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Sunday, May 29, 2016

श्रीशैल, श्रीमल्लिकार्जुन, श्रीशैलम (श्री सैलम ) की यात्रा

(29 April 2016- Friday) भगवान तिरुपति के दर्शन से जीवन सफल हुवा.. माता जी भी प्रस्सन थी, तिरुपति की पहाडियों से उतर कर तिरुपति के श्री निवास बस स्टैंड से श्री सैलम के लिए बस पकडनी थी, लेकिन जानकारी तो कुछ थी नहीं की वहां देखने के लिये क्या क्या है,रुकने की क्या व्यवस्था है, रास्ते में अगर देखने लायक कोई जगह है तो उसके लिये कहां उतरना है …बोले तो कोई जानकारी नही थी। हालांकि इस तरह कही जाने का अपना अलग मजा है। आप झोला उठाइये और जिधर मन आये चल दीजिये। यह सोंचकर, कि जो होगा वो देखा जायेगा। हमारी जिप तिरुपति शहर में पहुच चुकी थी, निवेदन किया की भाई बस स्टैंड तक छोड़ दो, जो पैसे हो ले लेना, तो जिप वाले ने बस स्टैंड के थोडा पहले उतर दिया, हमने भी २५०/- दो लोगो का भुगतान कर दिया, जिप से उतर, सामान लाद चल दिए बस स्टैंड की तरफ, तभी माता श्री को नारियल पानी पिने का मन किया, बस
सामान वही रख माता जी को नारियल पानी दिला, बोला अम्मा आप १० मिनट यही रुकिए, मै बस का पता लगा के आता हु, बस आगे ही एक चाय की दुकान दिखी,तो पहले 1 सिगरेट सुलगाया,
क्यों की तिरुपति में इसकी मनाही है, फिर एक रजनीगंधा जमा कर, पान वाले से पूरी जानकारी ली, आगे ही बस स्टैंड था, तो वहा पहुच बस की जानकारी ली, एक बस तुरंत जाने वाली थी,
लेकिन ६.३० की आखिरी बस थी, उस रोड के लिए बस नॉन AC ही है, लेकिन डीलक्स स्टाइल की, SUPER LUXURY(NON-AC, 2 + 2 PUSH BACK) आप यहाँ खोज सकते है बस के बारे में  अपने उत्तर प्रदेश के झारखंडी बसों से बेहतर, बस स्टैंड भी एक बेहतर मिसाल, एक दम साफ सुथरा, बैठने के लिए आराम दायक कुर्सिया, कुल मिला जुला के हमारे बनारस से बेहतर, वापस आ कर सामान ले माता जी के साथ पुनः बस स्टैंड पर, बस लगी थी सामने ही, तो बस कंडक्टर से समझ कर आगे की ही पर विराजमान हो लिए, तिरुपति से श्री शैलम की दुरी ४८६ किलो मीटर जो सुबह करीब 7 बजे पहुचती है, मतलब ११ घंटे की यात्रा, वाया via NH16 के रस्ते से, हाला की तिरुपति से कुर्नुल तक ट्रेन से, सभी ट्रेन रात के २ बजे के ही आस पास पहुचती है, आगे बस से जा सकते है, चुकी अंजन सहर तो बस की ही यात्रा ठीक लगी, ४ बोतल ठंडा पानी ले बस में बैठ गए, ठीक ६.३० पर बस खुल गयी, बस चल दी, बस भी पूरी भर चुकी थी , करीब ९ बजे एक बस स्टैंड पर रुकी, चुकी वहा सब कुछ तेलगु में ही लिखा था, इस लिए बस स्टैंड का नाम नाही समझ में आया, वहा माँ के लिए एक चिल्ड आम वाला माजा और अपने लिए फ्रायम ... माँ को भी जबरजस्ती खिलाया फ्रायम, अपने भी पिया माजा, driver ने बताया की खाना खाने के लिए निल्लोर रोकेगा, करीब १० बजे, एक दम शार्प १० बजे निल्लोर बस स्टैंड, वहा बेहतरीन रेस्टुरेंट, जहा माँ के हिसाब का खाना बिना प्याज लहसुन वाला, दबाया पराठा सब्जी, १५ मिनट के विश्राम के बाद बस चल दी श्री सैलम की तरफ, वहा से बस खाली हो चुकी थी कुल मिला १०-१२ लोग नींद नहीं आ रही थी तो लगे गूगल करने श्री शैलम के बारे में .. 



अब थोडा श्रीसैलम के बारे में। हिन्दुस्तान में बारह ज्योतिर्लिंग हैं जिनमे से एक श्रीशैल, श्रीमल्लिकार्जुन, श्रीशैलम (श्री सैलम) में है। शिवजी के स्वरूप को यहाँ श्री मल्लिकार्जुन स्वामी कहा जाता है। साथ ही यहां शक्तिपीठ भी है जहाँ देवी भ्रमरंभा (Bhramaramba) की उपासना की जाती है। इस लिहाज से यह भारत का एक मात्र तीर्थ स्थल है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ एक ही स्थान पर है। 

 

