित कर भूख को आक्रमक बना दे। इस सुगंध से आप वंचित हैं तो आप स्वाद के एक भरे पुरे अहसास को 'मिस' कर रहे हैं।
सुबह के पांच बजते न बजते तो खर कचौड़ियों की व्रत डिगा देने वाली सोंधी गंध, सरसों तेल की बघार से नथुनों को फड़का देने वाली कोहड़े की 'तरकारी' की झाक और खमीर के खट्टेपन और गुलाबजल मिश्रित शीरे में तर करारी जलेबियों की निराली गंध से सुवासित आबो हवा स्वाद का जादू जगा चुकी होती हैं। एक ऐसा जादू जो सोये हुए को जगा दे। जागे हुओं को सुंघनी करा कर सीधे ठीयें तक पहुंचा दे।
छह बजते-बजते तो विश्वेश्वरगंज के विश्वनाथ साव, चेतगंज के शिवनाथ साव, हबीबपुरा के मम्मा,डेढ़सी पुल वाली दोनो दुकानों, जंगमबाड़ी के बटुकसरदार, लोहटिया में लक्ष्मण भंडार, सोनारपुरा के वीरू और लंका वाली मरहूम चचिया की दुकान पर नरम-गरम कचौडियों की आठ दस घानी उतर चुकी होती है।
वार्धक्य की ओर कदम बढ़ा रहे बटुक सरदार कहते हैं- भइया खाली दुकानदारी नाहीं करत हई पीढ़ियन क परंपरा निभावत हई। ई खाली कलेवा नाहीं सुबहे बनारस क शोभा हौ। लड़िकन एके आगे बढ़इहन। ठीक उसी वक्त बनारसी कचौड़ी-जलेबी के स्वाद के सम्मोहन से अश..अश कर उठे बंगाल के एक बाबू मोशाय भरपूर डकार के साथ सरदार को धन्यवाद करते हुए बोल उठते हैं- शुंदर..मोन भोरे गेलो.. उनका यह कृतज्ञ भाव जहां बटुक सरदार को विभोर कर जाता है, सुबहे बनारस के ताज पर एक नगीना और जड़ जाता है।
कचौड़ी और जलेबी के साथ ही कई नायाब आइटम और भी हैं जो मन को लुभाते हैं। सुबहे बनारस के कलेवे की सूची को और समृद्ध बनाते हैं। इनमे आलू वाली छोटकी कचौड़ी और झोल दार घुघनी के अलावा सूजी का हलवा,ठोर और आलूदम का कोई जवाब नहीं। बदलते वक्त के साथ बदलते स्वाद ने सुबह के बनारसी नाश्ते में इडली-बड़ा और दोसे का भी पूरे औदार्य के साथ स्वागत किया है। ढोकला व हिमाचली मोमो फिलहाल नवागतो की सूची में प्रतीक्षित हैं। चौक, मैदागिन और कैंट पर चाय के साथ मक्खन टोस्ट की युगलबंदी भी देखी जा सकती है।
आज भी आप लहुराबीर से गौदौलिया खाली १० रूपया दे कर पुलिस को तो गौदौलिया जा सकते है.... वही सडको की खुदाई.. जो मै पिछले ३५ सालो से देख रहा हु , नया क्या हुवा... इन पिछले १८ महीनो में.. , हा सेन्ट्रल और प्रदेश के सरकार के अहम् बर्मस्मी के तर्ज पर बनारस को अधिक बत्ती मिल जाता है... वहिसही है बनारस... खैर नया इन्टरनेट कनेअक्सन लिया है तो श्री गणेश कुछ सद्कर्मो में खर्च किया जाय तो एक खबर दिखी ..मोदी को चाहने वाले भी क्यों हैं निराश? वो भी बीबीसी की खबर... लेकिन आज राधे माँ की चर्चा जोरो पर है , वाह.. मिनी स्कर्ट.. कसी कसी... साले हम बचपने से हरामी है... इए मामले में... लेकिन बाऊ के डर से किस्मत दक्खिन लग गयी... लेकिन बाऊ करने नहीं दिए तो का हुवा.. माल दिलाये है तजबीज के .... नुकसान ज्यादा नहीं हुवा.. बच गए.. तो चाय पे चर्चा : मोदी को चाहने वाले भी क्यों हैं निराश?
यह शहर बनारस है |
ऐसे न जाने कितने फोटो मिल जायेगे आप को बस काशी को क्योटो बनाने की कवायद कागज़ों पर चल रही है। केंद्रीय सत्तारूढ़ दल के नेताओ के द्वारा काशी की प्रगति को लेकर अनेक दावे किये जाते है। राष्ट्रीय स्तर के मीडिया हाउस के प्रतिनिधि काशी आते हैं,तो यहां के अस्सी घाट पर खड़े होकर खूब काशी की प्रगति के दावे दिखाते हैं। ज़ोर शोर से प्रचार प्रसार किया जाता है कि काशी की खूब प्रगति हो गई है।
सालभर तक सिर्फ प्रतिनिधिमंडल बनारस से क्योटो और क्योटो से बनारस आते-जाते रहे हैं। क्या कुछ होने वाला है, उसका कोई खाका सामने नहीं आया है।"
सालभर तक सिर्फ प्रतिनिधिमंडल बनारस से क्योटो और क्योटो से बनारस आते-जाते रहे हैं। क्या कुछ होने वाला है, उसका कोई खाका सामने नहीं आया है।"
बनारस की संस्कृति में पकी-पगी कहानियां लिखने के लिए चर्चित अक्खड़ बनारसी साहित्यकार काशीनाथ ने कहा, "क्योटो धार्मिक नगरी है, लेकिन काशी सिर्फ धार्मिक नगरी नहीं है। यह संस्कृति में गहराई तक धंसी नगरी है। यह बदलाव बहुत मुश्किल से स्वीकार करती है। स्वाभाव के अनुकूल हुआ तभी, अन्यथा स्वभाव के प्रतिकूल बदलाव को खारिज भी कर देती है।
काशी के लोगों का अक्खड़-फक्कड़-झक्कड़ अंदाज़ बनारसीपन की पहचान है। दिव्य निपटान, पहलवानी नित्य क्रिया के भाग थे। थे क्या आज भी कह सकते है भीतरी महाल के लोगो का आनंद आज जी वही है... लेकिन कम हुवा है फिर खान-पान का भी तो अपना बनारसी मिज़ाज रहा है। कचौड़ी-जलेबी, जलेबा, चूड़ामटर, मलाई पूरी, श्रीखंड, मगदल, बसौंधी, गुड़ की चोटहिया जलेबी, खजूर के गुड़ के रसगुल्ले, छेना के दही वड़े, टमाटर चाट, पहलवान की लस्सी, मलाई, रबड़ी, मगही पान तथा बनारसी लंगड़ा चूसते तथा भांग छानते हुए बनारसी, दुनियाँ को भोसड़ीवाला कहकर अट्टहास करनेवाले अड़ीबाज बनारसी अब कम होते जा रहे हैं। लंका पर “लंकेटिंग” और पप्पू की अड़ी पर आनेवाले अब बकैती के साथ चाय-पान में ही खुश रहते हैं। संयुक्त परिवारों का टूटना, आर्थिक दबाव, शहर का विस्तार, बदलती जीवन शैली, समाजिकता का स्वरूप और आत्मकेन्द्रित सोच इसके पीछे के कारण हैं। लेकिन आज भी केशव पान की दुकान या पप्पू की अड़ी या फिर घाट की सीढ़ियों पर अनायास आप को “गुरु” संबोधित करके कोई बनारसी घंटों आप से मस्ती में बतिया सकता है। काशी में मुस्लिम, मारवाड़ी, दक्षिण भारतीय, महाराष्ट्री, बंगाली, नेपाली, पहाड़ी, गुजराती, बिहारी और पंजाबी समेत देश के सभी प्रांतों के लोग सदियों से एक साथ रह रहे हैं जिन्हें कभी उन्हीं के राजाओं-महरजाओं ने काशी में बसाया। इन सभी के बीच एक नई संस्कृति विकसित हुई जिसे बनरसीपना कहा जा सकता है।
मोदी ने चुनाव के दौरान काशी को विश्वस्तरीय शहर बनाने, गंगा को अविरल, स्वच्छ करने,बुनकरों, बेरोजगारों के लिए रोजगार के वादे किए थे।यहां अविरल बहती गंगा की लहरोंके साथ वादे, सपने और उम्मीदें अब भी तैर रही हैं, किनारा नहीं मिला है। मोदी सरकार का साल लगने जा रहा है, मगर सांसद मोदी के दिखाए सपनों को अभी वह घाट नहीं मिला है, जहां गंगा की आरती के साथ जश्न मने और मोदी सरकार की जय-जयकार हो। वाराणसी को क्योटो बनाने की पहल की है। सर, काशी पहले से ही बहुत सुन्दर है बस आप काशी का वास्तविक रूप वापस करवा दीजिये। अगर पिछले २५ साल को देखा जाये तो एक ५ साल का कार्यकाल छोड़कर यहां सभी सांसद आपके दल के रहे है।
ये तो रही बात बनारस की जरा ज्ञानी लोगो की बाते सुन ले..
हा तो... मोदी की ख़ामोशी प्रताप भानु मेहता को पसंद नहीं. उनका मतलब है मोदी बोलते ज़रूर हैं लेकिन अहम मुद्दों पर ख़ामोश रहते हैं.
प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ ये एक तरह से आम राय बनती जा रही है. प्रताप भानु मेहता ने मोदी की चुनावी जीत के बाद कहा था, "उनकी जीत सियासी इतिहास की एक बेमिसाल घटना है और मोदी परिवर्तन की आवाज़ बन गए हैं." उस समय उनकी तारीफ़ में मेहता ने कई लेख लिखे और सभी में उन्होंने 'मोदी फ़िनॉमेनन' को सराहा. सदानंद धूमे वॉशिंगटन की एक संस्था से जुड़े हैं, जिनके मोदी पर लेख मैं दो साल से पढ़ रहा हूँ. उन्होंने चुनाव से काफी पहले से ये कहना शुरू कर दिया था कि २०१४ के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी को भारी बहुमत से जिताएंगे.
आम चुनाव के कुछ महीनों बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी का एक तरह से मृत्युलेख लिख दिया था. वो मोदी की प्रशंसा करते नहीं थकते थे. लेकिन आज वो मोदी सरकार पर उस तरह का विश्वास नहीं जताते जैसा पहले जताते थे.
आम चुनाव के कुछ महीनों बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी का एक तरह से मृत्युलेख लिख दिया था. वो मोदी की प्रशंसा करते नहीं थकते थे. लेकिन आज वो मोदी सरकार पर उस तरह का विश्वास नहीं जताते जैसा पहले जताते थे.
नरेंद्र मोदी इन दिनों उस पुराने हिंदी फ़िल्मी हीरो की तरह नज़र आने लगे हैं जिसके आस-पास कमज़ोर और अप्रभावी 'एक्सट्राज' घूमते रहते हैं, लेकिन हीरो असलियत से ज़्यादा बलवान, बुद्धिजीवी और बहुत सुंदर दिखता है.
मोदी विरोधी विश्लेषकों के अनुसार, अपनी सरकार में प्रतिभावान मंत्रियों के अभाव में वो अकेले कद्दावर नेता ज़रूर नज़र आते हैं, लेकिन अकेले पूरी सरकार कैसे चला सकते हैं.
नरेंद्र मोदी के पिछले साल तक समर्थक रहे लोग अब कहने लगे हैं कि वो जितना दबंग नेता पहले नज़र आते थे अब उतना ही कमज़ोर दिखाई देने लगे हैं. विपक्ष के विरोध पर हर मुद्दे से वो अब पीछे हट जाते हैं.
लेकिन मोदी सरकार के लिए ख़ुशख़बरी ये है कि समय इसके पास अब भी है. पिछले साल विकास और अच्छी सरकार वाले चुनावी वादे हों या स्वतंत्रता दिवस पर लाल क़िले से दिए गए युवाओं को नौकरियों के वायदे, प्रधानमंत्री चाहें तो इन्हें पूरा करके अपनी गिरती साख़ को दोबारा बहाल कर सकते हैं.
मेरी अपनी राय मोदी के बारे कभी सकारात्मक रही नहीं, ऐसा नहीं की मेरी कोई ब्याक्तिगत कई सम्बन्ध रहा.. हा मैंने दुनिया घुमा है तो दुनिया की बारिकिया भी देखी है.... ये गुजराती , मारवाड़ी, पंजाबी... हर जगह मिल जाते है... लेकिन बनारस के बनारसी कभी बाहर बनारस के कभी गए ही नहीं, वो बनारस की मस्ती में ही मस्त..उनको ज्यादा मतलब नहीं... बस सबरे चाय पान, फिर घाट पर निपट निपटान फिर निगोटा ढील दंड पेलेगे...फिर पुड़ी तरकारी... आज भी इस यूग में रविवार को पूरा मार्किट बाजार.. सब बंद रहता है... अबे भोसड़ी के आज इतवार है.. सूत सारे.. ९ बजे उठल जइए ... ये फिजा ही कुछ ऐसी है मेरे बनारस का... हमारे बनारस का अपना ही इतिहास है... जो इए सब भाड़े के भक्त है... बनारसी को कोई समझ नहीं सकता... मेरी बात पर विश्स्वास न हो तो वो आप को इन्टरनेट पर नहीं.. आज भी चौक थाने के अंडरग्राउंड के विश्विध्लय प्रकासन में ही मिलगा... पड़ने के बाद सकून मिलता है... हम बनारस वाले है .. कभी फुर्सत में बतौगा...
