घोड़े पर हौदा-हाथी पर जीन/ चुपके से भागा वारेन हेस्टिंग. ये कहावत आज भी बनारस क़ी गलियों में पुराने लोगों के बीच लोकप्रिय है। इसके पीछे एक कहानी है। कहते हैं कि आज से लगभग दो सौ तीस साल पहले काशी राज्य क़ी तुलना देश क़ी बड़ी रियासतों में क़ी जाती थी। भौगोलिक दृष्टिकोण से काशी राज्य भारत का ह्रदय प्रदेश था। जिसे देखते हुए उन दिनों ब्रिटिश संसद में यह बात उठाई गई थी कि यदि काशी राज्य ब्रिटिश हुकूमत के हाथ आ जाये तो उनकी अर्थ व्यवस्था तथा व्यापार का काफी विकास होगा।
इस विचार विमर्श के बाद तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग को भारत पर अधिकार करने के लिय भेजा गया। काशी राज्य पर हुकूमत करने के लिये अग्रेजों ने तत्कालीन काशी नरेश से ढाई सेर चीटीं के सर का तेल या फिर इसके बदले एक मोटी रकम क़ी मांग रखी। अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाने क़ी मंशा को काशी नरेश राजा चेतसिंह ने पहले ही भांप लिया था। अतः उन्होंने रकम तक देने से साफ मना कर दिया लेकिन उन्हें लगा कि अंग्रेज उनके राज्य पर आक्रमण कर सकते हैं, इसी को मद्देनजर रखते हुए काशी नरेश ने मराठा, पेशवा और ग्वालियर जैसी कुछ बड़ी रियासतों से संपर्क कर इस बात कि संधि कर ली थी कि यदि जरुरत पड़ी तो इन फिरंगियों को भारत से खदेड़ने का पूरी कोशिश करेंगे।
14 अगस्त 1781, दिन शनिवार, जनरल वारेन हेस्टिंग एक बड़े सैनिक जत्थे के साथ गंगा के जलमार्ग से काशी पहुंचा। उसने कबीरचौरा के माधव दास का बाग को अपना ठिकाना बनाया। कहते हैं कि राजा चेतसिंह के दरबार से निष्काषित औसान सिंह नाम के एक कर्मचारी कलकत्ता जा कर वारेन हेस्टिंग से मिला और उसका विश्वासपात्र बन बैठा, जिसे अंग्रेजों ने "राजा" क़ी उपाधि से भी नवाजा था। उसी के मध्यम से अंग्रेजों ने काशी पहुँचने के बाद काशी नरेश राजाचेत सिंह को गिरफ्तार करने क़ी साजिश रची . दिन रविवार, तारीख १५ अगस्त १७८१ क़ी सुबह वारेन हेस्टिंग ने अपने एक अंग्रेज अधिकारी मार्कहम को एक पत्र दे कर राजा चेतसिंह के पास से ढाई किलो चीटी के सर का तेल या फिर उसके बदले एक मोटी रकम लाने को भेजा. उस पत्र में हेस्टिंग ने राजा चेतसिंह पर राजसत्ता के दुरुपयोग और षड्यंत्र का आरोप लगाया। पत्र के उत्तर में राजा साहब ने षड्यंत्र के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट क़ी. उस दिन यानि १५ अगस्त को राजा चेतसिंह और वारेन हेस्टिंग के बीच दिन भर पत्र व्यवहार चलता रहा
दूसरे दिन १६ अगस्त को सावन का अंतिम सोमवार, हर साल क़ी तरह राजा चेत सिंह अपने रामनगर किले क़ी बजाय शंकर भगवान क़ी पूजा अर्चना करने गंगा के इस पार छोटे किले शिवालाघाट आए थे। इसी किले में उनकी तहसील का छोटा सा कार्यालय भी था। कहतें हैं कि जिस समय काशी नरेश शिवपूजन से निवृत हो कर अपने दरबार में कामकाज देख रहे थे, कि उसी समय गवर्नर वारेन हेस्टिंग क़ी सेना उनके दरबार में प्रवेश करने की कोशिश करने लगी लेकिन काशी के सैनिकों ने उनके नापाक मंसूबो को कामयाब नहीं होने दिया। तब एक अंग्रेज रेजीडेंट ने राजा साहब से मिलने क़ी इच्छा जाहिर क़ी और कहलवाया कि वो गवर्नर साहब का एक जरुरी सन्देश ले कर आया है, लेकिन सैनिकों ने ये संदेह प्रकट किया कि वो इतनी सेना साथ क्यों लाया है? इसके जवाब में रेजिडेंट ने ये कहकर नई चाल चली कि सेना तो वैसे ही उसके साथ चली आई है, किले में केवल हम दो-तीन अधिकारी ही आएंगे. इस पर राजा साहब क़े आदेश पर उन्हें अन्दर किले में भेज दिया गया।