श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिग स्थापना कथा 

कथा के अनुसार भगवान शंकर के दोनों पुत्रों में आपस में इस बात पर विवाद उत्पन्न हो गया कि पहले किसका विवाह होगा. जब श्री गणेश और श्री कार्तिकेय जब विवाद में किसी हल पर नहीं पहुंच पायें तो दोनोंअपना- अपना मत लेकर भगवान शंकर और माता पार्वती के पास गए. अपने दोनों पुत्रों को इस प्रकार लडता देख, पहले माता-पिता ने दोनों को समझाने की कोशिश की. परन्तु जब वे किसी भी प्रकार से गणेश और कार्तिकेयन को समझाने में सफल नहीं हुए, तो उन्होने दोनों के समान एक शर्त रखी. दोनों से कहा कि आप दोनों में से जो भी पृ्थ्वी का पूरा चक्कर सबसे पहले लगाने में सफल रहेगा. उसी का सबसे पहले विवाह कर दिया जायेगा. विवाह की यह शर्त सुनकर दोनों को बहुत प्रसन्नता हुई. कार्तिकेयन का वाहन क्योकि मयूर है, इसलिए वे तो शीघ्र ही अपने वाहन पर सवार होकर इस कार्य को पूरा करने के लिए चल दिए. परन्तु समस्या श्री गणेश के सामने आईं, उनका वाहन मूषक है., और मूषक मन्द गति जीव है. अपने वाहन की गति का विचार आते ही श्री गणेश समझ गये कि वे इस प्रतियोगिता में इस वाहन से नहीं जीत सकते. श्री गणेश है. चतुर बुद्धि, तभी तो उन्हें बुद्धि का देव स्थान प्राप्त है, बस उन्होने क्या किया, उन्होनें प्रतियोगिता जीतने का एक मध्य मार्ग निकाला और, शास्त्रों का अनुशरण करते हुए, अपने माता-पिता की प्रदक्षिणा करनी प्रारम्भ कर दी. शास्त्रों के अनुसार माता-पिता भी पृ्थ्वी के समान होते है. माता-पिता उनकी बुद्धि की चतुरता को समझ गये़. और उन्होने भी श्री गणेश को कामना पूरी होने का आशिर्वाद दे दिया. शर्त के अनुसार श्री गणेश का विवाह सिद्धि और रिद्धि दोनों कन्याओं से कर दिया गया. पृ्थ्वी की प्रदक्षिणा कर जब कार्तिकेयन वापस लौटे तो उन्होने देखा कि श्री गणेश का विवाह तो हो चुका है. और वे शर्त हार गये है. श्री गणेश की बुद्धिमानी से कार्तिकेयन नाराज होकर श्री शैल पर्वत पर चले गये़ श्री शैल पर माता पार्वती पुत्र कार्तिकेयन को समझाने के लिए गई. और भगवान शंकर भी यहां ज्योतिर्लिंग के रुप में अपनी पुत्र से आग्रह करने के लिए पहुंच गयें. उसी समय से श्री शैल पर्वत पर मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग की स्थापना हुई, और इस पर्वत पर शिव का पूजन करना पुन्यकारी हो गया. 


श्री मल्लिकार्जुन मंदिर निर्माण कथा 
इस पौराणिक कथा के अलावा भी श्री मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग के संबन्ध में एक किवदंती भी प्रसिद्ध है. किवदंती के अनुसार एक समय की बात है, श्री शैल पर्वत के निकट एक राजा था. जिसकानाम चन्द्रगुप्त था. उस राजा की एक कन्या थी. वह कन्या अपनी किसी मनोकामना की पूर्ति हेतू महलों को छोडकर श्री शैलपर्वत पर स्थित एक आश्रम में रह रही थी. उस कन्या के पास एक सुन्दर गाय थी. प्रतिरात्री जब कन्या सो जाती थी. तो उसकी गाय का दूध को दुह कर ले जाता था. एक रात्रि कन्या सोई नहीं और जागकर चोर को पकडने का प्रयास करने लगी. रात्रि हुई चोर आया, कन्या चोर को पकडने के लिए उसके पीछे भागी परन्तु कुछ दूरी पर जाने पर उसेकेवल वहा शिवलिंग ही मिला. कन्या ने उसी समय उस शिवलिंग पर श्री मल्लिकार्जुन मंदिर का निर्माण कार्य कराया. प्रत्येक वर्ष यहां शिवरात्रि के अवसर पर एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है. वही स्थान आज श्री मल्लिका अर्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है. इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने से भक्तों की इच्छा की पूर्ति होती है. और वह व्यक्ति इस लोक में सभी भोग भोगकर, अन्य लोक में भी श्री विष्णु धाम में जाता है. आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा ज़िले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं। इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं। श्रीशैलम (श्री सैलम नाम से भी जाना जाता है) नामक ज्योतिर्लिंग आंध्रप्रदेश के पश्चिमी भाग में कुर्नूल जिले के नल्लामल्ला जंगलों के मध्य श्री सैलम पहाड़ी पर स्थित है| यहां शिव की आराधना मल्लिकार्जुन नाम से की जाती है| मंदिर का गर्भगृह बहुत छोटा है और एक समय में अधिक लोग नहीं जा सकते| शिवपुराण के अनुसार भगवान कार्तिकेय को मनाने में असमर्थ रहने पर भगवान शिव पार्वती समेत यहां विराजमान हुए थे। अनेक धर्मग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गई है। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैं, उसे अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। इस आशय का वर्णन शिव महापुराण के कोटिरुद्र संहिता के पन्द्रहवे अध्याय में उपलब्ध होता है।− 
तदिद्नं हि समारभ्य मल्लिकार्जुन सम्भवम्। लिंगं चैव शिवस्यैकं प्रसिद्धं भुवनत्रये।। तल्लिंग यः समीक्षते स सवैः किल्बिषैरपि। मुच्यते नात्र सन्देहः सर्वान्कामानवाप्नुयात्।। दुःखं च दूरतो याति सुखमात्यंतिकं लभेत। जननीगर्भसम्भूत कष्टं नाप्नोति वै पुनः।। धनधान्यसमृद्धिश्च प्रतिष्ठाऽऽरोग्यमेव च। अभीष्टफलसिद्धिश्च जायते नात्र संशयः।। 
विशेष मान्यता : * शिवपुराण के अनुसार अमावस्या के दिन भगवान भोलेनाथ स्वयं यहां आते हैं और पूर्णिमा के दिन यहां उमादेवी पधारती हैं। 