"आज उंगली थाम के तेरी.. तुझे मैं चलना सिखलाऊँ...
कल हाथ पकड़ना मेरा.. जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ"
कुछ लोग इस गाने को सिर्फ माँ-बाप से जोड़ते हैं..
लेकिन जब मैं इस गाने को सुनता हूँ तो लगता है कि बनारस भी यही कह रहा है.. यही वो जगह है जहां मैंने चलना सीखा.. गिरकर संभलना सीखा.. "बनारसीपन" सीखा... आज इसी बनारस को हमारी जरूरत है.. आगे आइए.. चाहे कीचड़ में ही क्यों ना उतरना पड़े.. और साबित करिए कि बनारस हारेगा नहीं.. क्योंकि हम बनारसी हैं.. आप बनारसी हैं । हर बनारसी बस यही कहता है
सुनो गुरु हम बनारसी गुंडा है. जिंदगी बस इन्ही चार में गुजर जाती है.
गली, गाली, गोली और गंगाजल.
ऐसी बात नहीं की बनारसी के यही लक्षण है... अनगिनत प्रतिभा के के धनी है यहाँ पर लोग.. अब कैसे बताये आप को अभी वेब पर ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया है बनारसी फक्कड़ पान के बारे में, हा सबसे पहला आर्टिकल २००९ में मुझे एक ब्लॉग पर निमल आनंद जी लिखते ही की
ई रजा कासी हॅ - लंगोट सर्ग
वैसे तो बनारस में और भी तमाम रंग देखे, सब का ज़िक्र करना यहाँ मुमकिन नहीं लेकिन लंगोट की चर्चा के बिना यह विवरण अधूरा रह जाएगा। अपनी काशी डायरी का अंत इसी लंगोट को समर्पित करता हूँ।
जहाँ बाकी देश में खासकर बड़े शहरों में ब्रीफ़्स और अण्डरवियर्स का चलन है, बनारस में लंगोट अभी भी लोकप्रिय है, घाट पर नहाते पुरुषों में अधिकतर लोग आप को ब्राण्डेड अण्डरवीयर में ज़रूर दिखेंगे मगर एक अच्छी संख्या लंगोटधारियों की भी मिलेगी। और नगरों में लंगोट को लोगों ने पके करेले की तरह त्याग दिया है। करेला तो वो पहले भी था क्योंकि जो लोग लंगोट के योग्य अपने को नहीं पाते थे उन्होने पिछली पीढ़ी में ही पटरे वाले जांघिये का आविष्कार करवा लिया था। अब तो खैर! ये भी बात होने लगी है कि लंगोट पहनने से आदमी नपुंसक हो जाला।
आधुनिक विज्ञान के फ़ैड्स पर यक़ीन करना ख़तरे से खाली नहीं। साठ के दशक में पूरे योरोप और अमरीका के वैज्ञानिकों ने मिल्क फ़ूड कम्पनियों को यह प्रमाण पत्र दे दिया है कि माँ का दूध बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं। साठ, सत्तर और अस्सी, और नब्बे के दशक में पैदा होने वाले बच्चे डिब्बा बन्द पाउडर के दूध पर पले। आज बिना किसी माफ़ी, किसी अपराध स्वीकरोक्ति के ये फ़िर से स्थापित कर दिया गया है कि माँ का दूध ही सर्वश्रेष्ठ है। तो आज का कॉमन सेन्स है कि लंगोट पहनने से आदमी नपूंसक हो जाता है।
अगर सचमुच ऐसा होता तो काशी में आबादी की वृद्धि दर में कमी ज़रूर नोटिस की जाती। काशी में लंगोट कितना आम है इसका अन्दाज़ा आप को कपड़ों की कुछ दुकानों के आगे फ़हराते रंगीन पताकाओं से मिलेगी। अगर आप भूल न गए हों तो आप पहचान जाएंगे कि ये झण्डा-पताका नहीं छापे वाले रंगीन लंगोट हैं।
लंगोट पहनना कोई कला नहीं है। आप को बस गाँठ मारना और हाथ घुमा के सिरा खोंसना आना चाहिये। लेकिन घाट पर लंगोट पहनना एक हुनर ज़रूर है। इस हुनर में पहले लंगोट का एक सिरा मुँह में दबा कर शेष तिकोना भाग लटका लिया जाता है। फिर पहने हुए लंगोट/अंगौछे को गिरने के लिए आज़ाद छोड़कर फ़ुर्ती से तिकोने को पृष्ठ भाग पर जमा लिया जाता है। दोनों तरफ़ ओट हो जाने के बाद फिर नाड़े को कस लिया। सारा हुनर इस फ़ुर्ती में ही है। अनाड़ी लोग चूक जाते हैं तो उनके पृष्ठ भाग आम दर्शन के लिए सर्व सुलभ हो जाता है। और हुनरमन्द हाथ की सफ़ाई से नज़रबन्दी कर देते हैं और एक पल में ही सब कुछ खुल कर वापस ओट में हो जाता है। जय लिंगोट।
मेरे हिसाब से लंगोट से बेहतर अन्डरवियर मिलना असम्भव है। एक प्रकार के मॉर्डनअण्डरवियर की टैग लाइन है कि फ़िट इतना मस्त कि नो एडजस्ट। बात मार्के की है। हर आदमी अण्डी पहन के एडजस्ट का हाजतमन्द हो जाता है। मुश्किल ये है कि सारी अण्डीज़ प्रि फ़िटेड आती है वो आप के लिए कस्टम मेड नहीं है। ९० हो सकता है आप के लिए ढीला हो, और ८५ टाइट। आप सर पटक कर मर जाइये आप के लिए कोई ८७ या ८८ साइज़ का अण्डरवियर नहीं बनाएगा। और किसी ने बना भी दिया तो आप का साइज़ सर्वदा ८७ ही रहेगा इस की क्या गारन्टी है हो सकता है सुबह ८४ हो शाम ९१ हो जाय और रात को ८१। झख मार कर आप ८५ या ९० का साइज़ लेंगे और फिर आप कितना भी एडजस्ट करें कुछ एडजस्ट नहीं होगा। इसके विपरीत लंगोट है। इसके ठीक विपरीत लंगोट कस्टम मेड है। जितना चाहे एडजस्ट। टाइट पहनना हो सिरा खींच कर टाइट कर लीजिये। और नपुंसक हो जाने के अफ़वाह से बचाव करना हो तो ढील दे कर लंगोट का वातायन बना लीजिये।
जय बनारस! जय लंगोट!! अब ये तो रही ब्लाग की बात... जिन्हों ने सिर्फ देखा है.. तो उनके ये विचार है लेकिन बनारस क्या कहता है..
* लंगोट पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला एक अन्त:वस्त्र है। यह पुरुष जननांग को ढककर एवं दबाकर रखने में सहायता करता है। भारत में इसका उपयोग पहले बहुत होता था। लेकिन असली बनारसी तो आज भी लंगोट धारी ही है जो सिर्फ बनारस तक ही सिमित है वाइज आजकल भी ब्रह्मचारी, साधु-सन्त, अखाड़ा लड़ने वाले पहलवान आदि इसका उपयोग करते हैं।
* ये लंगोट किसी भी रंग का हो सकता है किन्तु लाल लंगोट विशेष रूप से लोकप्रिय है। यह पूरी तरह से खुला हुआ त्रिकोणाकार कपड़े का बना होता है।
* पहले लंगोट, ऋषि मुनि पहनते थे इतना तो आप मानते ही हैं की ऋषि-मुनि बहुत विद्वान् थे। जो करते थे बहुत सोच-समझकर ही करते थे। सो इसमें भी कोई समझदारी थी तथा जो पहले के लोग थे जिनकी जीवन में ब्रम्हचर्य की विशेष महत्ता थी वो सभी धारण किया करते थे आज के युग में युवा पीढ़ी को उसकी महत्ता का ज्ञान नहीं है इसलिए अब हमारी फिल्मों की नायिकाओ ने भी पहनना शुरू कर दिया है जो आज कल के लोगो को भा रहा है
* आज भी लंगोट का कोई जोड़ नहीं। मैं लंगोट की बात आगे बढाऊं, उससे पहले मैं इसका तात्पर्य स्पष्ट करना अपना करतब समझता हूँ। लंगोट एक संयुक्त शब्द है जिसका विच्छेद करने पर हमें प्राप्त होता है:-
लंगोट =लं+ गोट, अर्थात जो लं…..और गोट, दोनों को संभाल सके, वो लंगोट।
* अभी कुछ सालों से इस परिभाषा पर बट्टा लग गया है..खैर, ऐसा तो बहुत शब्दों के साथ है जिनका मतलब तब कुछ होता था अब और कुछ; जैसे कि बलात्कार। पहले इससे मतलब "जबरदस्ती" का निकला जाता था और अब; आपसे क्या छुपा है....?
लंगोट के कई फायदे थे आइये आपसे परिचय कराये :-
* लंगोट एक प्रकार से चड्ढी का काम करता था ( आपात काल में जबकि नियंत्रण खोने लगता है, यह नियंत्रण बनाये रखता था वो भी आपकी इच्छानुसार। अभी चड्ढी में ये सुविधा उपलब्ध नहीं है) ।इसलिए बलात्कार की संख्या में बहुत कमी थी और खुद पे भी एक नियंत्रण रहता था लेकिन आज ये नियंत्रण नहीं रह गया है .
* दौड़ लगाने ,भागने और व्यायाम करने में भी लंगोट का कोई सानी नहीं। कोई जानवर दौडाए तो सरपट भागिए। अगर लंगोट पकड़ कर लटक जाये तो उसके पल्ले सिर्फ लंगोट ही आये (भागते भूत की लंगोटी ही सही ) । व्यायाम में तो लंगोट बेजोड़ है। कम से कम ये उस चीज पर पूरा नियंत्रण रखता है जो व्यायाम में आपका नियंत्रण बिगाड़ सकती है।
* ये जरुरत पड़ने पर किसी का गला घोंटने के काम भी आ सकता था ( समाधि भी ली जा सकती थी, पेड़ से लटक कर) ।(एक व्यंग के रूप में )
* कभी-कभी जब जान पे आ पड़े तो सर पर केसरिया कफ़न बांधकर जूझ पड़ने के भी काम आता था( इसीलिए लाल लंगोट, सिलने का चलन था) ।
* यदि कोई आश्रम बने है तो बांस में बांधकर ध्वज की तरह भी लंगोट का इस्तेमाल किया जा सकता था.
* इन सबसे बढ़कर तो ये है कि इसे धुलने में समय और श्रम के साथ संसाधनों की भी न्यूनतम खपत होती थी। वर्ना, आप तो जानते है की कपडे धुलना कितना दुष्कर है।
* जरुरत पड़ने पर युद्ध में लंगोट के दोनों सिरों पर पत्थर बांध कर हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सकता था।और सामने वाला भाग खड़ा होता था ।
* अगर आपके पास दो लंगोट है तो एक से जरुरत पड़ने पे कुछ सामान को आप बाँध कर भी इसका उपयोग कर सकते है। लंगोट से जरूरत पड़ने पर कोई लकड़ी का गठ्हर या सामान बंधा जा सकता था।
* जरुरत पड़ने पर पेड़ पर चढ़ कर फल तोड़कर उसे आसानी से नीचे पहुँचाया जा सकता था(खोंचा और झोली की तरह) ।
* लंगोट को पेड़ की दो डालों से बांध कर झूला बनाया जा सकता था( आनंद -दायक) ।
* किसी भक्त की भिक्षा भी लंगोट में ली जा सकती थी। या कोई भी चीज छुपाने के लिए भी बहुत कीमती चीजों को ले जाने में उपयोगिता थी .
* यदि जानवर पाले हो तो उन्हे रात के वक्त लंगोट से खूंटे में बंधा भी जा सकता था।
* कही प्यास लगने पर लंगोट से कमंडल या लोटा बंधा कर गहरे से पानी भी खींचा जा सकता था।
* बुरा न माने तो ये उनके सिक्स पैक दिखाने सबसे हॉट और सेक्सी ट्रेंड था।
* अब तो आजकल गाँव में कुछ जगह लंगोट चढाने की परम्परा आज भी है मुझे जितने प्रयोग सूझ सके हैं लंगोट के आप तक प्रस्तुत किया यदि मैं ऋषि होता तो शायद और भी जानता लंगोट के बारे में। यदि आप को जादा जानकारी मिले तो जरुर शेयर करे आभारी रहूगां ।पोस्ट को आवश्यक समझे या व्यंगात्मक रूप में ले ये आपकी सोच है ...!
