‘रथयात्रा’ के कारण जगह-जगह सांप्रदायिक
उन्माद पैदा हुआ और दंगे हुए जिनमें सैकड़ों निरपराध व्यक्ति मारे
जिनका ‘रथयात्रा’ से कोई लेना-देना नहीं था, क्या ये मौतें आडवाणी की
यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट नहीं करतीं ?
आडवाणी ने यह भी कहा था ‘मंदिर
बनाने की भावना के पीछे बदला लेने की भावना नहीं है!’ अगर ऐसा नहीं था तो
फिर अधिकांश स्थानों पर मुसलमानों के खिलाफ नारे क्यों लगाए गए? क्यों
निरपराध मुसलमानों पर हमले किए गए उनके जानो-माल का नुकसान किया (इस क्रम
में हिंदू भी मारे गए)।
दूसरी बात यह है कि इतिहास की
किसी भी गलती के लिए आज की जनता से चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान से उत्तर
और समर्थन क्यों मांगा जा रहा है? आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक स्व. बाला
साहब देवरस ने 29 दिसंबर 1990 को कहा था कि मैं मुसलमानों से सीधा प्रश्न
पूछता हूं कि क्या वे अतीत में ‘मंदिर को तोड़े जाने की स्वीकृति देते हैं’
अगर नहीं तो ‘वे क्या इस पर खेद व्यक्त करते हैं’ यानी कि जो मुसलमान इस
प्रश्न का सीधा उत्तर ‘ना’ में दे? उसका भविष्य …? क्या होगा इस पर सोचा जा
सकता है। मैं यहां एक प्रश्न पूछता हूं कि क्या आरएसएस के नेतागण हिंदू
राजाओं के द्वारा मंदिर तोड़े जाने खासकर कल्हण की राजतरंगिणी में वर्णित
राजा हर्ष द्वारा मंदिर तोड़े जाने की बात के लिए ‘हिंदुओं से सीधा प्रश्न
करके उत्तर चाहेंगे?’ क्या वे ‘हिंदुओं से बौद्धों एवं जैनों के मंदिर
तोड़े जाने का भी सीधा उत्तर लेने की हिमाकत कर सकते हैं?’ असल में, यह
प्रश्न ही गलत है तथा सांप्रदायिक विद्वेष एवं फासिस्ट मानसिकता से ओतप्रोत
है।
आडवाणी एवं आरएसएस के नेताओं ने
इसी तरह के प्रश्नों को उछाला है और फासिस्ट दृष्टिकोण का प्रचार किया है।
आडवाणी ने कहा था कि वे हिंदू सम्मान को पुनर्स्थापित करने के लिए रथयात्रा
लेकर निकले हैं। 30 सितंबर को मुंबई में उन्हें 101 युवाओं के खून से भरे
कलश भेंट किए गए थे। इन कलशों में बजरंग दल के युवाओं का खून भरा था। यहां
यह पूछा जा सकता है कि ‘युवाओं के खूनी कलश’ क्या सांप्रदायिक सद्भाव के
प्रतीक थे? या सांप्रदायिक एवं फासिस्ट विद्वेष के? आखिर बजरंग दल के
‘मरजीवडों’ को किस लिए तैयार किया गया? क्या उन्होंने राष्ट्रीय एकता में
अवदान किया अथवा राष्ट्रीय सद्भाव में जहर घोला?