 * मल्लिका का अर्थ पार्वती और अर्जुन शब्द भगवान शिव का वाचक है।

(30 April 2016- Saturday) यही सब पड़ते पड़ते कब आख लग गयी पता ही नहीं चला, सुबह ५ बजे नींद खुली तो माँ के कंधे पर सर रख मै आराम से सो रहा था, माँ जाग रही थी बस एक ढाबे पर रुकी थी... काफी बसे वहा रुकी थी , ढाबे पर, पूछने पर पता चला की क्यों की आगे जंगल का गेट बंद रहता है, निचे उतरा तो पूरा रौनक, चुकी बहुत बसे थी तो यात्री भी ज्यादा, बात चित करने के हिसाब से ढाबे पर एक सिगरेट ख़रीदा, और पूछ ताछ की तो पता चला की स्कंद पुराण में श्री शैल काण्ड नाम का अध्याय है। इसमें उपरोक्त मंदिर का वर्णन है। इससे इस मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है। तमिल संतों ने भी प्राचीन काल से ही इसकी स्तुति गायी है। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने जब इस मंदिर की यात्रा की, तब उन्होंने शिवनंद लहरी की रचना की थी। श्री शैलम का सन्दर्भ प्राचीन पुराणों और ग्रंथ महाभारत में भी आता है। काफी दूर दूर से श्रृद्धालू यहां आते हैं जिनमें आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और माहाराष्ट्र से आने वाले श्रृद्धालू प्रमुख हैं। ६ बज चूका था , अब बस चलने वाली थी, वहा से सिर्फ ३५ किलो मीटर, माँ भी जाग ही रही थी... देख रहे थे प्रक्रति के नज़ारे...

बस अब पहाडियों के बीच में दौड़ रही थी, मजा आ रहा था, बस में अब सिर्फ ४-५ यात्री हमारे अलावा, पास में कृष्णा नदी है जो जंगलों और पहाडों के बीच से होकर निकलती है और जिस पर श्रीसैलम के पास में ही एक बांध बनाया गया है। सोचा की अम्मा भी सो ले, इस लिए सिट छोड़ बगल की सिट पर बैठ गया, एक तेलगु भाई जो शायद वही के लोकल थे लेकिन इंग्लिश में बात कर रहे थे तो मै उनके बगल में बैठ गया उनके हिसाब से करीब १२५ किलोमीटर का रास्ता साधारण है लेकिन एक बार आप पहाडी और जंगल का रास्ता शुरू होने के बाद रास्ता देखते ही बनता है। करीब ८०-१०० किलोमीटर का यह रास्ता अत्यंत सुन्दर है। बीच में सडक से थोडा अन्दर जाकर देखने के लिये कुछ जगहे हैं, मसल एक झरना और जंगल के बीच ट्रेकिंग का रास्ता लेकिन खुद का वाहन ना होने की वजह से इन सब जगहों पर रुकना और देखना संभव न हो सका। जाने का समय भी शायद बरसात और उसकी बाद का बेहतर होगा जब जंगल पूरे शबाब पर होता होगा। करीब ५० किलोमीटर पहले से बांध क्षेत्र शुरू हो जाता है और नजारों की नजाकत बढती जाती है। पहाडी के बीच से नदी निकल रही है और यहीं बांध बनाया हुआ है। बस पहाडी के एक तरफ से ढलान से नीचे उतरना शुरू होती है और जगह जगह पर मोड आते हैं जहां बांध आपसे आंख मिचौली करता रहता है। बस में होने के कारण सिर्फ खिडकी में से ही नजारे देख सके और फोटो लिये गये..अन्यथा थोडा समय बिताने के लिये अच्छी जगह है। पहाडी के एक तरफसे उतर कर एक छोटे (बांध की तुलना में छोटे) पुल को पार करके फिर पूरी घांटी चढनी होती है। इसके बाद श्रीसैलम ज्यादा दूर नही रह जाता।