बस इतना समझ लीजिये पक्का बनारसी आज भी अपने निगोटे में लक्स साबुन लगता होगा ... अलग फिजा है... बस ज्यादा नहीं..नया पिक्चर आ रही है न... असली बनारसी का कैरेक्टर... वही बनारस है... भगत साले डेरा रहे है....साला करे ता का करे... अभी मिडिया में शोर है की मशहूर लेखक काशी नाथ सिंह के 'उपन्यास' पर आधारित और वाराणसी की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर में रिलीज़ होगी.. "सन्नी देओल फिल्म में एक गरीब ब्राह्मण की भूमिका में हैं, जो संस्कृत के शिक्षक हैं. वह बनारस आने वाले विदेशियों और यहां घाटों पर उनके 'गांजा-भांग' पीने-खाने से दुखी हैं. बनारस को हम पवित्र मानते हैं, लेकिन ऐसा विदेशी पर्यटकों के साथ नहीं है." पूरी बतिया इए लिंक पर कनेक्ट कर के पड़ लीजियेगा लेकिन काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' काशी का चित्रण नहीं है बल्कि इसे पढ़ना ऐसा है कि जैसे काशी को जी रहे हों | ऐसा लगता है कि एक औपन्यासिक यात्रा कर आया | इस उपन्यास की ख़ासियत इसकी भाषा है जो ठेठ बनारसी से थोड़ी भी अलग नहीं रखी गयी है| काशी जी ने बनारस की फुरसतिया संस्कृति में विशुद्ध गालियों की जो परंपरा है उसे भी बिलकुल नहीं बदला है जो इस उपन्यास को काशी की पृष्ठभूमि पर लिखे गए बाकी हिंदी या गैर हिन्दी उपन्यासों से अलग रखता है |
वैसे तो बनारस में और भी तमाम रंग देखे, सब का ज़िक्र करना यहाँ मुमकिन नहीं लेकिन लंगोट की चर्चा के बिना यह विवरण अधूरा रह जाएगा। अपनी काशी डायरी का अंत इसी लंगोट को समर्पित करता हूँ।
जहाँ बाकी देश में खासकर बड़े शहरों में ब्रीफ़्स और अण्डरवियर्स का चलन है, बनारस में लंगोट अभी भी लोकप्रिय है, घाट पर नहाते पुरुषों में अधिकतर लोग आप को ब्राण्डेड अण्डरवीयर में ज़रूर दिखेंगे मगर एक अच्छी संख्या लंगोटधारियों की भी मिलेगी। और नगरों में लंगोट को लोगों ने पके करेले की तरह त्याग दिया है। करेला तो वो पहले भी था क्योंकि जो लोग लंगोट के योग्य अपने को नहीं पाते थे उन्होने पिछली पीढ़ी में ही पटरे वाले जांघिये का आविष्कार करवा लिया था। अब तो खैर! ये भी बात होने लगी है कि लंगोट पहनने से आदमी नपुंसक हो जाला।
आधुनिक विज्ञान के फ़ैड्स पर यक़ीन करना ख़तरे से खाली नहीं। साठ के दशक में पूरे योरोप और अमरीका के वैज्ञानिकों ने मिल्क फ़ूड कम्पनियों को यह प्रमाण पत्र दे दिया है कि माँ का दूध बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं। साठ, सत्तर और अस्सी, और नब्बे के दशक में पैदा होने वाले बच्चे डिब्बा बन्द पाउडर के दूध पर पले। आज बिना किसी माफ़ी, किसी अपराध स्वीकरोक्ति के ये फ़िर से स्थापित कर दिया गया है कि माँ का दूध ही सर्वश्रेष्ठ है। तो आज का कॉमन सेन्स है कि लंगोट पहनने से आदमी नपूंसक हो जाता है।
अगर सचमुच ऐसा होता तो काशी में आबादी की वृद्धि दर में कमी ज़रूर नोटिस की जाती। काशी में लंगोट कितना आम है इसका अन्दाज़ा आप को कपड़ों की कुछ दुकानों के आगे फ़हराते रंगीन पताकाओं से मिलेगी। अगर आप भूल न गए हों तो आप पहचान जाएंगे कि ये झण्डा-पताका नहीं छापे वाले रंगीन लंगोट हैं।
लंगोट पहनना कोई कला नहीं है। आप को बस गाँठ मारना और हाथ घुमा के सिरा खोंसना आना चाहिये। लेकिन घाट पर लंगोट पहनना एक हुनर ज़रूर है। इस हुनर में पहले लंगोट का एक सिरा मुँह में दबा कर शेष तिकोना भाग लटका लिया जाता है। फिर पहने हुए लंगोट/अंगौछे को गिरने के लिए आज़ाद छोड़कर फ़ुर्ती से तिकोने को पृष्ठ भाग पर जमा लिया जाता है। दोनों तरफ़ ओट हो जाने के बाद फिर नाड़े को कस लिया। सारा हुनर इस फ़ुर्ती में ही है। अनाड़ी लोग चूक जाते हैं तो उनके पृष्ठ भाग आम दर्शन के लिए सर्व सुलभ हो जाता है। और हुनरमन्द हाथ की सफ़ाई से नज़रबन्दी कर देते हैं और एक पल में ही सब कुछ खुल कर वापस ओट में हो जाता है। जय लिंगोट।
मेरे हिसाब से लंगोट से बेहतर अन्डरवियर मिलना असम्भव है। एक प्रकार के मॉर्डनअण्डरवियर की टैग लाइन है कि फ़िट इतना मस्त कि नो एडजस्ट। बात मार्के की है। हर आदमी अण्डी पहन के एडजस्ट का हाजतमन्द हो जाता है। मुश्किल ये है कि सारी अण्डीज़ प्रि फ़िटेड आती है वो आप के लिए कस्टम मेड नहीं है। ९० हो सकता है आप के लिए ढीला हो, और ८५ टाइट। आप सर पटक कर मर जाइये आप के लिए कोई ८७ या ८८ साइज़ का अण्डरवियर नहीं बनाएगा। और किसी ने बना भी दिया तो आप का साइज़ सर्वदा ८७ ही रहेगा इस की क्या गारन्टी है हो सकता है सुबह ८४ हो शाम ९१ हो जाय और रात को ८१। झख मार कर आप ८५ या ९० का साइज़ लेंगे और फिर आप कितना भी एडजस्ट करें कुछ एडजस्ट नहीं होगा। इसके विपरीत लंगोट है। इसके ठीक विपरीत लंगोट कस्टम मेड है। जितना चाहे एडजस्ट। टाइट पहनना हो सिरा खींच कर टाइट कर लीजिये। और नपुंसक हो जाने के अफ़वाह से बचाव करना हो तो ढील दे कर लंगोट का वातायन बना लीजिये।
जय बनारस! जय लंगोट!! अब ये तो रही ब्लाग की बात... जिन्हों ने सिर्फ देखा है.. तो उनके ये विचार है लेकिन बनारस क्या कहता है..
* लंगोट पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला एक अन्त:वस्त्र है। यह पुरुष जननांग को ढककर एवं दबाकर रखने में सहायता करता है। भारत में इसका उपयोग पहले बहुत होता था। लेकिन असली बनारसी तो आज भी लंगोट धारी ही है जो सिर्फ बनारस तक ही सिमित है वाइज आजकल भी ब्रह्मचारी, साधु-सन्त, अखाड़ा लड़ने वाले पहलवान आदि इसका उपयोग करते हैं।
* ये लंगोट किसी भी रंग का हो सकता है किन्तु लाल लंगोट विशेष रूप से लोकप्रिय है। यह पूरी तरह से खुला हुआ त्रिकोणाकार कपड़े का बना होता है।
* पहले लंगोट, ऋषि मुनि पहनते थे इतना तो आप मानते ही हैं की ऋषि-मुनि बहुत विद्वान् थे। जो करते थे बहुत सोच-समझकर ही करते थे। सो इसमें भी कोई समझदारी थी तथा जो पहले के लोग थे जिनकी जीवन में ब्रम्हचर्य की विशेष महत्ता थी वो सभी धारण किया करते थे आज के युग में युवा पीढ़ी को उसकी महत्ता का ज्ञान नहीं है इसलिए अब हमारी फिल्मों की नायिकाओ ने भी पहनना शुरू कर दिया है जो आज कल के लोगो को भा रहा है
* आज भी लंगोट का कोई जोड़ नहीं। मैं लंगोट की बात आगे बढाऊं, उससे पहले मैं इसका तात्पर्य स्पष्ट करना अपना करतब समझता हूँ। लंगोट एक संयुक्त शब्द है जिसका विच्छेद करने पर हमें प्राप्त होता है:-
लंगोट =लं+ गोट, अर्थात जो लं…..और गोट, दोनों को संभाल सके, वो लंगोट।
* अभी कुछ सालों से इस परिभाषा पर बट्टा लग गया है..खैर, ऐसा तो बहुत शब्दों के साथ है जिनका मतलब तब कुछ होता था अब और कुछ; जैसे कि बलात्कार। पहले इससे मतलब "जबरदस्ती" का निकला जाता था और अब; आपसे क्या छुपा है....?
लंगोट के कई फायदे थे आइये आपसे परिचय कराये :-
* लंगोट एक प्रकार से चड्ढी का काम करता था ( आपात काल में जबकि नियंत्रण खोने लगता है, यह नियंत्रण बनाये रखता था वो भी आपकी इच्छानुसार। अभी चड्ढी में ये सुविधा उपलब्ध नहीं है) ।इसलिए बलात्कार की संख्या में बहुत कमी थी और खुद पे भी एक नियंत्रण रहता था लेकिन आज ये नियंत्रण नहीं रह गया है .
* दौड़ लगाने ,भागने और व्यायाम करने में भी लंगोट का कोई सानी नहीं। कोई जानवर दौडाए तो सरपट भागिए। अगर लंगोट पकड़ कर लटक जाये तो उसके पल्ले सिर्फ लंगोट ही आये (भागते भूत की लंगोटी ही सही ) । व्यायाम में तो लंगोट बेजोड़ है। कम से कम ये उस चीज पर पूरा नियंत्रण रखता है जो व्यायाम में आपका नियंत्रण बिगाड़ सकती है।
* ये जरुरत पड़ने पर किसी का गला घोंटने के काम भी आ सकता था ( समाधि भी ली जा सकती थी, पेड़ से लटक कर) ।(एक व्यंग के रूप में )
* कभी-कभी जब जान पे आ पड़े तो सर पर केसरिया कफ़न बांधकर जूझ पड़ने के भी काम आता था( इसीलिए लाल लंगोट, सिलने का चलन था) ।
* यदि कोई आश्रम बने है तो बांस में बांधकर ध्वज की तरह भी लंगोट का इस्तेमाल किया जा सकता था.
* इन सबसे बढ़कर तो ये है कि इसे धुलने में समय और श्रम के साथ संसाधनों की भी न्यूनतम खपत होती थी। वर्ना, आप तो जानते है की कपडे धुलना कितना दुष्कर है।
* जरुरत पड़ने पर युद्ध में लंगोट के दोनों सिरों पर पत्थर बांध कर हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा सकता था।और सामने वाला भाग खड़ा होता था ।
* अगर आपके पास दो लंगोट है तो एक से जरुरत पड़ने पे कुछ सामान को आप बाँध कर भी इसका उपयोग कर सकते है। लंगोट से जरूरत पड़ने पर कोई लकड़ी का गठ्हर या सामान बंधा जा सकता था।
* जरुरत पड़ने पर पेड़ पर चढ़ कर फल तोड़कर उसे आसानी से नीचे पहुँचाया जा सकता था(खोंचा और झोली की तरह) ।
* लंगोट को पेड़ की दो डालों से बांध कर झूला बनाया जा सकता था( आनंद -दायक) ।
* किसी भक्त की भिक्षा भी लंगोट में ली जा सकती थी। या कोई भी चीज छुपाने के लिए भी बहुत कीमती चीजों को ले जाने में उपयोगिता थी .
* यदि जानवर पाले हो तो उन्हे रात के वक्त लंगोट से खूंटे में बंधा भी जा सकता था।
* कही प्यास लगने पर लंगोट से कमंडल या लोटा बंधा कर गहरे से पानी भी खींचा जा सकता था।
* बुरा न माने तो ये उनके सिक्स पैक दिखाने सबसे हॉट और सेक्सी ट्रेंड था।
* अब तो आजकल गाँव में कुछ जगह लंगोट चढाने की परम्परा आज भी है मुझे जितने प्रयोग सूझ सके हैं लंगोट के आप तक प्रस्तुत किया यदि मैं ऋषि होता तो शायद और भी जानता लंगोट के बारे में। यदि आप को जादा जानकारी मिले तो जरुर शेयर करे आभारी रहूगां ।पोस्ट को आवश्यक समझे या व्यंगात्मक रूप में ले ये आपकी सोच है ...!