आडवाणी एवं अटल बिहारी वाजपेयी ने
जो घोषणाएं ‘राम जन्मस्थान’ की वास्तविक जगह के बारे में की थीं, वह भी
सोचने लायक हैं। अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के 18 मई 1989 के अंक
में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘उस वास्तविक जगह को रेखांकित करना
मुश्किल है, जहां हजारों वर्ष पूर्व राम पैदा हुए थे,’ जबकि इन्हीं
वाजपेयीजी ने 24 सितंबर 1990 को हिंदुस्तान टाइम्स से कहा कि ‘राम का एक ही
जन्मस्थान’ है। यहां सोचा जाना चाहिए कि 18 मई 1989 तक कोई वास्तविक जगह
नहीं थी, वह 24 सितंबर 1990 तक किस तरह और किस आधार पर जन्मस्थान की जगह
खोज ली गई ? इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ‘यह कोई साबित नहीं कर सकता
कि वास्तविक जन्मस्थान की जगह कौन-सी है। पर यह ‘आस्था’ का मामला है जिसको
सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती’ (द इंडिपेंडेंट 1 अक्टूबर 1990) यानी मामला
आस्था का है, वास्तविक सच्चाई से उसका कोई संबंध नहीं है।
आडवाणी ने लगातार यह प्रचार किया
कि बाबर हिंदू विरोधी था, हिंदू देवताओं की मूर्ति तोड़ता था, वगैरह-वगैरह।
इस संदर्भ में स्पष्ट करने के लिए दस्तावेजों में ‘बाबर की वसीयत’ दी है,
जो बाबर के हिंदू विरोधी होने का खंडन करती है। वे तर्क देते हैं कि ‘देश
बाबर और राम में से किसी एक को चुन ले’। आडवाणी के इससे तर्क के बारे में
पहली बात तो यह है कि इसमें से किसी एक को चुनने और छोड़ने का सवाल ही पैदा
नहीं होता। बाबर राजा था, यह इतिहास का हिस्सा है। राम अवतारी पुरूष थे,
वे सांस्कृतिक परंपरा के अंग हैं। अत: इन दोनों में तुलना ही गलत है। दूसरी
बात यह कि हिंदुस्तान के मुसलमानों में आज कोई भी बाबर को अपना नेता नहीं
मानता, आडवाणी स्पष्ट करें कि किस मुस्लिम नेता ने बाबर को अपना नायक कहा
है ? अगर कहा भी है तो क्या उसे देश के सभी मुसलमान अपना ‘नायक’ कहते हैं ?
एक अन्य प्रश्न यह है कि आडवाणी
हिंदुओं को एक ही देवता राम को मानने की बात क्यों उठा रहे हैं? क्या वे
नहीं जानते कि भारतीय देवताओं में तैंतीस करोड़ देवता हैं, चुनना होगा तो
इन सबमें से हिंदू कोई देवता चुनेंगे? सिर्फ एक ही देवता राम को ही क्यों
मानें? आडवाणी कृत इस ‘एकेश्वरवाद’ का फासिज्म के ‘एक नायक’ के सिद्धांत से
गहरा संबंध है।
हाल ही में जब पत्रकारों ने
आडवाणी से पूछा कि वह कोई राष्ट्रीय संगोष्ठी मंदिर की ऐतिहासिकता प्रमाणित
करने के लिए आयोजित क्यों नहीं करते? जिसमें समाजविज्ञान, पुरातत्त्व,
साहित्य आदि के विद्वानों की व्यापकतम हिस्सेदारी हो तो उन्होंने कहा कि
ऐसे सेमीनार तो होते रहे हैं। पत्रकारों ने जब उत्तर मांगा कि कहां हो रहे
हैं? तो आडवाणीजी कन्नी काटने लगे। 16 दिसंबर 1990 के स्टेट्समैन अखबार की
रिपोर्ट के मुताबिक आडवाणी ने कहा कि कुछ महीने पहले मैंने महत्वपूर्ण
दस्तावेजों से युक्त एक पुस्तक जनता के लिए जारी की है जिसे बेल्जियम के
स्कॉलर कोनार्ड इल्स्ट ने लिखा है। नाम है- राम जन्मभूमि वर्सेंज बाबरी
मस्जिद। मैंने इस पुस्तक को कई बार गंभीरता से देखा-पढ़ा एवं आडवाणीजी के
बयानों से मिलाने की कोशिश की तो मुझे जमीन आसमान का अंतर मिला।
आडवाणी इस पुस्तक को महत्वपूर्ण
मानते हैं तथा बाबरी मस्जिद विवाद पर यह पुस्तक उनके पक्ष को पेश भी करती
है, यह उनका बयान है। आइए, हम आडवाणी के दावे और पुस्तक के लेखक के दावे को
देखें।
आडवाणी का मानना है कि राम का
जन्म वहीं हुआ है जहां बाबरी मस्जिद है, राम मंदिर तोड़कर बाबर ने मस्जिद
बनाई, अत: ‘राष्ट्रीय’ सम्मान के लिए मस्जिद की जगह मंदिर बनाया जाना
चाहिए। बेल्यिजम के इस तथाकथित ‘स्कॉलर’ या विद्वान ने अपनी पुस्तक में
बहुत सी बातें ऐसी लिखा हैं, जिनसे असहमत हुआ जा सकता है, यहां मैं समूची
पुस्तक की समीक्षा के लंबे चक्कर में नहीं जा रहा हूं, सिर्फ लेखक का
नजरिया समझाने के लिए एक-दो बातें रख रहा हूं। लेखक ने अपने बारे में कहा
है कि वह ‘कैथोलिक पृष्ठभूमि’ से आता है पर उसने यह नहीं बताया कि आजकल
उसकी पृष्ठभूमि या पक्षधरता क्या है? क्या इस प्रश्न की अनुपस्थिति
महत्वपूर्ण नहीं है?