लेकिन माँ कहा सोने वाली, मै जो साथ में था, उनके लिए आज भी मै छोटा बच्चा हु, मोबाईल की बैट्री ख़तम हो रही थी तो पावर बैंक लगा लिया, तभी तेलगु मित्र ने मेरे मोबाइल के बारे में पूछा, कुछ तेलगु में, मुझे समझ में तो नहीं आया मैंने बोल दिया मोबाइल चार्ज, उसने फटाक जवाब दिया, " पावर बैंका...... "
 मैंने भी सहमती में सर हिला दिया करीब 7 बजे सुबह लगा की श्रीशैल, श्रीमल्लिकार्जुन, श्रीशैलम (श्री सैलम ) अब नजदीक ही है .... बस आगे ही श्री शैलम के लिए पार्किंग का बोर्ड दिखा... समझ गए अब मंजिल करीब है है , लेकिन बस तो आगे बड गयी, एक चौराहा, वहा बड़ी बड़ी मूर्ति, देवी देवताओ के, बस चल रही थी, शायद अब श्री सैलम का बाजार था, श्रीशैलम मल्लिकार्जुन मन्दिर पहुँचने से पहले सभी बसे मुख्य मार्ग से हटकर बने एक नगर से होकर वापिस आती है। लेफ्ट राईट करते बस अपने स्टैंड पर पहुच ही गयी, बस एक दम श्री सैल मंदिर के सामने ही उतारती है, सामान ले उतरे माता जी के साथ घडी में 7.३० हो चुके थे, चुकी बस से ४ यात्री ही उतरे थे, बस से बाहर आते ही वहाँ का माहौल देखकर समझ आने लगा कि यह वीराना सा दिखायी देने वाला कस्बा ज्यादा भीड़भाड़ लिये हुए नहीं है, अपने बनारस की तरह ऑटो वाले भीड़ भी नहीं लगाते, सामान निचे रख पास के एक ऑटो वाले से पूछा, भाई होटल मिलेगा, आस पास कही, वो हिंदी कम ही समझता था, लेकिन होटल के नाम पर तुरंत बोला, मिलेगा, " हाउ मच रेंट " ... उसने क्या बोला समझ में नाही आया, सामान रख बैठ गए उसके ऑटो में, हम जिस रस्ते से आये थे बस से, वो उसी रस्ते पर अपनी ऑटो ले जा रहा था, हर तरफ छोटी छोटी बैरकेटिंग, साफ सुथरी सड़क, ४ मिनट के बद ही एक बिल्डिंग के पास ला के रोक दिया, बोला होटल... उतर के अन्दर गए, रूम के बारे में पूछा, AC रूम का १००० रुपया , रूम भी फस क्लास , टेम्पू वाले को ४० रूपये दे कर बिदा किया, तब टेम्पू वाले ने बताया की यहाँ से मन्दिर की पैदल दूरी सबसे नजदीक रहती है।और अगर आप को साइड सीन करना हो तो मुझे फ़ोन कीजिये, मै करा दुगा, रेट पूछा तो रिजर्व में ५००.०० समय २ घंटा.. ठीक है भाई.. शाम को चलेगे, एंट्री कर सामान ले माता जी के साथ कमरे में पहुचे, वेटर ने चाय के लिए पूछा, तो २ चाय बिना चीनी की , वहा रूम सर्विस नाही थी, तो सब कुछ बाहर से ही .. मै भी बाहर निकला देखने के लिए क्या है आस पास, निचे चाय की दुकान थी वही एक चाय जमाई, वहा सिगरेट पीना मना है खुले आम, जर्दा, मसाला, खैनी भी नहीं मिलता, रजनी गंधा की खोज में चारो तरफ का चक्कर लगाया, सब रस्ते समझ में आ गए बाजार भी देख लिया, रजनीगंधा तो मिला, लेकिन तुलसी नहीं तो पान वाला जर्दा एक जगह दिखा वही पैक करा रूम में वापस, माता जी नहा के पूजा में ब्यस्त, हमने भी फटा फट नहाया शनिवार का दिन तो शेविंग न हो पाया, १० बज चूका था तैयार हो निकले दर्शन के लिए... 

बस होटल से कुछ दुरी पर मंदिर की दिवार दिखने लगी मन्दिर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने जूते व बैग रखने का स्थान बनाया गया है, मंदिर के अन्दर मोबाइल और बेग ले जाना मना है सबसे पहले मैंने चप्पल जमा कराये जिसकी मन्दिर की ओर से मात्र ५ रुपये की फ़ीस वसूल की जाती है। इसके बाद मोबाइल जमा कराये जिनकी फ़ीस १० रुपये प्रति मोबाइल/कैमरा है। बाहर की कुछ बच्चे और औरते माला फुल और प्रसाद बेच रहे थे जो हिंदी भी बोल रहे थे माँ के आदेशानुसार मैंने ले लिया पूजा सामग्री अब मुझे माता जी को लेकर मन्दिर में प्रवेश करने के लिये अन्दर जाना था। एक लाइन दिखी जो निशुल्क थी लेकिन वहा के लोकल लोगो की भीड़.. आगे की एक टिकट काउंटर दिखा जहा विशेष पूजन के रेट लिखे हुवे थे इसलिये मैंने सोचा शीघ्र दर्शन के लिये दो सौ रुपये का शुल्क दे ही दे यहाँ शीघ्र दर्शन की व्यवस्था के लिये २०० की विशेष परची काटी जाती है, जबकि साधारण/आम पंक्ति में लगने का कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। पर्ची गेट के अंदर ही मिलती है तो माता जी को ले प्रवेश कर गये अन्दर मन्दिर के इस रस्ते में प्रवेश करते समय मुझे कही भी लाईन नहीं दिखायी दे रही थी, आगे टिकट भी मिल गया तो चल पड़े जैसे-जैसे हम आगे बड़ते जा रहे थे हमें लगने लगा कि हम किसी भूल भूलैया में घुस गए है मंदिर के अंदर पहुँच कर ऐसा लगा कि आधा लडाई फतह हो गई है। पर यहां अन्दर जाकर कहां जाना है यह कोई जानकारी नही थी। यहाँ टेड़ी-मेड़ी पाइपों से घूमाते हुए लगभग एक ८०० मीटर चले होगे तब जाकर एक खुली सी जगह आयी जहाँ जाकर मन्दिर में प्रवेश करना होता है। 