बातों ही बातों में दोनों ओर से तलवारें खिंच गईं, इसी दौरान एक अंग्रेज अधिकारी ने राजा चेत सिंह को लक्ष्य कर बन्दूक तानी, जब तक उसकी अंगुली बन्दूक के ट्रिगर पर दबती कि उसके पहले काशी के महशूर गुंडे बाबू नन्हकू सिंह क़ी तलवार के एक ही वार से उस अंग्रेज अधिकारी का सर कट कर दन से जमीन पर आ गिरा, चारों ओर खून ही खून बिखर गया, जिसे देख कर खून से सने अंग्रेज अधिकारी चीखते-चिल्लाते उल्टे पांव बाहर भागे. उधर किले के बाहर चारों तरफ छिपे किन्तु सतर्क काशी के वीर रणबांकुरों ने देख कर ये समझ लिया कि अन्दर किले में मार-काट मच गई है। फिर क्या था सभी बाज क़ी तरह गोरी चमड़ी वालों पर टूट पड़े, लेकिन किस ने किस को मारा ये तो आज तक पता नहीं चल सका, लेकिन शिवाला घाट पर बने किले के बाहर लगे शिलापट्ट पर अंग्रेजों ने ये जरुर अंकित करवा दिया कि इसी जगह पर तीन अंग्रेज अधिकारियों लेफ्टिनेंट स्टॉकर, लेफ्टिनेंट स्कॉट और लेफ्टिनेंट जार्ज सेम्लास समेत लगभग दो सौ सैनिक मारे गए थे।
इस घटना के तुरन्त बाद राजा काशी नरेश के मंत्री बाबू मनियर सिंह ने गवर्नर वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार करने क़ी सलाह राजा साहेब को दी, लेकिन उनके दीवान बक्शी सदानंद ने उन्हें ऐसा कराने से मना कर दिया। उधर वारेन हेस्टिंग अपने पकडे़ जाने के डर से "माधव दस बाग" के मालिक पंडित बेनी राम से चुनार जाने के लिये सहायता मांगी. इसी बीच उसे पता चल गया कि राजा साहब क़ी एक बड़ी फौज उसे गिरफ्तार करने इसी तरफ आ रही है। कहते हैं कि अपनी गिरफ्तारी के डर से वारेन हेस्टिंग उसी माधव दास बाग के भीतर बने एक कुँए में कूद गया और जब रात हुई तो वो स्त्री का भेष धारण कर चुनार क़ी ओर कूच कर गया। राजा चेतसिंह के दीवान बक्शी सदानंद क़ी ये सलाह कि वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार ना किया जाय, भारत के लिये दुर्भाग्यपूर्ण रहा। अगर उस दिन वारेन हेस्टिंग काशी नरेश क़ी सेना के हाथों गिरफ्तार कर लिया गया होता तो शायद अंग्रेजों के पांव भारत में ही ज़मने नहीं पाते.
मजे क़ी बात तो ये है कि अंग्रेज इतिहासकारों ने काशी नरेश राजा चेतसिंह को भगोड़ा साबित किया है और वहीं दूसरी तरफ शिवाला घाट पर जो शिलापट्ट लगवाया उस में साफ-साफ शब्दों में लिखवाया कि "इसी जगह उनके तीन अधिकारियों सहित दो सौ सैनिक मारे गए थे। जिसे आज भी देखा जा सकता है लेकिन वो वारेन हेस्टिंग के भगोड़ा होने क़ी बात पर चुप्पी साध गए। अगर इस घटना पर विचार करें तो स्वतंत्रता आन्दोलन का पहला बिगुल काशी में ही बजा था, लेकिन दुर्भाग्य ये है कि उस घटना क़ी याद में आज तक यहाँ पर कोई स्मारक नहीं बन सका है। हाँ इस दिन यानी १६ अगस्त को जिन परिवार के पूर्वजों ने स्वतंत्रता के लिये उस दिन अपनी क़ुरबानी दी थी उनके परिजन जरुर एक "दीपक" उनकी याद में जलाते हैं। उस गौरव गाथा को आज भी इस प्रकार गया जाता है,
घोड़े पर हौदा, हाथी पर जीन, चुपके से भागा वारेन हेस्टिंग...!