बस इतना समझ लीजिये पक्का बनारसी आज भी अपने निगोटे में लक्स साबुन लगता होगा ... अलग फिजा है... बस ज्यादा नहीं..नया पिक्चर आ रही है न... असली बनारसी का कैरेक्टर... वही बनारस है... भगत साले डेरा रहे है....साला करे ता का करे... अभी मिडिया में शोर है की मशहूर लेखक काशी नाथ सिंह के 'उपन्यास' पर आधारित और वाराणसी की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर में रिलीज़ होगी.. "सन्नी देओल फिल्म में एक गरीब ब्राह्मण की भूमिका में हैं, जो संस्कृत के शिक्षक हैं. वह बनारस आने वाले विदेशियों और यहां घाटों पर उनके 'गांजा-भांग' पीने-खाने से दुखी हैं. बनारस को हम पवित्र मानते हैं, लेकिन ऐसा विदेशी पर्यटकों के साथ नहीं है." पूरी बतिया इए लिंक पर कनेक्ट कर के पड़ लीजियेगा लेकिन काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'काशी का अस्सी' काशी का चित्रण नहीं है बल्कि इसे पढ़ना ऐसा है कि जैसे काशी को जी रहे हों | ऐसा लगता है कि एक औपन्यासिक यात्रा कर आया | इस उपन्यास की ख़ासियत इसकी भाषा है जो ठेठ बनारसी से थोड़ी भी अलग नहीं रखी गयी है| काशी जी ने बनारस की फुरसतिया संस्कृति में विशुद्ध गालियों की जो परंपरा है उसे भी बिलकुल नहीं बदला है जो इस उपन्यास को काशी की पृष्ठभूमि पर लिखे गए बाकी हिंदी या गैर हिन्दी उपन्यासों से अलग रखता है |
जैसा काशीनाथ जी प्रारंभ में ही लिख देते हैं-
" ये संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढों के लिए नहीं |... जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता, और न जाने क्या-क्या देखते हैं .... , वे कृपया इसे पढ़कर अपना दिल न दुखाएं "
व्यंग्य बड़े सारगर्भित हैं और चूँकि अस्सी की भाषा में ही हैं इसलिए बड़े सटीक भी बैठते हैं या कहा जाये तो बड़े जीवित लगते हैं| नुक्कड़ पर चाय पीते हुए हमारी ख़ालिस राजनीतिक चर्चाएं ( जो बड़े ही यथार्थ रूप में इस उपन्यास में पूरे कथानक के दौरान उपस्थित भी रहती हैं ) मुद्दों को जिस विशिष्ट शैली में समीक्षित करती हैं उसका ही उदहारण इस उपन्यास में देखिये -
" आप खामखाह में गलियाँ दे रहे हैं इन्हें|" कांग्रेसी वीरेंदर बोले ,"इसके लिए भाजपा को कोई दोष नहीं दे सकता! देश उसके एजेंडे में था ही नहीं| उसके एजेंडे पर था राष्ट्रीय स्वाभिमान और गो-संरक्षण! देश भोंसड़ी के रसातल में जाता है तो जाये , ये अयोध्या और पोखरण जायेंगे!"
"हम न अयोध्या जायेंगे, न पोखरण: अब हम रोम और इटली जायेंगे ....."राधेश्याम दूसरे कोने से चिल्लाये|
"और क्या कर सकते हो तुम लोग ? जब से राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश,और मणिपुर में जनता ने डंडा किया है तब से दो फाड़ हो गयी है तुम्हारी !.. .. अयोध्या ने किसी तरह प्रधानमंत्री दे दिया और अब ऐसा मुद्दा हो जो बहुमत की सरकार दे दे |देश का कबाड़ा हो जाये लेकिन तुम्हे सरकार जरुर मिले| डूब मरो गड़ही में सालों!" हिकारत से वीरेंदर ने बेंच के पीछे थूका और रामवचन की ओर मुखातिब हुए - " पांडे जी, आपको बताने की जरुरत नहीं है कि ६ दिसम्बर की अयोध्या की घटना कि क्या देन है? जो मुसलमान नहीं थे या कम थे या जिन्हें अपने मुसलमान होने का बोध नहीं था, वे मुसलमान हो गए रातोंरात | रातों रात चंदा करके सारी मस्जिदों का जीर्णोद्धार शुरू कर दिया| देश की सारी मस्जिदों पर लाउडस्पीकर लग गये | मामूली से मामूली टुटही मस्जिद पर भी लाउडस्पीकर लग गया| जिस मस्जिद में कभी नमाज नहीं पढ़ी जाती थी, उससे भोर और रात में अजान सुनाई देने लगी| जो नमाज में नियमित नहीं थे, नियमित हो गये| और सुनियेगा ? गाजीपुर , बक्सर आजमगढ़ -अरे आप तो उधर के ही हैं, सब जानते हैं- इस पूरे इलाके में हिन्दू से मुसलमान हुए लोगो कि कितनी बड़ी तादाद है
चूँकि ये काशीनाथ सिंह का संस्मरण है इसलिए उन्हें चरित्र निर्धारित करने में कोई समस्या नहीं हुई होगी और ये दीखता भी है | जैसे गया सिंह; बडबोले और अधीर इंसान के रूप में ये कथन देखिये -
" बबवा का जवाब नहीं है राजकिशोर गुरु! लिखा 'रामचरितमानस' और स्थापित किया हनुमान को ...राम को कौन पूछता है 'विश्वहिंदु परिषद' और अशोक सिंघल के सिवा ? कितने मंदिर हैं राम-जानकी के ? .. और हनुमान को देखो- हर मंगलवार ! हर शनिवार ! .. जबकि देखो, तो हनुमान कवी की कल्पना और अनुभव के सिवा कुछ नहीं है| ... सोचो तो एक कवी की कल्पना क्या हो सकती है ? ... इंसान को भगवान तो कोई भी बना सकता है लेकिन जिस बानर को इंसान बनने में अरबों-खरबों साल लगें उसे बबवा ने सीधे भगवान बना दिया |.. "
'कौन ठगवा नगरिया लूटल हो' इस भाग में पाठक का सामना कई बड़े ही जोरदार व्यंग्य से होता है - बेहद चुटीले, बेहद गूढ़ | एक उदाहरण -
" इंजीनियर? डॉक्टर ? ये तो बीते दिनों की बातें हैं | कलेक्टर ? ठीक लेकिन रिजर्वेशन ने सारी दिलचस्पी ख़तम कर दी है | चाहो तो एक दो चांस देख सकते हो लेकिन मल्टीनेशनल | इसकी बात ही कुछ और है | आज हांगकांग ,परसों न्यूयॉर्क नर्सों पेरिस ... मगर बीटा ये गुल्ली-डंडा नहीं जलेबी दौड़ है - तुम्हारे साथ दौड़ने वाले हजारों-लाखों में नहीं, करोड़ों में हैं| इसलिए दौड़ो, जान लड़ा दो| कुछ करके दिखाओ| शाब्बाश! और होमवर्क के बोझ के नीचे चाँप दो इतना कि कें कें करने का भी मौका न मिले| "
कथानक अंत तक आते आते बहुत-सी बातें स्पष्ट कर चुका रहता है लेकिन सबसे अंत में आकर जो सबसे बड़ी बात स्पष्ट होती है वो ये कि अस्सी,यानि 'काशी का अस्सी' जो कभी काशीनाथ सिंह का अस्सी था वो अब आधुनिक काशी शहर का अस्सी बन चुका है
इस फिल्म को लेकर बनारस के लोगों में बेहद उत्सुकता थी क्योंकि ये उपन्यास बनारस के अस्सी मोहल्ले के प्रसिद्ध पप्पू के चाय की दूकान पर लगने वाली अड़ी और उसके हास विनोद के गिर्द बुनी गई है जिसमें बनारस के बिन्दास पन का अपना एक चरित्र नज़र आता है, इस फिल्म की पूरी शूटिंग वाराणसी के अस्सी मोहल्ले और उसके आस पास हुई है। यही वजह है कि इसके रिलीज का बनारस के लोगों को इंतज़ार था। काशी का अस्सी गालियों और लट्ठ मार भाषा के कारण कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगती है.पर असली बनारसी मूड और तेवर से परिचय भी कराती है.फिल्म का इंतजार रहेगा.लोग समझेगे कैसे होते है बनारसी और उनका जीवन का रहन सहन
खैर ये तो अब बनेगी धीरे धीरे एक आग.. देखते रहे.. ये भी कुछ नया है... भगवान करे मै गलत हो जाऊ.. यार एक बनारसी अपने बनारस के लिए नहीं हार सकता तो उ भोसड़ी वाला अपनी !@#$%^&*()_+ पिप पिप... मै कह नहीं सकता मोदी के मन की बात वाली अंदाज में ... अपने बनारसी किताब का एक नायब वेब पर उपलब्ध किया है... अब इटरनेट भी फ़ास्ट हो गया है तो ऑनलाइन भी कर देगे लेकिन अगर आप को पड़ने का मन हो तो इस लिंक पर डाऊनलोड कर के पड़ सकते है... जयशंकर प्रसाद की गुंडा कहानी के नन्हकू सिंह के मिजाज वाले शहर को देखने को उत्सुक थे।चकाचक बनारसी की "आयल हौ जजमान चकाचक", "कस बे चेतुआ दाब से टेटुआ को देखत है?" सुन चुके थे। बनारस के उपकुलपति (शायद इकबाल नारायण) कहा करते थे- 'बनारस इज अ सिटी व्हिच हैव रिफ्यूस्ड टु मार्डनाइज इटसेल्फ'। इंकार कर दिया हमें नहीं बनना आधुनिक।
रुकजा मालिक, तानी दवैया खा लेइ.. का करी मालिक कुल बीमारी लग गयल हव.. खाली एड्स छोड़ के...
हा तो अपन थे तन्नी गुरु पर..
बनारसी और बनारस का रिश्ता इतना गहरा है कि वह न बनारस से दूर रह सकता है और न ही बनारस की बुराई सुन सकता है। उसके खान पान, पहनावे से लेकर बातचीत में बनारस झलकता है। लेखक श्री विश्वनाथ मुखर्जी अपनी पुस्तक 'बना रहे बनारस' में बनारसी के लिए लिखते हैं कि ... सही मायने में बनारसी है, जिसके सीने में एक धड़कता हुआ दिल है और उस सीने में बनारसी होने का गर्व है। वह कभी भी बनारस के विरुद्ध कुछ सुनना या कहना पसन्द नहीं करेगा। यदि वह आपसे तगड़ा हुआ तो जरूर इसका जवाब देगा। अगर कमजोर हुआ तो गालियों से सत्कार करने में पीछे न रहेगा।
बनारसी को सुबह गंगा स्नान तो नाश्ते में कचौड़ी जलेबी प्रिय है। शाम होते ही चाय की दुकान व घाट की सीडिय़ों पर जमघट लगाकर बातें हांकना इनका शगल। दुनिया भले ही चांद पर जा पहुंची हो, लेकिन बनारसी अपनी जगह अटल हैं। वह नहीं बदलेंगे। काशी नाथ सिंह पुस्तक 'काशी का अस्सी' में लिखते हैं कि ... खड़ाऊं पहनकर दोनों पांव के बिच में निगोटा का पोछ लटकाए पान की दुकान पर बैठे तन्नी गुरू से एक आदमी बोला किस दुनिया में हो गुरू ! अमरीका रोज रोज आदमी को चन्द्रमा पर भेज रहा है और तुम घण्टे भर से पान घुला रहे हो। तन्नी गुरु पान की पीक थूककर बोले देखौ ! एक बात नोट कर लो ! चन्द्रमा हो या सूरज भोंसड़ी के जिसको गरज होगी। खुदै यहां आएगा। तन्नी गुरू टस से मस नहीं होंगे हियां से ! एक
मस्त केरेक्टर है "तन्नी गुरु.. समझे कुछ...
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के लफ्जो में कहे तो बनारस में रस है। इस रस का पान करने वाला बानारसी।
परंपराओं से पुराना है बनारस
एक किवंदती के अनुसार बनारस शहर की खोज भगवान शिव ने पांच हजार साल पहले की थी और इस वजह से पूरे देश में यह भगवान शिव की आराधना का महत्वपूर्ण शहर माना जाता है। कई हिंदू धर्मग्रंथ जैसे ऋग्वेद, स्कंद पुराण, रामायण और महाभारत में इस शहर का उल्लेख हैं। गौतम बुद्ध के समय वाराणसी काशी महाजनपद की राजधानी हुआ करती थी। कहते हैं कि बनारस संसार का सबसे पुराना जीवित शहर है। प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: "बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों से भी प्राचीन है, और जब इन सबकों एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।
जब आमों में बौर आते हैं, टिकोरे उगते हैं और जब (यहाँ प्रशान्त महासागर के बीच बसे हवाई द्वीप-समूहों के एक द्वीप ओआह पर बसे शहर होनोलुलु में, कम से कम मेरी कल्पना में ही) कोयल की टीस-भरी कूकों से चप्पा-चप्पा गूँज उठता है; जब खेतो और जंगलों में दूर बहुत दूर तक सरसों के फूलों की पीली चादर तन जाती है या फिर जब काली घटाएँ घिरती हैं, हवाएँ बगटुट-आवारा इधर-उधर फिर रही होती हैं और अचानक एक सतरंगी इन्द्रधनुष न जाने कहाँ से उछलकर आकाश की छाती पर आराम से पसर जाता है, तो मुझे घर की याद आती है। जी हाँ, मुझे बहुत याद आती है घर की, बनारस की, उस बनारस की जो गंगा के किनारे-किनारे, कुछ-कुछ इन्द्रधनुष जैसा ही दक्षिण से उतर तक पसरा हआ है। कहनेवाले तो यह भी कहते हैं कि गंगा के किनारे शहर नहीं बसा है। शहर के किनारे गंगा बसी हुई है। व्याकरण के पण्डित जानते हैं कि कैसे ’गंगा के बीचोबीच अहीरोंकी बसती’ गंगा में न होती हुई भी गंगा में ही होती हैं। गंगा के बीचोबीच न होता हआ भी बनारस गंगा के बीचोबीच है ही। है न यह अजीब बात? वैसे ऐसी अजीब बातें और भी कई हैं मेरे पास इस नगर के बारे में। चाहे आप यह मानने के लिए तैयार न हों कि बनारस बाबा विश्वनाथ के त्रिशूल की नोंक पर बसा हआ है या चाहे आप यह भी न मानें कि काशी में मरनेवाला सीधे स्वर्ग ही जाता है, पर आप को यह तो मानना ही पड़ेगा कि भारत में यही एक अकेली जगह है जहाँ गंगा उलटी बहती है। जी हाँ, और कहीं नहीं, बस यहीं बहती है उलटी गंगा - दक्षिण से उतर की ओर। हुई न एक और अजीब बात यह ? आइए आपका परिचय कराऊँ अपने इस अजीब प्यारे शहर से।
"
मस्ती क शहर है भाई... आखिर नाम भी तो है बना रस..