इस मंदिर का प्रागंण विशाल है परन्तु गर्भ ग्रह बहुत छोटा है । इस ज्योतिर्लिग के दर्शन के समय केवल दूर से ही दर्शन करना होता है जलाभिषेक आदि की अनुमति नही है । कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र मे स्नान-दान से, नर्वदा नदी के तट पर तप करने से तथा काशी मे अधिक समय रहने से जो पुण्य प्राप्त होता है, उतना महापुण्य श्री शैल मल्लिकार्जुन के दर्शन मात्र से मिल जाता है । श्री शैल की महानता का वर्णन स्कंद पुराण मे किया गया है तथा किसी भी प्रांत मे जब भी पूजा या व्रत आरंभ किया जाता है, श्रीशैल का नाम लिया जाता है—- श्री शैलस्य ईसान्य प्रदेशे……. या श्रीशैलस्य उत्तर दिग्भागे……तथा संकल्प कराया जाता है। इस मंदिर की कला तथा वास्तु मे चौल, चालुक्य, पल्लवो तथा विजयनगर के समय की कला के दर्शन होते है। शिवाजी महाराज ने, जिन्होने हिंदू साम्राज्य की स्थापना की थी, सन १६७४ मे अपने शत्रुओ की परवाह न करते हुए श्री शैल के न केवल दर्शन किए वरन एक स्तंभ का निर्माण भी कराया, जो आजभी है। इस मंदिर के रक्षा के लिये भी उन्होने थोडे मराठे सैनिक छोड रखे थे, जिन्होने रोहिल्लो से युद्ध करते हुए अपना बलिदान किया । यहाँ आगे बढ़ने पर मुख्य भवन से ठीक पहले एक जगह जहाँ नन्दी की मूर्ति लगायी गयी है, नन्दी के ठीक मुँह के सामने एक पुजारी जी बैठे थे जो भक्तों के नारियल फ़ोड़ रहे थे लेकिन वह आदत से एकदम बनारसी वो हर नारियल को फ़ोड़ने के बदले १० रुपये वसूली कर रहे थे उनके उनके इस आदत को देख सोंचा कि राम जी की मरजी राम जी का खेत। भगवान का घर है..यहां हम क्या कर सकते हैं। यहाँ से लाइन बहुत ही धीरे चल रही थी इसलिये अधिकतर भक्तो ने उनकी कारिस्तानी देखने में पूरा आनन्द उठाया। हमने माता जी के हाथ से नारियल दिलवा कर 100  का नोट भी दिखा दिया तो पंडित जी मस्त पूरा टिका चन्दन लगा के आशीर्वाद दिया 

आखिरकार लाइन धीरे-धीर बढ़ती हुए उस स्थान तक पहुँच ही गयी वहा फ्री वालो के लाइन के आगे से एक लाइन और थे जो किनारे सी एक दम पास जहाँ से हमें श्रीशैल शिवलिंग के दर्शन करने होते है। अन्दर पंखे और AC की ब्यवस्था के कारण ज्यादा दिक्कत नहीं हुई माता जी ने काशी का गंगा जल निकाल लिया तो मैंने उसपर ५००/- का एक नोट रख दिया और अपने हाथ में 100-100 के ५ नोट रख लिए ताकि वहा के पंडित जी लोगो दिखे... बस पहले भगवान गणेश के दर्शन फिर कार्तिकेय जी के दर्शन, फिर आगे पुल जैसे एक लकड़ी की सीडी पर चढ़ एक दम शिव लिंग के सामने, माता जी के हाथ में ५०० का नोट देख एक पंडित जी कूदे .. जलाभिषेक... माँ ने कहा काशी का जल है.. वाह.. २-२ पंडित जी बोतल लुटने.. लेकिन अन्दर बाबा का श्रृगार हो रहा था फिर भी ५०० के नोट की ताकत चढ़ गया जल.. अब मेरे हाथ 100 -100 का नोट देख... प्रसाद / बाबा का बेलपत्र और जल के साथ चन्दन भी मिल गया ये हा माँ लक्ष्मी की ताकत.. बाकि भक्तो को मूर्ति/शिवलिंग देखने के लिये मुश्किल से 3/4 सैंकिन्ड़ का समय मिलता है। लेकिन १००० रूपये में करीब ४ मिनट बाबा के सामने .. शिवलिंग के दर्शन करने के बाद हमने बाहर का रुख किया। अमूमन हिन्दू धर्म में भारत में लिंग पूजा का सम्बन्ध भगवान शिव से है। शिवलिंग जिस "पीठिका" पर स्थापित किया जाता है, वह स्त्री "योनि" का प्रतीक होता है। इस प्रकार से "अर्धनारीश्वर" के प्रतीक के रूप में भी लिंगार्चन किया जाता है लेकिन ज्योतिर्लिंग श्रीशैल्मल्लिकार्जुन की पीठिका चौकोण है,जबकी यह अमूमन गोल ही होती है।.. समझ में नहीं आया कुछ माजरा...  सोचा कुछ पूछ ताछ करू.. लेकिन धर्म का मामला माता जी धकिया के बाहर ले चली निकल लिए बाहर ..मुख्य भवन से बाहर आकर मन्दिर परिसर में टहलते हुए मन्दिर की वास्तु निर्माण कला को काफ़ी नजदीक से देखा था। मन्दिर देखने में ही सैकड़ों वर्ष पुराना दिख रहा था। आगे भी छोटे बड़े भगवन बिराजमान थे जहा पंडित लोग दक्षिणा ले आशीर्वाद दे रहे थे यह स्थान न केवल ज्योतिर्लिंग का स्थल है बल्कि १८ महाशक्ति स्थलों में से एक भी माना जाता है.यहाँ स्वामी मल्लिकार्जुन के साथ देवी भ्रमरअम्बा विराजमान हैं. इस क्षेत्र में शक्ति पीठ और ज्योतिर्लिंग एक साथ होने के कारण सदियों से इसकी अत्यधिक धार्मिक महत्ता है हमने भी माँ भ्रमरअम्बा देवी के दर्शन किये, बहुत लोग मंदिर के बीचो बिच बैठ कर वहा के पंडित जी लोगो से अनुष्ठान करवा रहे थे देवी पारवती ने एक भ्रमर के रूप में शिव की अराधना की थी इसलिए उनके स्थापित रूप का नाम भ्रमराम्बा पड़ा. 