इस विचार विमर्श के बाद तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग को भारत पर अधिकार करने के लिय भेजा गया। काशी राज्य पर हुकूमत करने के लिये अग्रेजों ने तत्कालीन काशी नरेश से ढाई सेर चीटीं के सर का तेल या फिर इसके बदले एक मोटी रकम क़ी मांग रखी। अंग्रेजों द्वारा भारत को गुलाम बनाने क़ी मंशा को काशी नरेश राजा चेतसिंह ने पहले ही भांप लिया था। अतः उन्होंने रकम तक देने से साफ मना कर दिया लेकिन उन्हें लगा कि अंग्रेज उनके राज्य पर आक्रमण कर सकते हैं, इसी को मद्देनजर रखते हुए काशी नरेश ने मराठा, पेशवा और ग्वालियर जैसी कुछ बड़ी रियासतों से संपर्क कर इस बात कि संधि कर ली थी कि यदि जरुरत पड़ी तो इन फिरंगियों को भारत से खदेड़ने का पूरी कोशिश करेंगे।
14 अगस्त 1781, दिन शनिवार, जनरल वारेन हेस्टिंग एक बड़े सैनिक जत्थे के साथ गंगा के जलमार्ग से काशी पहुंचा। उसने कबीरचौरा के माधव दास का बाग को अपना ठिकाना बनाया। कहते हैं कि राजा चेतसिंह के दरबार से निष्काषित औसान सिंह नाम के एक कर्मचारी कलकत्ता जा कर वारेन हेस्टिंग से मिला और उसका विश्वासपात्र बन बैठा, जिसे अंग्रेजों ने "राजा" क़ी उपाधि से भी नवाजा था। उसी के मध्यम से अंग्रेजों ने काशी पहुँचने के बाद काशी नरेश राजाचेत सिंह को गिरफ्तार करने क़ी साजिश रची . दिन रविवार, तारीख १५ अगस्त १७८१ क़ी सुबह वारेन हेस्टिंग ने अपने एक अंग्रेज अधिकारी मार्कहम को एक पत्र दे कर राजा चेतसिंह के पास से ढाई किलो चीटी के सर का तेल या फिर उसके बदले एक मोटी रकम लाने को भेजा. उस पत्र में हेस्टिंग ने राजा चेतसिंह पर राजसत्ता के दुरुपयोग और षड्यंत्र का आरोप लगाया। पत्र के उत्तर में राजा साहब ने षड्यंत्र के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट क़ी. उस दिन यानि १५ अगस्त को राजा चेतसिंह और वारेन हेस्टिंग के बीच दिन भर पत्र व्यवहार चलता रहा
दूसरे दिन १६ अगस्त को सावन का अंतिम सोमवार, हर साल क़ी तरह राजा चेत सिंह अपने रामनगर किले क़ी बजाय शंकर भगवान क़ी पूजा अर्चना करने गंगा के इस पार छोटे किले शिवालाघाट आए थे। इसी किले में उनकी तहसील का छोटा सा कार्यालय भी था। कहतें हैं कि जिस समय काशी नरेश शिवपूजन से निवृत हो कर अपने दरबार में कामकाज देख रहे थे, कि उसी समय गवर्नर वारेन हेस्टिंग क़ी सेना उनके दरबार में प्रवेश करने की कोशिश करने लगी लेकिन काशी के सैनिकों ने उनके नापाक मंसूबो को कामयाब नहीं होने दिया। तब एक अंग्रेज रेजीडेंट ने राजा साहब से मिलने क़ी इच्छा जाहिर क़ी और कहलवाया कि वो गवर्नर साहब का एक जरुरी सन्देश ले कर आया है, लेकिन सैनिकों ने ये संदेह प्रकट किया कि वो इतनी सेना साथ क्यों लाया है? इसके जवाब में रेजिडेंट ने ये कहकर नई चाल चली कि सेना तो वैसे ही उसके साथ चली आई है, किले में केवल हम दो-तीन अधिकारी ही आएंगे. इस पर राजा साहब क़े आदेश पर उन्हें अन्दर किले में भेज दिया गया।