तन्नी गुरु और पराठा...
चेला : गुरु ...इ आलू के परांठन में आलू नजर नाही आवत ह्वव् ?
तन्नी गुरु : अरे चापरनाशी,नाम पे मत जा! कश्मीरी पुलाव म कभी कश्मीर नज़र आवल ला ?
<जिया रजा बनारस>
जिया रजा बनारस बनारस के एक दिब्य मस्ती का सूचक है.. वो किसी भी माहौल में हो सकता है.. इसके लिए कोई मानक निर्धारित नहीं अब फेसबुक पर ही देख लीजिये ये कोट बहुतो के वाल पर लिखा दिख जायेगा
बनारस ने कबीर दास दिया
बनारस ने तुलसीदास दिया
बनारस ने चंद्रशेखर आज़ाद दिया
बनारस ने लाल बहादुर शास्त्री दिया
बनारस ने मुंशी प्रेमचंद दिया
बनारस ने राजा हरिश्चंद्र को शरण दिया
बनारस ने काशीनाथ सिंह दिया
बनारस ने बिस्मील्लाह खान दिया
बनारस ने मदनमोहन मालवीय दिया
बनारस ने सी एन राव दिया
बनारस ने अकेले 7 भारत रत्न दिये
बनारस ने गंगा यमुना तहजीब दिया
बनारस ने लस्सी दिया
बनारस ने कुल्फ़ी दिया
बनारस ने छुन्नूलाल मिश्रा दिया
बनारस ने समोसा दिया
बनारस ने ललईसाव का कचैाड़ी दिया
बनारस ने भांग दिया
बनारस ने पान दिया
बनारस ने बनारसी साड़ी दिया
बनारस ने लंगड़ा ,केसर और
दसहरी आम दिया
बनारस ने चाट दिया
बनारस ने संस्कृत विश्वविद्यालय दिया
बनारस ने बीएचयू दिया
बनारस ने क्रान्तिकारी विद्यापीठ दिया
बनारस ने मोक्ष दिया
बनारस ने मुरब्बा दिया
बनारस ने गोभी आँवला चूरन
और नवरतन अचार दिया
बनारस ने गोलगप्पा दिया
बनारस ने टिकिया दिया
बनारस ने सुश्रुता (सर्जरी) दिया
बनारस ने घुगरी दिया
बनारस ने ठुमरी दिया
बनारस ने गुलकंद दिया
बनारस ने फारा दिया
बनारस ने मकुनी दिया
बनारस ने ठंडाई दिया
बनारस ने बेल रस दिया
बनारस ने बथुआ का साग दिया
बनारस ने छोले को स्वाद दिया
बनारस ने लवंगलता दिया
बनारस ने रासमलाई दिया
बनारस ने छेना दिया
बनारस ने कलाकंद दिया
बनारस ने मलैयु दिया
बनारस ने संस्कार दिया
बनारस ने संस्कृति दिया
और बनारस ने बहुत कुछ दिया
और तो और बनारस ने
26 मई 2014 को प्रधानमंत्री दिया
बनारस बाबा भोलेनाथ
की नगरी सदा देती रही है ....
लिया कुछ भी नहीं........
बम बम बोल रहा है काशी ...
बम बोल ! बोल बोल बम.......
हर हर महादेव शम्भो !
काशी विश्वानाथ गंगे !!
जिया रजा बनारस ...... लोगो के अपने अपने मूल्याकन है
मार्टिन लूथर किंग ने कहा
"अगर तुम उड़ नहीं सकते तो, दौड़ो !
अगर तुम दौड़ नहीं सकते तो,...चलो !
अगर तुम चल नहीं सकते तो,......रेंगो !
पर आगे बढ़ते रहो !"
तभी एक बनारसी बाबू ने पान थूकते हुऐे कहा :-
"उ त ठीक हौ लूथर गुरु , पर ई बतावा मर्दे कि... ..जाये के कहाँ हौ?लोगो के अपने अंदाज है
बाकी दुनिया शेषनाग के फन पर टिकी है पर बनारस शिव के त्रिशूल पर टिका हुआ है । यानी बनारस बाकी दुनिया से निराला है। अपने होने के साथ ही बनारस बाबा भोलेनाथ की नगरी है। कभी कभी मुझे लगता है, शिव के व्यक्तित्व में दिखने वाली अंतर्विरोधी धाराएँ बनारस में भी मौजूद हैं . चन्द्रमा की अमृत जैसी शीतलता और अमरत्व के साथ हलाहल विष का दाह लिए अपने में मगन रहता है बनारस .विरुद्धों को स्वीकारने और धारण करने की क्षमता ही बनारस को शिव की नगरी बनाती है . शिव की बूटी भांग की मस्ती यहाँ की हवा में है .जो इसे छानते हैं वे भी और जो नहीं छानते वे भी मस्ती के आलम में रहते हैं .मजे की बात यह है कि इस आलम में भी चेतना का तीसरा नेत्र हमेशा खुला रहता है . बिलकुल शिव की तरह बनारस के महाश्मशान में निरंतर जलने वाली आग की रौशनी में हर तरह के छद्म को भेद कर जीवन सत्य को प्रकाशित करने की सामर्थ्य है .
पान बनारस की पहचान है, सड़क चलते आपको सावधान रहना पड़ता है की कब कौन किधर से पच्च से पान थूक दे और आप भी लाल हो जाएँ। हालाँकि शहर के लोगों को इसकी आदत पड़ चुकी है और वो किसी की बॉडी लैंग्वेज से ही अंदाजा लगा लेते हैं की अगला थूकने वाला है और उसके बर्थ राइट का ख्याल रखते हुए खुद सावधान हो जाते हैं।
तमाम आधुनिक औषधियां भी शहर में उपलब्ध हैं लेकिन भांग अपनी जगह कायम है और यहाँ कहा भी जाता है की 'गंग भंग दुई बहिन हैं, रहत सदा शिव संग/पाप निवारण गंग है, होश निवारण भंग'। जहाँ तक गंग की बात है तो कुछ दिनों पहले धोबी समाज से कहा गया था की वो गंगा में कपड़े धोना बंद करे क्योंकि नदी प्रदूषित होती और जल की पवित्रता पर असर होता है। उस समय ये भी बात उठी थी धोबी समाज के लिए शहर में कहीं इंतजाम किये जाएगा ताकि उनकी रोजी रोटी चलती रहे
तो यहाँ सभी लोगो के पास सिर्फ समस्याए ही है समाधान किसी के पास नहीं
जीने का अंदाज निराला है इस शहर का , इस शहर का सामान्य घोष है हर हर महादेव, कोई भी देसी विदेशी मेहमान आये लोग स्वागत में हर हर महादेव का नारा जरुर लगाते हैं, इसका मतलब वही लोग समझ सकते हैं जो बनारस को जीना जानते हैं या बनारस में जीते हैं। इस नारे में हिन्दू-मुसलमान का कोई भेद नहीं होता, हाँ कुछ जो खांटी बनारसी हैं वो किसी को हर हर महादेव कहने के बाद उसका नाम जोड़ कर 'भोंसड़ी के' भी जरुर कहते हैं क्योंकि उसके बिना सम्मान अधूरा है
यहाँ लोग इसका बुरा नहीं मानते।
जो बनारस के हैं उन लोगों को अभी भी उन लोगों की याद होगी जो बिना बात प्रेम से गालियाँ दिया करते थे और कोई बुरा नहीं मानता था, कई बार ऐसे लोगों को जान बूझ कर छेड़ा जाता था ताकि गलियों का यानि साबर मन्त्र का कोई नया वर्जन निकले। बीएचयू में दूसरे शहरों से आये पुराने छात्रों को कचौड़ी-जलेबी वाली चाची की याद जरुर होगी जो बिना बात मीठी-मीठी गालियाँ दिया करती थी। मरते दम तक उनकी गालियाँ निकलती रहती थीं और साथ में खस्ता कचौड़ी और करारी जलेबी। खैर शहर में कचौड़ी-जलेबी का जलवा अभी भी कायम है और दुनिया भर की गाईड बुक इसे वर्ल्ड फेमस बनारसी नाश्ता ऐसे ही नहीं बतातीं, लम्बी दौड़ लगा कर और जिम में पसीना बहा कर नई जनरेशन भी टूटती है इन दुकानों पर क्योंकि ये भी बनारसीपन की एक निशानी है। हालाँकि अब शाम के नाश्ते के नाम गोलगप्पे और चाट वाले बने हुए हैं अपनी जगह लेकिन जगह-जगह अंडा रोल कार्नर और गरम मसाला वाला चौमिंग बेचने वाले भी जमने लगे हैं, पता नहीं चीन में स्ट्रीट फ़ूड के रूप में चाउमीन कितना लोकप्रिय है लेकिन बनारस में तो चौमिंग की जगह दिख रही है, शहर सब कुछ एडजेस्ट कर लेता है।
हाँ दारु की दुकानें बढ़ीं हैं और लोग सरकार को पीकर दे रहे हैं इसमें खालिस अंग्रेजी वाले और देसी पीकर अंग्रेजी झाड़ने वाले, दोनों का बड़ा योगदान है। अपने लीवर-किडनी के बूते सरकार के राजस्व में इजाफ़ा करने वाले पूरे देश में बढ़ रहे हैं तो बनारस क्यों पीछे रहता, लेकिन इसका मतलब नहीं की बूटी की खपत कम हुई, बनारस के बने रहने तक बूटी भी बनी रहेगी। बस फरक ये है की बूटी सेवन के बाद आदमी साइलेंट मोड में चला जाता है इसलिए वर्तमान हालत को देखते हुए लोग वोकल होने के लिए दारु पी रहे हैं
..
वैसे हर बनारसी के लिए अपने अपने नियम, काशी में दिन के हिसाब से मंदिर निर्धारित हैं कुछ लोग अभी उस हिसाब से नियम से अलग अलग मंदिरों में पूजा करते हैं, यहाँ नियम से अपने अनुष्ठान -उपासना करने वाले को नेमी कहते हैं, जड़ी मियाँ तो अलग ढंग के नेमी लगे। खैर, देखा की जड़ी मियाँ ने दोनों कुल्हड़ भरे और बोले – 'ए सरदार , रजा तनी लड़ावा' फिर दोनों कुल्हड़ आपस में हलके से मिले, कांच के गिलास वाले जैसे जाम टकराते हैं तो चियर्स बोलते हैं उसी तरह कुल्हड़ आपस में लड़ाने का ये बनारसी अंदाज बिहाने -बिहाने वर्णनातीत लगा। ऐसे भी लोग अभी बचे हुए हैं, अपन को तो सोच कर नशा छाने लगा। सरदार यहाँ उन लोगों को कहते हैं जो भैंस -गाय पालने और दूध के धंधे में लगे हैं, यानि यादव जी लोग।
होली के अवसर पर होने वाले अस्सी मुहल्ले में होने अश्लील कवि सम्मेलन के किस्से हम लोगों में प्रचलित थे। दुनिया के तनाव से बेपरवाह मस्ती के आलम में डूबे रहने वाले शहर बनारस के बारे में कहा जाता है:-
जो मजा बनारस में वो न पेरिस में न फारस में।
जब से मैंने होश सम्हाला है तब से ऐसे ही देख रहा हु बनारस को, लोगो के मन में कुछ खास नहीं है.. हुवा तो ठीक है नहीं तो घर से क्या गया बनारसी रंग से लोगो को फुर्सत मिले तब लोग किताबे, या दुनिया के बारे में कुछ ज्यादा समझने की कोशिश करे.. सब मस्ती के आलम में डूबे पड़े है... बाबा हउवन न... उ देखिये.. सब बाबा ही देख रहे है एक पक्के बनारसी को ... श्रीमती जी का बनारस में बीएसएनएल का इन्टरनेट २४ जुलाई से ख़राब है... लेकिन सोचते सोचते ७ दिन निकल दी की कम्प्लेन किस नंबर पर किया जाये... अगर आप हम हो तो इन्टरनेट कट जाये तो लगता है.. हम शुन्य में चले जाते है ... लेकिन ये बनारस है भाई... जिन्दा दिलो का सहर...