ऐसा कहा जाता है कि अमावस्या के दिन भगवान शिव व पूर्णिमा के दिन माता पार्वती आज भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में वास करने आते हैं! यह स्थान कितना पुराना है और इनके उदभव की कहानी किसी को ज्ञात नहीं है.पहली सदी के प्राप्त लिखित साक्ष्यों से श्रीशैल पर्वत के होने का ज्ञान होता है.कई राजाओं ने समय- समय पर इस स्थल की पूजा अर्चना की और इस की देखभाल में अपना धन लगाया.मल्लिकार्जुन स्वामी के भक्तों में एक नाम छत्रपति महाराज शिवाजी का भी है.उन्होंने सन १६६७ में इस के उत्तर में गोपुरम बनवाया था. दीवार से घिरे इस परिसर में कई अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भी हैं। इनमें सहस्रलिंग और नटराज प्रमुख हैं। भ्रमरांबा शक्तिपीठ के निकट ही लोपामुद्रा की एक प्रतिमा भी है। महर्षि अगस्त्य की धर्मपत्नी लोपामुद्रा प्राचीन भारत की प्रमुख दार्शनिकों में गिनी जाती हैं। इस परिसर में प्राचीनतम अस्तित्व वृद्ध मल्लिकार्जुन शिवलिंग है। पुराविज्ञानियों का अनुमान है कि यह संभवत: अर्जुनवृक्ष् ा का जीवाश्म है, जो 70-80 हजार साल पुराना है। इसीलिए इसे वृद्ध मल्लिकार्जुन कहते हैं। मंदिर में प्रवेश से पूर्व एक मंडप है। इसके बाद चारों तरफ ऊंचे मंडप हैं। यह स्थापत्य की विजयनगर शैली है। वस्तुत: वर्तमान रूप में इसका निर्माण विजयनगर के सम्राट हरिहर राय ने कराया था। बाद में रेड्डी राजाओं ने भी इसमें महत्वपूर्ण योगदान किया और उत्तरी गोपुरम का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने कराया। हालांकि यहां इस मंदिर के अस्तित्व के प्रमाण दूसरी शताब्दी ईस्वी से ही उपलब्ध हैं। चारों तरफ से छह मीटर ऊंची किले जैसी दीवार से घिरे इस परिसर में कई अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भी हैं। इनमें सहस्रलिंग और नटराज प्रमुख हैं। भ्रमरांबा शक्तिपीठ के निकट ही लोपामुद्रा की एक प्रतिमा भी है। महर्षि अगस्त्य की धर्मपत्नी लोपामुद्रा प्राचीन भारत की प्रमुख दार्शनिकों में गिनी जाती हैं। कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने श्री मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शनोपरांत ही शिवानंद लहरी की रचना की थी। मंदिर की चहारदीवारी पर जगह-जगह रामायण और महाभारत की कथाएं उत्कीर्ण हैं। 

वहा से आगे निकले ही प्रसाद वितरण तिरुपति स्टाइल में तो हमने भी प्रसाद ग्रहण किया और मंदिर के अन्दर कला कृतियों के देखा सत्यानाश हो उन ससुरों का, जिनके कारण मन्दिर में कैमरे ले जाना मना है, नहीं तो आपको मन्दिर के अन्दर के फ़ोटो भी जरुर दिखाता। अब बाहर का रास्ता दिखा तो माँ को ले कर निकल लिए बाहर वहा भी प्रसाद वितरण हो रहा था तो क्यों चुके ये समय फिर लिया प्रसाद और खाते खाते, निकल गए बाहर, प्यास जोरो की लगी थी तो सामने नीबू पानी वाला दिखा तो २ सोडा का आदेश दिया गर्मी पूरी थी पैर जल रहे थे तभी कुछ औरते गाय रखी थे और उनके लिए प्लेन दोसे जैसे रोटी बेच रही थी.. बाबू गाय को रोटी खिला दो... १० रूपये का एक रोटी, तो ५ रोटी खरीदते ही ३-४ गाय पास आ गए खाने... ये भी शायद सेल्स स्किल ही है.. रहा। मन्दिर की चारदीवारी के बाहर भिखारी लाइन लगाकर बैठे थे। मन्दिर में व मन्दिर के आसपास तीन तरह के भिखारी मिलते है, एक जो लोगों से मन्दिर के बाहर माँगते है इन्हें भक्त एक दो रुपये में ही टरका देते है। दूसरे जो मन्दिर के अन्दर भगवान का खौफ़ दिखा जबरन माँगते है। तीसरे वे होते है खुद मन्दिर में माँगने जाते है इनके बिना पहले वाले भिखारी का अस्तित्व ही नहीं है। सब मँगते है किसी को क्या दोष दे? मंदिर के पीछे प्रसाद वितरण काउंटर थे जहाँ से ५० के ५ लड्डू खरीदे और स्वयं 1 भोग लगाया। बहुत स्वादिष्ट।माता जी ने १० लड्डू खरीदने के लिए आदेशित किया जिसे पूरा किया अब मन्दिर से बाहर आकर मन्दिर की चारदीवारी का एक चक्कर लगाने के इरादे से चलना आरम्भ कर दिया। लेकिन पता चला की चप्पल स्टैंड तो बहुत आगे है.. यहाँ से ऑटो से जाना पड़ेगा मन्दिर का आयताकार चारदीवारी का चारों ओर से पूरा एक चक्कर लगाना एक सपना क्यों की जमीं ताप रही थी ,बस एक ऑटो दिखा बस उसी में सवार... उसने स्टैंड के पास छोड़ दिया चप्पल और मोबाइल लिया... अब लगे हाथ मंदिर का टाइम भी समझ लिया मंदिर सुबह 4.30 बजे मंदिर खुलता है। पांच बजे से आम जनता के दर्शन शुरू होते हैं। आखिरी दर्शन रात 10 बजे तक किया जा सकता है। यहां शिव का निःशुल्क दर्शन सुबह 6 बजे से दोपहर साढ़े तीन बजे तक दुबारा शाम 6 बजे से रात्रि 10 बजे तक किया जा सकता है। 1 बज चूका था, भूख भी जबरजस्त तो माता जी को ले होटल वापस पूजा प्रसाद सब रख चल दिए भोजन देखने, आन्ध्रप्रदेश पर्यटन विभाग का रेस्तराँ है जहाँ अच्छा भोजन मिलता है। इसके अलावा खाने की और कोई जगह नहीं है। लेकिन एक साऊथ इंडियन रेस्टुरेंट में घुसे जहा डोसा और इडली दबाया फिर माँ ने कहा गर्मी बहुत है चल वापस होटल.. मुह बना वापस जाना पड़ा रूम में.. AC चला बिस्तर पकड़ लिया सोचा २ घंटे सो लिया जाये 