एक जमाने में आरएसएस के गुरू
गोलवलकर ने बंच ऑफ पॉटस में हिंदुत्व के लिए तीन अंदरूनी खतरों का जिक्र
किया था, ये थे-पहला मुसलमान, दूसरा ईसाई और तीसरा कम्युनिस्ट। क्या यह
संयोग है कि बेल्जियम के विद्वान महाशय ने बाबरी मस्जिद वाली पुस्तक में
लिखा है कि ‘हिंदू विरोधी प्रचारक हैं ईसाई, मुस्लिम और मार्क्सवादी’! क्या
लेखक के दृष्टिकोण में और गोलवलकर के दृष्टिकोण में साम्य नहीं है? क्या
इससे उसकी मौजूदा पृष्ठभूमि का अंदाजा नहीं लगता। खैर, चूंकि आडवाणी इस
विद्वान की पुस्तक का समर्थन कर रहे हैं तो यह तो देखना होगा कि आडवाणी
क्या पुस्तक की बातों का समर्थन करते हुए अपना फैसला बदलेंगे। बेल्जियम के
विद्वान ने प्राचीन मार्गदर्शक अयोध्या माहात्म्य में राम मंदिर का जिक्र
नहीं है- इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए लिखा है कि -’यह बताया जा सकता है,
पहली बात तो
यह कि अयोध्या माहात्म्य से
संभवत: राम मंदिर का नाम लिखने से छूट गया हो, यह तो प्रत्यक्ष ही है। अपने
इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए विद्वान लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है
कि ‘बाबर के किसी आदमी ने जन्मभूमि मंदिर’ नहीं तोड़ा। सवाल उठता है क्या
आडवाणी अपने फैसले को वापस लेने को तैयार हैं? क्योंकि उनके द्वारा जारी
पुस्तक उनके तर्क का समर्थन नहीं करती। इस पुस्तक में साफ तौर पर
विश्व हिंदू परिषद् के तर्कों से
उस सिद्धांत की धज्जियां उड़ जाती हैं कि राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद
बनाई गई थी। चूंकि, आडवाणी इस पुस्तक पर भरोसा करते हैं, अत: वे इसके
तथ्यों से भाग नहीं सकते। आडवाणी का मानना है कि बाबरी मस्जिद में 1936 से
नमाज नहीं पढ़ी गई, बेल्जियम का विद्वान इस धारणा का भी खंडन करता है और
कहता है कि ‘हो सकता है, नियमित नमाज न पढ़ी जाती हो, यदा-कदा पढ़ी जाती
हो, पर 1936 से नमाज जरूर पढ़ी जाती थी।’ एक अन्य प्रश्न पर प्रकाश डालते
हुए लेखक ने लिखा है कि ‘यह निश्चित है कि विहिप द्वारा ‘हिंदुत्व’ को
राजनीतिक चेतना में रूपांतरित करने की कोशिश की जा रही है, उसे इसमें
पर्याप्त सफलता भी मिली है। यह भी तय है कि राम जन्मभूमि का प्रचार अभियान
इस लक्ष्य में सबसे प्रभावी औजार है, ‘विहिप’ अपने को सही साबित कर पाएगी:
यह भविष्य तय करेगा, पर उसने कोई गलती नहीं की। हम हिंदू राष्ट्र बनाएंगे
और इसकी शुरूआत 9 नवंबर 1989 से हो चुकी है।’ यानी कि आडवाणी के द्वारा
बतलाए विद्वान महाशय का यह मानना है कि यह सिर्फ राम मंदिर बनाने का मसला
नहीं है, बल्कि यह हिंदू राष्ट्र निर्माण की कोशिश का सचेत प्रयास है। क्या
यह मानें कि आडवाणी अब इस पुस्तक से अपना संबंध विच्छेद करेंगे? या फिर
बेल्जियम के विद्वान की मान्यताओं के आधार पर अपनी नीति बदलेंगे। असल में,
बेल्जियम के लेखक की अनैतिहासिक एवं सांप्रदायिक दृष्टि होने के बावजूद
बाबरी मस्जिद बनाने संबंधी धारणाएं विहिप एवं आडवाणी के लिए गले की हड्डी
साबित हुई हैं। वह उस प्रचार की भी पोल खोलता है कि विहिप एवं भाजपा तो
सिर्फ राम मंदिर बनाने के लिए संघर्ष कर रहें हैं। यह वह बिंदु है जहां पर
आडवाणी अपने ही बताए विद्वान के कठघरे में खड़े हैं।
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं)
Share This :
0 comments:
Post a Comment