मुझे एक ऐसा माहौल बनाना है कि जयापुर में भी, क्या जयापुर के लोग इतना फैसला कर सकते हैं? मैं कुछ दिनों से टीवी पर देख रहा हूं, जयापुर चमक रहा है टीवी पर। सरकारी लोग भी आए हैं, सफाई कर रहे थे, रास्ते ठीक कर रहे थे। क्यों? तो बोले मोदी जी आने वाले हैं और गांव वाले भी कहते हैं कि मोदी जी हर बार आ जाए तो अच्छा होगा, गांव साफ हो जाएगा। क्या ये सोच सही है क्या? क्या हम नहीं तय कर सकते कि चलो भई इस निमित्त अब गांव साफ हो गया है। अब मेरा जयापुर गांव का एक-एक नागरिक तय करें, हम हमारे गांव को गंदा नहीं होने देंगे। ये आदर्श ग्राम की शुरूआत हुई कि नहीं हुई? हुई कि नहीं हुई? करेंगे? आप मुझे बताईये मैं जयापुर के लोगों को पूंछू- कि हमारे इस गांव में सबसे पुराना, सबसे बड़ी उम्र का वृक्ष कौन सा है? कौन सा है जो सबसे पुराना है, सबसे बूढ़ा है? कभी सोचा है गांव वालों ने? नहीं सोचा होगा। क्या कभी स्कूल के मास्टर जी को लगा कि चलो भई हम स्कूल के सभी बच्चों को ले करके उस पेड़ के पास ले जाएं और उनको कहें कि देखिए ये पेड़ १५० साल पुराना है, २०० साल पुराना है और उसको कहें कि तुम्हारे दादा के दादा थे न, वो भी इस पर खेला करते थे, तुम्हारे परिवार के लोग थे न, वो भी यहां आते थे। उस पेड़ के साथ उसका लगाव होगा। आज किसी गांव को मालूम नहीं होगा कि हमारे गांव का सबसे पुरातन पेड़ कौन सा है। कौन सा वृक्ष सबसे पुरातन है। क्यों? हमें इन चीजों से लगाव नहीं है। हमारे गांव में १०० साल से ऊपर के लोग कितने हैं? ७५ साल से ऊपर लोग कितने हैं? वयोवृद्ध लोग कितने हैं? क्या कभी हमारे गांव के बालकों को इन वृद्ध परिवारों के साथ बिठा करके उनके साथ कोई संवाद का कार्यक्रम किया क्या कि आप छोटे थे तब क्या करते थे? तब स्कूल था क्या? टीचर आता था क्या? तब खाना-पीना कैसे होता था? उस समय ठंड कैसी रहती थी? गर्मी कैसी थी? कभी किया है ये जो सहज रूप से एक गांव का अपनापन का माहौल होता है वो धीरे धीरे धीरे सिकुड़ता चला जा रहा है। क्या हम मिल करके इस माहौल को बदलने की शुरूआत कर सकते हैं क्या?
मैं यहां अपने लोगों से पूंछू, कोई १० वीं कक्षा में पढ़े होंगे, कोई १२ वीं पास किए होंगे, ग्रेजुएट होंगे, कोई ५० साल के होंगे, कोई ६० साल के होंगे, कोई ८० साल के होंगे, मैं उनको पूंछू- कि जिस स्कूल में आपका बच्चा पढ़ता है क्या कभी आप उस स्कूल में गए हो? उस स्कूल को देखा है? मास्टर जी आते हैं कि नहीं आते हैं? सफाई होती है कि नहीं होती है? पीने का पानी साफ है कि गंदा है? वहां शौचालय है कि नहीं है? लेबोरेट्ररी है कि नहीं है? लाइब्रेरी है कि नहीं है? कम्प्यूटर है तो चलता है कि नहीं चलता? कुछ भी। कभी जा करके हमने रूचि ली होगी? कभी नहीं ली क्योंकि पहले दिन बच्चे को छोड़ आए और कह दिया कि मास्टर जी ये सौंप दिया, अब तुम जानो, उसका नसीब जाने, जो करना है करो, ऐसे चलता है क्या? हम अगर हमारे गांव के स्कूल का, अगर हम तय करें कि चलो भई हर मोहल्ले की एक कमिटी बनाएं। ये कमिटी के लोग रोज स्कूल जाएंगे, दूसरी कमिटी वाले दूसरे दिन जाएंगे, तीसरी कमिटी वाले तीसरे दिन जाएंगे। हमें बताइए, हमारा स्कूल, कितना भी छोटा स्कूल क्यों न हो, वो फिर एक प्रकार से गांव के अंदर सरस्वती का मंदिर बन जाएगा कि नहीं बन जाएंगा? शिक्षा का धाम बन जाएगा कि नहीं बन जाएगा? सरल काम है।
मेरे मन में इस, बनारस का जो पूरा विस्तार जो मेरे जिम्मे आया है और एक प्रकार से ये जिला भी.. बहुत कुछ करने का मेरा इरादा है लेकिन सरकारी तरीके से नहीं करना है, सरकारी खजाने से नहीं करना है। हमें जनता की शक्ति से करना है, जन-शक्ति से करना है।
ये एक मैंने रास्ता उल्टा करने का प्रयास किया है और मेरा विश्वास है कि ६० साल तक हम एक ही बात को ले करके चले.. क्योंकि जब आजादी की लड़ाई लड़ते थे, तबसे एक बात हमारे मन में एक बात बैठ गई कि एक बार आजादी आ जाएगी, बस फिर कुछ नहीं करना है फिर सब अपने आप हो जाएगा, इसी इंतजार में रहे। फिर समय आया, हमें लगने लगा कि सरकार ये नहीं करती, सरकार वो नहीं करती, बाबू ये नहीं करता, टीचर वो नहीं करता, क्यों नहीं करता, तो समाज और सरकार अलग-अलग होने लग गईं। सरकार एक जगह पे, समाज दूसरी जगह पे। एक बहुत बड़ी खाई हो गई। इसका मतलब ये हुआ कि ६० साल तक हमने जो तौर-तरीके अपनाये, जो रास्ते अपनाएं वे ऐसे रास्ते हैं, जिनमें कुछ न कुछ कमी नजर आती है। सब कुछ गलत नहीं होगा, सब कुछ बुरा भी नहीं होगा, लेकिन कुछ न कुछ कमी नजर आती है। क्या इस कमी को हम भर सकते है? और ये कमी इस बात की है कि ये देश हमारा है, ये गांव हमारा है, ये मोहल्ला हमारा है, क्या हमें अपना गांव, अपना मोहल्ला, सबने मिल करके अच्छा बनाना चाहिए कि नहीं बनाना चाहिए? कहीं एक गड्ढा हो गया हो, तो हम किराया खर्च के लखनऊ जाएंगे, लखनऊ जा करके मेमोरेंडम देगें कि हमारे गांव का गड्ढा भर दो। उसमें हम सैकड़ों रुपया खर्च कर देंगे लेकिन मिल करके तय करें कि गड्ढा भर देना है तो गड्ढा भर जाता है।
कब तक बनेगा ऐसा बनारस पता नहीं...
अजय सिंह की कलम से : बदहाली के मझधार में खुशहाली का किनारा ढूंढता मैं बनारस हूं
वाराणसी : शिवालों के घंटे ही मेरी पहचान नहीं हैं, ना ही अजान की वो पाक आवाज़। गंगा के घाटों पर उतरती सुबह की मुलायम धूप भी मेरी तबीयत का एक हिस्सा भर है। सती, सांड, सीढ़ी और संन्यासी से आगे मैं तो अपने ब्रह्मांड में और भी बहुत कुछ समाए हुए हूं। मैं शिव की काशी हूं। मैं भारत का वाराणसी हूं। मुझमें वो उम्मीदें, वो सपने भी हैं, जो पिछले साल सत्ता की आंच पर पक कर पक्के हो गए हैं।
ये भी एक लेख दिखा .. अच्छा लगा
ये मेरा बनारस है और हम है बनारसी मस्ती के बनारस वाले.. बनार्सियन क जेतना उमर नहीं हॉट ओसे चार गुना तजुर्मा.. सुनावे बदे ...
अब मोदी जी बिहार में जा रहे है... लोगो को लगता है बिहारी लंठ होते है.. लेकिन अगर आप बिहार को देखे तो आज भी आईएस में बिहार से सबसे ज्यादा ... तो देखिये.... खैर बिहार के मित्रो ये फोटोशॉप के अंदाज में नहीं... सही चेहरा दिखाइए... ताकि आप के जो अपने सोये है..वो सोये ही रह जाये ....
पुरे संघी " श्री सुरेश चिपुलाकर जी.. जीतेन्द्र भैया ... लेकिन इतने लोग मेरे वाल पर लेकिन कभी मेरा विरोध नहीं किया... लोग पड़ते है ... लोग चुप्पा बॉक्स में बहस कर ले जाये... लेकिन भक्तो के गरियाने वाले अंदाज में नहीं
चलिए
अब भोर का ३ बज गया है... अब चलते है सुतने.... महादेव..
पति पत्नि ये संसार की गाड़ी के दो पहिये है इसमें का १ भी पहिया बिगड़ गया तो संसार की गाड़ी चल नहीं सकती इसलिए बुद्धिमान लोग स्टेपनी रखते है.. ता चला अब तू लोग हम तानी स्टेपनी चेक कर ले ..
'.
बनारसी कैसा अड़भंगी होता है, इसका जायजा उसके बनारसी अंदाज से मिल जाता है... " गंगा ओ पार" बनसी का एक खुबसूरत अंदाज है... उसमे कइए चीज आती है जैसे दिब्य निपटान... नहाना. बाटी चोखा का प्रोग्राम.. या भांग बूटी छानना.. लिखा नहीं जा सकता ये सिर्फ महसूस करने की चीज है.. आप को बनारस में हर जात, धर्म को लोग मिल जायेगे.. जो बहुत पहले बाहर से आ कर बनारस में बस गए... लेकिन आज उनका रंग भी खांटी बनारसी जैसा भी है... उनके लिए इस युग में कोई समस्या ही नहीं है, किसी के भी प्रतिस्पर्धा भी नहीं , सब अपने में मस्त... इस लिए तो कहा जाता है की काशी तीनो लोगो से न्यारी है
ये भी एक मन की बात आप मोदी की बात करते हैं, ..
ए खुदा तू ही बता अब दूआ उसकी खुशी की करु या मायूसी की...........
बनारस त बनारसे रहेगा
कब आएगा 'काशी को संवारने में क्योटो का अनुभव... ?
वाराणसीं पुरपतिम् भज विश्वनाथम्
हर हर महादेव ...