लेकिन नींद नहीं आ रही थी बस कब ४ बजे और निकले साइड सीन के लिए ४ बजा तो ऑटो वाले को फोन किया.. आ जा भाई... वो भी कही आस पास था तो १० मिनट में आ गया तो माता जी को ले बिराज... वो भी उसी रूट पर चल रहा था जिस रस्ते से हम अन्दर आये थे .. एक किलोमीटर में ही सबसे पहले हमें हमें साक्षी गणपति, जी के दर्शन करवाया.. श्रीशैलम में मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन के बाद लोग कहते हैं कि यह जरूरी है कि श्रीशैलम छोडने से पहले आप साक्षी गणपति के दर्शन जरूर करें। इसके बिना मल्लिकार्जुन स्वामी का आशीर्वाद नहीं मिलता। साक्षी गणपति का मंदिर श्रीशैलम मुख्य मंदिर से दो किलोमीटर पहले शहर के प्रवेश द्वार पर ही है। लिहाजा हम भी साक्षी गणपति का आशीर्वाद लेने के लिए रूके। मै तो बाहर फोटो लेता रहा माता जी गयी पूजन करने १० मिनट के बाद हम उसके बाद गये एक अन्य स्थल पर, जिसका नाम नही पता चला। वहां काफी नीचे सीढियां जाती थीं और नीचे पहाड में से पानी निकल रहा था। लोकेशन एक छोटे मोटे झरने जैसी ही थी,एक बार तो निचे उपर करने के लिए सोचना पड़ा.. लेकिन प्रभु का नाम ले कर निचे उतर गए एक पाइप से पानी गिरा कर झरने का  स्वरूप दिया गया था और साथ में एक मंदिर जहा पुजारी जी १० -१० रुपये ले क्र आरती करा रहे थे शायद बरसात में आते तो नजारा कुछ और होता। यहाँ खत्म करके पूंछा अब कहां..तो बोले शिखरम। श्रीशैलम से 8 किमी दूर स्थित शिखरम समुद्रतल से २८३० फुट की ऊंचाई पर है। यह इस पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी बताई जाती है। यहाँ सबसे ऊपर नंदी की मूर्ति स्थित है। और वहां से श्रीसैलम कस्बा और मुख्य मंदिर भी नजर आता है।मंदिर में चड़ने के समय कुछ लोग काला तिल बेच रहे थे... हमने भी 1 पैकेट ले लिए जो नंदी के उपर डाल कर दोनों सींगों के बीच में से मंदिर को देखने की परंपरा है, शुभ माना जाता है। लोग देख रहे थे और हम लोगों को देख रहे थे। हमारा भी नंबर आया अब यहाँ के पुजारी के कहने पर हमने पुड़िया खोली उसमें से काली तिल के दाने निकले जिसे नन्दी पर चढाया फिर नन्दी के दोनों सिंगों पर ऊँगलियाँ रखकर बीच से मन्दिर का शिखर देखा। नन्दी की स्थापना ऐसी की शिखर नज़र आने लगा। इसीलिए श्रीशैलम को दक्षिण का कैलाश कहा जाता है।तो हमने भी तिल डाल कर पुण्य कमाया स्कंद पुराण के अनुसार इसके शिखर के दर्शनमात्र से मल्लिकार्जुन स्वामी के दर्शन का फल प्राप्त होता है निचे उतरने पर एक शकर जी का खुबसूरत मंदिर जहा १० रुपये के टिकट पर आरती की जा सकती है यहाँ से नीचे उतरे तो पता चला कि यह आटो डील का आखिरी पडाव था और अब वापस हमें श्रीसैलम कस्बा जाना था। अभी कुल मिला कर २ घंटे भी नहीं हुवे थे .. तो निचे ही एक चाय कोल्ड ड्रिंक की दुकान दिखाई दी तो २ चिल्ड सोडा काकटेल लिया.. झरने के बारे में पूंछा तो बताया गया कि वो तो यहाँ से ६०-७० किलोमीटर दूर है, वो इस डील का हिस्सा नही था! हालांकि घूमने के लिए यहां और भी कई जगहें हैं। इनमें पंचमठम का श्रीशैलम के इतिहास और संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उच्च अध्ययन को समर्पित इन मठों का इतिहास सातवीं सदी से शुरू होता है। तब यहां कई मठ थे, अब केवल पांच बचे हैं और वह भी जीर्ण हालत में हैं। ये मठ श्रीशैलम मुख्य मंदिर से करीब एक किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में स्थित हैं। शिखरेश्वरम मंदिर में गर्भगृह और अंतरालय के अलावा 16 स्तंभों वाला मुखमंडपम भी है। यहां के इष्ट वीर शंकर स्वामी हैं, जिन्हें शिखरेश्वरम के रूप में पूजा जाता है। । सुंदर जलप्रपात फलधारा पंचधारा कस्बे से पांच किमी .. नीचे तक सीढियाँ जाती है, पहाड़ से पानी निकल रहा है – इस जगह का नाम है पंचधारा। बाहर बाईं ओर बोर्ड पर नाम लिखा है शायद आपने नहीं देखा। यहाँ पहाड़ से निकलता जो पानी आपने देखा वह वास्तव में थोड़ी-थोड़ी दूर पर पाँच धाराएँ है। माना जाता है कि यहाँ पाँच दिशाओं से पानी आता है जिनमें अगर स्नान न भी कर पाए तो कम से कम हाथ-मुहँ धो लेना शुभ माना जाता है। यहीं पर किनारे छोटा सा मन्दिर जैसा है जिसमें आदि शंकराचार्य की मूर्ति है। इस स्थान को भागीरथ की तपस्या से जोड़ा जाता है और शंकराचार्य का यही स्थान माना जाता है। नीचे का झरना तो सूख ही गया है। अगर आपने आस-पास बोर्डो पर नज़र डाली होती तो पूरी जानकारी आपको मिल जाती।और अक्क महादेवी की गुफाएं करीब १० किमी दूर हैं। समय हो तो आप हटकेश्वरम, कैलासद्वारम, भीमुनि कोलानू, इष्ट कामेश्वरी मंदिर, कदलीवनम, नगालूती, भ्रमरांबा चेरुवु, सर्वेश्वरम और गुप्त मल्लिकार्जुनम को भी अपनी यात्रायोजना में शामिल कर सकते हैं। यहां आकर एहसास हुआ कि इस छोटे से कस्बे की हमारे जैसे घुमक्कडी का पूरा आनंद लेने के लिए कम से कम एक हफ्ते का समय चाहिए। मैं इकट्ठे तो इतना समय निकाल नहीं सकता था, खैर तिरुपति से श्रीशैलम के बीच प्रकृति की मनोरम झांकियों ने हमारे मन का भारीपन भी खुद हर लिया .. 