बातों ही बातों में दोनों ओर से तलवारें खिंच गईं, इसी दौरान एक अंग्रेज अधिकारी ने राजा चेत सिंह को लक्ष्य कर बन्दूक तानी, जब तक उसकी अंगुली बन्दूक के ट्रिगर पर दबती कि उसके पहले काशी के महशूर गुंडे बाबू नन्हकू सिंह क़ी तलवार के एक ही वार से उस अंग्रेज अधिकारी का सर कट कर दन से जमीन पर आ गिरा, चारों ओर खून ही खून बिखर गया, जिसे देख कर खून से सने अंग्रेज अधिकारी चीखते-चिल्लाते उल्टे पांव बाहर भागे. उधर किले के बाहर चारों तरफ छिपे किन्तु सतर्क काशी के वीर रणबांकुरों ने देख कर ये समझ लिया कि अन्दर किले में मार-काट मच गई है। फिर क्या था सभी बाज क़ी तरह गोरी चमड़ी वालों पर टूट पड़े, लेकिन किस ने किस को मारा ये तो आज तक पता नहीं चल सका, लेकिन शिवाला घाट पर बने किले के बाहर लगे शिलापट्ट पर अंग्रेजों ने ये जरुर अंकित करवा दिया कि इसी जगह पर तीन अंग्रेज अधिकारियों लेफ्टिनेंट स्टॉकर, लेफ्टिनेंट स्कॉट और लेफ्टिनेंट जार्ज सेम्लास समेत लगभग दो सौ सैनिक मारे गए थे।
इस घटना के तुरन्त बाद राजा काशी नरेश के मंत्री बाबू मनियर सिंह ने गवर्नर वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार करने क़ी सलाह राजा साहेब को दी, लेकिन उनके दीवान बक्शी सदानंद ने उन्हें ऐसा कराने से मना कर दिया। उधर वारेन हेस्टिंग अपने पकडे़ जाने के डर से "माधव दस बाग" के मालिक पंडित बेनी राम से चुनार जाने के लिये सहायता मांगी. इसी बीच उसे पता चल गया कि राजा साहब क़ी एक बड़ी फौज उसे गिरफ्तार करने इसी तरफ आ रही है। कहते हैं कि अपनी गिरफ्तारी के डर से वारेन हेस्टिंग उसी माधव दास बाग के भीतर बने एक कुँए में कूद गया और जब रात हुई तो वो स्त्री का भेष धारण कर चुनार क़ी ओर कूच कर गया। राजा चेतसिंह के दीवान बक्शी सदानंद क़ी ये सलाह कि वारेन हेस्टिंग को गिरफ्तार ना किया जाय, भारत के लिये दुर्भाग्यपूर्ण रहा। अगर उस दिन वारेन हेस्टिंग काशी नरेश क़ी सेना के हाथों गिरफ्तार कर लिया गया होता तो शायद अंग्रेजों के पांव भारत में ही ज़मने नहीं पाते.
मजे क़ी बात तो ये है कि अंग्रेज इतिहासकारों ने काशी नरेश राजा चेतसिंह को भगोड़ा साबित किया है और वहीं दूसरी तरफ शिवाला घाट पर जो शिलापट्ट लगवाया उस में साफ-साफ शब्दों में लिखवाया कि "इसी जगह उनके तीन अधिकारियों सहित दो सौ सैनिक मारे गए थे। जिसे आज भी देखा जा सकता है लेकिन वो वारेन हेस्टिंग के भगोड़ा होने क़ी बात पर चुप्पी साध गए। अगर इस घटना पर विचार करें तो स्वतंत्रता आन्दोलन का पहला बिगुल काशी में ही बजा था, लेकिन दुर्भाग्य ये है कि उस घटना क़ी याद में आज तक यहाँ पर कोई स्मारक नहीं बन सका है। हाँ इस दिन यानी १६ अगस्त को जिन परिवार के पूर्वजों ने स्वतंत्रता के लिये उस दिन अपनी क़ुरबानी दी थी उनके परिजन जरुर एक "दीपक" उनकी याद में जलाते हैं। उस गौरव गाथा को आज भी इस प्रकार गया जाता है,
घोड़े पर हौदा, हाथी पर जीन, चुपके से भागा वारेन हेस्टिंग...!
अभी साहित्य अमृत में एक लेख छपा है देवेन्द्र स्वरूप का. जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया है कि 1857 की क्रांति के पीछे पूरबियों (पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार) का कितना बड़ा योगदान था. वे तो यहां तक निष्कर्ष निकालते हैं कि पूरब के लोग नहीं होते तो 1857 की क्रांति होती ही नहीं.
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