बनारस एक तीर्थ नगर है। पण्डे-पुजारिओं, मन्दिरों-देवालयों का। यहाँ गली का कोई भी नुक्कड़ नहीं जहाँ एक मूर्ति अपने छोटे देवालय में पतिष्ठित न हो। यहाँ सारे रास्ते घूम-फिरकर गंगा की ओर जाते लगते हैं। सभी रास्ते यहीं गंगा किनारे आकर खतम हो जाते हैं। जिन्दगी का चक्कर भी तो यहीं खतम होता है - महाश्मशान पर। जी हाँ, मणिकर्णिका नाम है इस शहर के महाश्मशान का। इस महाश्मशान की आग कभी ठण्डी नहीं होती। वैश्वानर अपनी सहस कालजिह्वाएँ लपलपाता चौबीस घण्टे किसी दुर्मद की तरह चकरघिन्नी बना घूमता रहता है। लपटें और लपटें...लपटें ही लपटें। राख की ढेर पर बैठा महाश्मशान का रखवाला डोमराज यहाँ अब भी खप्पर में ढली सुरा पीता है। मांसपिण्डों की चिरायंध गन्ध उसके नथुनों की फड़फड़ाहट में तेजी लाती है। चिटकती हड्डियों की करताल पर थिरकता है डोमराज। जलो...जलो...जलो...मेरी दी हुई आग की लपटों में जलो। इसीलिए तो खरीदी थी यह आग तुम्हारे चाहनेवालों ने। हाँ वे ही, जिन्होंने राम-नाम सत्य की धुन पर कदम मिलाते हए दो बांसों की टिकटी पर तुम्हें ढोया, तुम्हारी चिता सजाई और मेरी दी हुई, या यह कहो कि मुझसे खरीदी हुई, आग लेकर तुम्हें लपटों के हवाले कर दिया। यह शरीर पांच तत्वों से बना है न ? क्षिति-जल-पावक-गगन-समीरा....तुम्हारा भस्मशेष शरीर अभी कुछ ही देर में गंगा को समर्पित कर देंगे ये। पंचतत्वों से बना पंचतत्वों में ही मिल जाएगा। महाश्मशान का यह सत्य पंचभौतिक जीवन का चरम सत्य है।
कोई नहीं समझ पाया है, महिमा अपरम्पार बनारस।
भले क्षीर सागर हों विष्णु, शिव का तो दरबार बनारस।।
हर-हर महादेव कह करती, दुनिया जय-जयकार बनारस।
माता पार्वती संग बसता, पूरा शिव परिवार बनारस।।
कोतवाल भैरव करते हैं, दुष्टों का संहार बनारस।
माँ अन्नपूर्णा घर भरती हैं, जिनका है भण्डार बनारस।।
महिमा ऋषि देव सब गाते, मगर न पाते पार बनारस।
कण-कण शंकर घर-घर मंदिर, करते देव विहार बनारस।।
वरुणा और अस्सी के भीतर, है अनुपम विस्तार बनारस।
जिसकी गली-गली में बसता, है सारा संसार बनारस।।
एक बार जो आ बस जाता, कहता इसे हमार बनारस।
विविध धर्म और भाषा-भाषी, रहते ज्यों परिवार बनारस।।
वेद शास्त्र उपनिषद ग्रन्थ जो, विद्या के आगार बनारस।
यहाँ ज्ञान गंगा संस्कृति की, सतत् प्रवाहित धार बनारस।।
वेद पाठ मंत्रों के सस्वर, छूते मन के तार बनारस।
गुरु गोविन्द बुद्ध तीर्थंकर, सबके दिल का प्यार बनारस।।
कला-संस्कृति, काव्य-साधना, साहित्यिक संसार बनारस।
शहनाई गूँजती यहाँ से, तबला ढोल सितार बनारस।।
जादू है संगीत नृत्य में, जिसका है आधार बनारस।
भंगी यहाँ ज्ञान देता है, ज्ञानी जाता हार बनारस।।
ज्ञान और विज्ञान की चर्चा, निसदिन का व्यापार बनारस।
ज्ञानी गुनी और नेमी का, नित करता सत्कार बनारस।।
मरना यहाँ सुमंगल होता और मृत्यु श्रृंगार बनारस।
काशी वास के आगे सारी, दौलत है बेकार बनारस।।
एक लंगोटी पर देता है, रेशम को भी वार बनारस।
सुबहे-बनारस दर्शन करने, आता है संसार बनारस।।
रात्रि चाँदनी में गंगा जल, शोभा छवि का सार बनारस।
होती भव्य राम लीला है, रामनगर दरबार बनारस।।
सारनाथ ने दिया ज्ञान का, गौतम को उपहार बनारस।
भारत माता मंदिर बैठी, करती नेह-दुलार बनारस।।
नाग-नथैया और नक्कटैया, लक्खी मेले चार बनारस।
मालवीय की अमर कीर्ति पर, जग जाता, बलिहार बनारस।।
पाँच विश्वविद्यालय करते, शिक्षा का संचार बनारस।
गंगा पार से जाकर देखो, लगता धनुषाकार बनारस।।
राँड़-साँड़, सीढ़ी, संन्यासी, घाट हैं चन्द्राकार बनारस।
पंडा-गुन्डा और मुछमुन्डा, सबकी है भरमार बनारस।।
कहीं पुजैय्या कहीं बधावा, उत्सव सदाबहार बनारस।
गंगा जी में चढ़े धूम से, आर-पार का हार बनारस।।
फगुआ, तीज, दशहरा, होली, रोज़-रोज़ त्योहार बनारस।
कुश्ती, दंगल, बुढ़वा मंगल, लगै ठहाका यार बनारस।।
बोली ऐसी बनारसी है, बरबस टपके प्यार बनारस।
और पान मघई का अब तक, जोड़ नहीं संसार बनारस।।
भाँति-भाँति के इत्र गमकते, चौचक खुश्बूदार बनारस।
छनै जलेबी और कचौड़ी, गरमा-गरम आहार बनारस।।
छान के बूटी लगा लंगोटी, जाते हैं उस पार बनारस।
हर काशी वासी रखता है, ढेंगे पर संसार बनारस।।
सबही गुरु इहाँ है मालिक, ई राजा रंगदार बनारस।
चना-चबेना सबको देता, स्वयं यहाँ करतार बनारस।।
यहाँ बैठ कर मुक्ति बाँटता, जग का पालनहार बनारस।
धर्म, अर्थ और काम, मोक्ष का, इस वसुधा पर द्वार बनारस।।
मौज और मस्ती की धरती, सृष्टि का उपहार बनारस।
अनुपम सदा बहार बनारस, धरती का श्रृंगार बनारस।।
भले क्षीर सागर हों विष्णु, शिव का तो दरबार बनारस।।
हर-हर महादेव कह करती, दुनिया जय-जयकार बनारस।
माता पार्वती संग बसता, पूरा शिव परिवार बनारस।।
कोतवाल भैरव करते हैं, दुष्टों का संहार बनारस।
माँ अन्नपूर्णा घर भरती हैं, जिनका है भण्डार बनारस।।
महिमा ऋषि देव सब गाते, मगर न पाते पार बनारस।
कण-कण शंकर घर-घर मंदिर, करते देव विहार बनारस।।
वरुणा और अस्सी के भीतर, है अनुपम विस्तार बनारस।
जिसकी गली-गली में बसता, है सारा संसार बनारस।।
एक बार जो आ बस जाता, कहता इसे हमार बनारस।
विविध धर्म और भाषा-भाषी, रहते ज्यों परिवार बनारस।।
वेद शास्त्र उपनिषद ग्रन्थ जो, विद्या के आगार बनारस।
यहाँ ज्ञान गंगा संस्कृति की, सतत् प्रवाहित धार बनारस।।
वेद पाठ मंत्रों के सस्वर, छूते मन के तार बनारस।
गुरु गोविन्द बुद्ध तीर्थंकर, सबके दिल का प्यार बनारस।।
कला-संस्कृति, काव्य-साधना, साहित्यिक संसार बनारस।
शहनाई गूँजती यहाँ से, तबला ढोल सितार बनारस।।
जादू है संगीत नृत्य में, जिसका है आधार बनारस।
भंगी यहाँ ज्ञान देता है, ज्ञानी जाता हार बनारस।।
ज्ञान और विज्ञान की चर्चा, निसदिन का व्यापार बनारस।
ज्ञानी गुनी और नेमी का, नित करता सत्कार बनारस।।
मरना यहाँ सुमंगल होता और मृत्यु श्रृंगार बनारस।
काशी वास के आगे सारी, दौलत है बेकार बनारस।।
एक लंगोटी पर देता है, रेशम को भी वार बनारस।
सुबहे-बनारस दर्शन करने, आता है संसार बनारस।।
रात्रि चाँदनी में गंगा जल, शोभा छवि का सार बनारस।
होती भव्य राम लीला है, रामनगर दरबार बनारस।।
सारनाथ ने दिया ज्ञान का, गौतम को उपहार बनारस।
भारत माता मंदिर बैठी, करती नेह-दुलार बनारस।।
नाग-नथैया और नक्कटैया, लक्खी मेले चार बनारस।
मालवीय की अमर कीर्ति पर, जग जाता, बलिहार बनारस।।
पाँच विश्वविद्यालय करते, शिक्षा का संचार बनारस।
गंगा पार से जाकर देखो, लगता धनुषाकार बनारस।।
राँड़-साँड़, सीढ़ी, संन्यासी, घाट हैं चन्द्राकार बनारस।
पंडा-गुन्डा और मुछमुन्डा, सबकी है भरमार बनारस।।
कहीं पुजैय्या कहीं बधावा, उत्सव सदाबहार बनारस।
गंगा जी में चढ़े धूम से, आर-पार का हार बनारस।।
फगुआ, तीज, दशहरा, होली, रोज़-रोज़ त्योहार बनारस।
कुश्ती, दंगल, बुढ़वा मंगल, लगै ठहाका यार बनारस।।
बोली ऐसी बनारसी है, बरबस टपके प्यार बनारस।
और पान मघई का अब तक, जोड़ नहीं संसार बनारस।।
भाँति-भाँति के इत्र गमकते, चौचक खुश्बूदार बनारस।
छनै जलेबी और कचौड़ी, गरमा-गरम आहार बनारस।।
छान के बूटी लगा लंगोटी, जाते हैं उस पार बनारस।
हर काशी वासी रखता है, ढेंगे पर संसार बनारस।।
सबही गुरु इहाँ है मालिक, ई राजा रंगदार बनारस।
चना-चबेना सबको देता, स्वयं यहाँ करतार बनारस।।
यहाँ बैठ कर मुक्ति बाँटता, जग का पालनहार बनारस।
धर्म, अर्थ और काम, मोक्ष का, इस वसुधा पर द्वार बनारस।।
मौज और मस्ती की धरती, सृष्टि का उपहार बनारस।
अनुपम सदा बहार बनारस, धरती का श्रृंगार बनारस।।
कासी सेवन का एक दूसरा अंदाज भी है। यह बनारस का चौथा सत्य है-
चना, चबेना गंग जल जो पुरवै करतार।
कासी कभी न छोड़िए विश्वनाथ दरबार।।
मैं इसका एक दूसरा ही संसकरण प्रस्तुत करना चाहूँगा -
चना भंग गंगा-जल पाना।
विश्वनाथपुर छोड़ न आना।
अगर भगवान विश्वनाथ की कृपा से चना, भांग, गंगा-जल और पान मिलता रहे तो बनारस छोड़ कहीं और जाने का जोखिम कोई क्यों उठाए। यही एक शहर है जहाँ अकेला चना भी भाड़ झोंकने की अहमियत रखता है। रही भोजन के लिए चना ही काफी है की बात - तो इस पर बहस की गुंजाइश हो सकती है। जिसकी गांठ में नामा हो वह चने की कीमत नहीं आंक सकता। जिसका गरूर यह हो कि वह चने खाकर भी ताल ठोकता हुआ काशी में ही रहने का जोखिम उठाएगा ऐसा ही आदमी चना खाकर अकेले भाड़ झोंकने की हिमाकत कर सकता है। यहीं भांग के बारे में भी कुछ कहना जरूरी हो जाता है। अगर नहीं तो इस तरह यह सारी दुनियाँ पर क्यों हावी हो जाता। बनारस मस्त शहर है और इस म्स्ती के लिए भांग एक निहायत जरूरी चीज है। सुनते हैं कि जापानी लोग चाय-पान के पहले चाय-संस्कार करते हैं। भांग पीने या गोला निगलने के पहले उसका संस्कार जरूरी हो जाता है। पहले गंगा के किनारे या गंगा पर तिरती हुई नावों में सिलबटे पर भांग पीसने का रियाज हुआ करता था। यही रियाज इस संस्कारी शहर का भंग संस्कार पर्व बन गया था। एक ऐसा पर्व जो साल के हर दिन मनाया जाता था। संस्कृत भांग विजया की संज्ञा पाकर संस्कर्ता के लिए विजया-पर्व बन जाता था। एक ऐसा पर्व जिसका धर्म मस्ती से अलग और कुछ हो ही नहीं सकता। आज यह भंग-पर्व महा-शिवरात्रि और होली के दो विशेष दिनों तक ही सीमित होकर रह गया है। होली का भंग-पर्व बहुत हद तक आधुनिक सुरा पर्व बन गया है। बुढवा-मंगल, यानी गए साल के आखिरी मंगल की रात, गंगा के वक्ष पर बजरों पर खनकती घुंघरुओं की आवाज पर रूपाजीवाओं की थिरकन, भंग की तरंग में बहकते रईसों की आन-बान अब याददाश्त की बात भर रह गई है। बनारस की रईसी मर चुकी है, ठीक वैसे ही जैसे यहाँ की गुण्डा संस्कृति। महाराज बनारस श्री चेत सिंह के जमाने तक वाराणसी की गुण्डा-संस्कृति सदाबहार रही। वारेन हेस्टिंगज़ को इसी संस्कृति ने धूल चटाई। तब गुंडा शब्द का अर्थ ही अलग हुआ करता था।
Saturday, August 8, 2015
काग चेष्टा, बको ध्यानम
बच्चों को सिखाया जाता है - काग चेष्टा, बको ध्यानम... मतलब ध्यान और लक्ष्य हमेशा केंद्रित.
""काक चेष्टा वको ध्यानम्,
श्वान निद्रा तथैव च,
अल्पहारी ,गृह त्यागी , विद्यार्थी पंच लक्षणम""
मतलब कि
""काक चेष्टा वको ध्यानम्,
श्वान निद्रा तथैव च,
अल्पहारी ,गृह त्यागी , विद्यार्थी पंच लक्षणम""
मतलब कि
Thursday, August 6, 2015
असत्य के प्रचारक हैं हिन्दुत्ववादी
‘रथयात्रा’ के कारण जगह-जगह सांप्रदायिक
उन्माद पैदा हुआ और दंगे हुए जिनमें सैकड़ों निरपराध व्यक्ति मारे
जिनका ‘रथयात्रा’ से कोई लेना-देना नहीं था, क्या ये मौतें आडवाणी की
यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट नहीं करतीं ?
आडवाणी ने यह भी कहा था ‘मंदिर
बनाने की भावना के पीछे बदला लेने की भावना नहीं है!’ अगर ऐसा नहीं था तो
फिर अधिकांश स्थानों पर मुसलमानों के खिलाफ नारे क्यों लगाए गए? क्यों
निरपराध मुसलमानों पर हमले किए गए उनके जानो-माल का नुकसान किया (इस क्रम
में हिंदू भी मारे गए)।
दूसरी बात यह है कि इतिहास की
किसी भी गलती के लिए आज की जनता से चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान से उत्तर
और समर्थन क्यों मांगा जा रहा है? आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक स्व. बाला
साहब देवरस ने 29 दिसंबर 1990 को कहा था कि मैं मुसलमानों से सीधा प्रश्न
पूछता हूं कि क्या वे अतीत में ‘मंदिर को तोड़े जाने की स्वीकृति देते हैं’
अगर नहीं तो ‘वे क्या इस पर खेद व्यक्त करते हैं’ यानी कि जो मुसलमान इस
प्रश्न का सीधा उत्तर ‘ना’ में दे? उसका भविष्य …? क्या होगा इस पर सोचा जा
सकता है। मैं यहां एक प्रश्न पूछता हूं कि क्या आरएसएस के नेतागण हिंदू
राजाओं के द्वारा मंदिर तोड़े जाने खासकर कल्हण की राजतरंगिणी में वर्णित
राजा हर्ष द्वारा मंदिर तोड़े जाने की बात के लिए ‘हिंदुओं से सीधा प्रश्न
करके उत्तर चाहेंगे?’ क्या वे ‘हिंदुओं से बौद्धों एवं जैनों के मंदिर
तोड़े जाने का भी सीधा उत्तर लेने की हिमाकत कर सकते हैं?’ असल में, यह
प्रश्न ही गलत है तथा सांप्रदायिक विद्वेष एवं फासिस्ट मानसिकता से ओतप्रोत
है।
आडवाणी एवं आरएसएस के नेताओं ने
इसी तरह के प्रश्नों को उछाला है और फासिस्ट दृष्टिकोण का प्रचार किया है।
आडवाणी ने कहा था कि वे हिंदू सम्मान को पुनर्स्थापित करने के लिए रथयात्रा
लेकर निकले हैं। 30 सितंबर को मुंबई में उन्हें 101 युवाओं के खून से भरे
कलश भेंट किए गए थे। इन कलशों में बजरंग दल के युवाओं का खून भरा था। यहां
यह पूछा जा सकता है कि ‘युवाओं के खूनी कलश’ क्या सांप्रदायिक सद्भाव के
प्रतीक थे? या सांप्रदायिक एवं फासिस्ट विद्वेष के? आखिर बजरंग दल के
‘मरजीवडों’ को किस लिए तैयार किया गया? क्या उन्होंने राष्ट्रीय एकता में
अवदान किया अथवा राष्ट्रीय सद्भाव में जहर घोला?
आडवाणी एवं अटल बिहारी वाजपेयी ने
जो घोषणाएं ‘राम जन्मस्थान’ की वास्तविक जगह के बारे में की थीं, वह भी
सोचने लायक हैं। अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के 18 मई 1989 के अंक
में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘उस वास्तविक जगह को रेखांकित करना
मुश्किल है, जहां हजारों वर्ष पूर्व राम पैदा हुए थे,’ जबकि इन्हीं
वाजपेयीजी ने 24 सितंबर 1990 को हिंदुस्तान टाइम्स से कहा कि ‘राम का एक ही
जन्मस्थान’ है। यहां सोचा जाना चाहिए कि 18 मई 1989 तक कोई वास्तविक जगह
नहीं थी, वह 24 सितंबर 1990 तक किस तरह और किस आधार पर जन्मस्थान की जगह
खोज ली गई ? इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ‘यह कोई साबित नहीं कर सकता
कि वास्तविक जन्मस्थान की जगह कौन-सी है। पर यह ‘आस्था’ का मामला है जिसको
सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती’ (द इंडिपेंडेंट 1 अक्टूबर 1990) यानी मामला
आस्था का है, वास्तविक सच्चाई से उसका कोई संबंध नहीं है।
आडवाणी ने लगातार यह प्रचार किया
कि बाबर हिंदू विरोधी था, हिंदू देवताओं की मूर्ति तोड़ता था, वगैरह-वगैरह।
इस संदर्भ में स्पष्ट करने के लिए दस्तावेजों में ‘बाबर की वसीयत’ दी है,
जो बाबर के हिंदू विरोधी होने का खंडन करती है। वे तर्क देते हैं कि ‘देश
बाबर और राम में से किसी एक को चुन ले’। आडवाणी के इससे तर्क के बारे में
पहली बात तो यह है कि इसमें से किसी एक को चुनने और छोड़ने का सवाल ही पैदा
नहीं होता। बाबर राजा था, यह इतिहास का हिस्सा है। राम अवतारी पुरूष थे,
वे सांस्कृतिक परंपरा के अंग हैं। अत: इन दोनों में तुलना ही गलत है। दूसरी
बात यह कि हिंदुस्तान के मुसलमानों में आज कोई भी बाबर को अपना नेता नहीं
मानता, आडवाणी स्पष्ट करें कि किस मुस्लिम नेता ने बाबर को अपना नायक कहा
है ? अगर कहा भी है तो क्या उसे देश के सभी मुसलमान अपना ‘नायक’ कहते हैं ?
एक अन्य प्रश्न यह है कि आडवाणी
हिंदुओं को एक ही देवता राम को मानने की बात क्यों उठा रहे हैं? क्या वे
नहीं जानते कि भारतीय देवताओं में तैंतीस करोड़ देवता हैं, चुनना होगा तो
इन सबमें से हिंदू कोई देवता चुनेंगे? सिर्फ एक ही देवता राम को ही क्यों
मानें? आडवाणी कृत इस ‘एकेश्वरवाद’ का फासिज्म के ‘एक नायक’ के सिद्धांत से
गहरा संबंध है।
हाल ही में जब पत्रकारों ने
आडवाणी से पूछा कि वह कोई राष्ट्रीय संगोष्ठी मंदिर की ऐतिहासिकता प्रमाणित
करने के लिए आयोजित क्यों नहीं करते? जिसमें समाजविज्ञान, पुरातत्त्व,
साहित्य आदि के विद्वानों की व्यापकतम हिस्सेदारी हो तो उन्होंने कहा कि
ऐसे सेमीनार तो होते रहे हैं। पत्रकारों ने जब उत्तर मांगा कि कहां हो रहे
हैं? तो आडवाणीजी कन्नी काटने लगे। 16 दिसंबर 1990 के स्टेट्समैन अखबार की
रिपोर्ट के मुताबिक आडवाणी ने कहा कि कुछ महीने पहले मैंने महत्वपूर्ण
दस्तावेजों से युक्त एक पुस्तक जनता के लिए जारी की है जिसे बेल्जियम के
स्कॉलर कोनार्ड इल्स्ट ने लिखा है। नाम है- राम जन्मभूमि वर्सेंज बाबरी
मस्जिद। मैंने इस पुस्तक को कई बार गंभीरता से देखा-पढ़ा एवं आडवाणीजी के
बयानों से मिलाने की कोशिश की तो मुझे जमीन आसमान का अंतर मिला।
आडवाणी इस पुस्तक को महत्वपूर्ण
मानते हैं तथा बाबरी मस्जिद विवाद पर यह पुस्तक उनके पक्ष को पेश भी करती
है, यह उनका बयान है। आइए, हम आडवाणी के दावे और पुस्तक के लेखक के दावे को
देखें।
आडवाणी का मानना है कि राम का
जन्म वहीं हुआ है जहां बाबरी मस्जिद है, राम मंदिर तोड़कर बाबर ने मस्जिद
बनाई, अत: ‘राष्ट्रीय’ सम्मान के लिए मस्जिद की जगह मंदिर बनाया जाना
चाहिए। बेल्यिजम के इस तथाकथित ‘स्कॉलर’ या विद्वान ने अपनी पुस्तक में
बहुत सी बातें ऐसी लिखा हैं, जिनसे असहमत हुआ जा सकता है, यहां मैं समूची
पुस्तक की समीक्षा के लंबे चक्कर में नहीं जा रहा हूं, सिर्फ लेखक का
नजरिया समझाने के लिए एक-दो बातें रख रहा हूं। लेखक ने अपने बारे में कहा
है कि वह ‘कैथोलिक पृष्ठभूमि’ से आता है पर उसने यह नहीं बताया कि आजकल
उसकी पृष्ठभूमि या पक्षधरता क्या है? क्या इस प्रश्न की अनुपस्थिति
महत्वपूर्ण नहीं है?
एक जमाने में आरएसएस के गुरू
गोलवलकर ने बंच ऑफ पॉटस में हिंदुत्व के लिए तीन अंदरूनी खतरों का जिक्र
किया था, ये थे-पहला मुसलमान, दूसरा ईसाई और तीसरा कम्युनिस्ट। क्या यह
संयोग है कि बेल्जियम के विद्वान महाशय ने बाबरी मस्जिद वाली पुस्तक में
लिखा है कि ‘हिंदू विरोधी प्रचारक हैं ईसाई, मुस्लिम और मार्क्सवादी’! क्या
लेखक के दृष्टिकोण में और गोलवलकर के दृष्टिकोण में साम्य नहीं है? क्या
इससे उसकी मौजूदा पृष्ठभूमि का अंदाजा नहीं लगता। खैर, चूंकि आडवाणी इस
विद्वान की पुस्तक का समर्थन कर रहे हैं तो यह तो देखना होगा कि आडवाणी
क्या पुस्तक की बातों का समर्थन करते हुए अपना फैसला बदलेंगे। बेल्जियम के
विद्वान ने प्राचीन मार्गदर्शक अयोध्या माहात्म्य में राम मंदिर का जिक्र
नहीं है- इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए लिखा है कि -’यह बताया जा सकता है,
पहली बात तो
यह कि अयोध्या माहात्म्य से
संभवत: राम मंदिर का नाम लिखने से छूट गया हो, यह तो प्रत्यक्ष ही है। अपने
इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए विद्वान लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है
कि ‘बाबर के किसी आदमी ने जन्मभूमि मंदिर’ नहीं तोड़ा। सवाल उठता है क्या
आडवाणी अपने फैसले को वापस लेने को तैयार हैं? क्योंकि उनके द्वारा जारी
पुस्तक उनके तर्क का समर्थन नहीं करती। इस पुस्तक में साफ तौर पर
विश्व हिंदू परिषद् के तर्कों से
उस सिद्धांत की धज्जियां उड़ जाती हैं कि राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद
बनाई गई थी। चूंकि, आडवाणी इस पुस्तक पर भरोसा करते हैं, अत: वे इसके
तथ्यों से भाग नहीं सकते। आडवाणी का मानना है कि बाबरी मस्जिद में 1936 से
नमाज नहीं पढ़ी गई, बेल्जियम का विद्वान इस धारणा का भी खंडन करता है और
कहता है कि ‘हो सकता है, नियमित नमाज न पढ़ी जाती हो, यदा-कदा पढ़ी जाती
हो, पर 1936 से नमाज जरूर पढ़ी जाती थी।’ एक अन्य प्रश्न पर प्रकाश डालते
हुए लेखक ने लिखा है कि ‘यह निश्चित है कि विहिप द्वारा ‘हिंदुत्व’ को
राजनीतिक चेतना में रूपांतरित करने की कोशिश की जा रही है, उसे इसमें
पर्याप्त सफलता भी मिली है। यह भी तय है कि राम जन्मभूमि का प्रचार अभियान
इस लक्ष्य में सबसे प्रभावी औजार है, ‘विहिप’ अपने को सही साबित कर पाएगी:
यह भविष्य तय करेगा, पर उसने कोई गलती नहीं की। हम हिंदू राष्ट्र बनाएंगे
और इसकी शुरूआत 9 नवंबर 1989 से हो चुकी है।’ यानी कि आडवाणी के द्वारा
बतलाए विद्वान महाशय का यह मानना है कि यह सिर्फ राम मंदिर बनाने का मसला
नहीं है, बल्कि यह हिंदू राष्ट्र निर्माण की कोशिश का सचेत प्रयास है। क्या
यह मानें कि आडवाणी अब इस पुस्तक से अपना संबंध विच्छेद करेंगे? या फिर
बेल्जियम के विद्वान की मान्यताओं के आधार पर अपनी नीति बदलेंगे। असल में,
बेल्जियम के लेखक की अनैतिहासिक एवं सांप्रदायिक दृष्टि होने के बावजूद
बाबरी मस्जिद बनाने संबंधी धारणाएं विहिप एवं आडवाणी के लिए गले की हड्डी
साबित हुई हैं। वह उस प्रचार की भी पोल खोलता है कि विहिप एवं भाजपा तो
सिर्फ राम मंदिर बनाने के लिए संघर्ष कर रहें हैं। यह वह बिंदु है जहां पर
आडवाणी अपने ही बताए विद्वान के कठघरे में खड़े हैं।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं)
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