अब ६ बज चूका था तो वापसी , बीच रास्ते में एक नंदी की विशाल मूर्ति तो फोटो खीचते वापस लौट आये होटल थोड़ी देर विश्राम के बाद शाम सात बजे फिर निकल पड़े, माता जी को कमरे में छोड़ नगर दर्शन के लिए। थोड़ी देर मंदिर के मुख्यद्वार के सामने बैठे रहे। गोपुरम वहां से साफ़ दिखाई दे रहा था और उसकी रात्रिकालीन सज्जा भी अद्भुत थी। झिलमिलाती लाइटों से सजे गोपुरम की छटा देखते ही बनती थी। पूरे दिन गर्मी झेलने के बाद अब शाम की ठंडी-ठंडी हवा मुझे बेहद सुकून दे रही थी। छोटे क़स्बे के लिहाज़ से देखें तो बाज़ार बड़ा है, लेकिन अन्य धार्मिक स्थलों की तरह यहां भी पूरा बाज़ार केवल पूजा सामग्रियों से ही अटा पड़ा है। दुकानों पर मोमेंटोज़ ख़ूब मिलते हैं, लेकिन इनका मूल्य काफ़ी अधिक है। खऱीदने लायक चीज़ों में यहां जंगल का असली शहद और काजू की गजक है। शहद के बारे में एक स्थानीय व्यक्ति ने पहले ही बता दिया था कि इसमें धोखाधड़ी बहुत है। बताया जाता है कि यह जंगल से वनवासियों का निकाला हुआ शुद्ध शहद है, लेकिन होता मिलावटी है। अगर आपको असली शहद लेना हो तो उसे म्यूजिय़म (चेंचू लक्ष्मी ट्राइबल म्यूजिय़म) से ही लें। गजक भी 400 रुपये किलो था। घूमने से इतना तो मालूम चला कि यह देर रात तक जागने वाला शहर है। जो बचा खुचा था सब कैमरे में कैद कर लिया फिर ९ बजे वापस रूम में और माता जी को ले कर खाने की खोज में , पास में ही मंदिर एक नार्थ इंडियन ढाबा दिख गया, वहा दाल रोटी और पनीर की सब्जी, मन तृप्त हुवा, रात्रि विश्राम के लिए होटल वापस आराम की चैन की नींद, क्यों की कल सुबह निकलना था मदुरै के लिए जिसके लिए हमारी बस थी कर्नूल के लिए वहा से डीलक्स बस मदुरई के लिए 



















सुबह 7 बजे नींद खुली तो माता जी नहा धो तैयार थी पूजा में ब्यस्त... हमने भी चाय मगा नहा धो तैयार हो गए ९ बजे तक, अब नास्ते के लिए सामने ही एक दक्षिण भारतीय ढाबा में इडली डोसा और पूरी सब्जी का आन्नद लिया और सामान ले श्री सैलम बस स्टैंड पर पहुच १२ बजे की बस पकड ली कर्नूल के लिए... 


 


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6 comments:

  1. Thank you. Bahot details me likha hai aapne.

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  2. GOOOOOOD--I VISIT ONLY AFTER GETTING THE KNOWLEDGE THROUGH SUCH POSTS---PL KEEP WRITING

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई ।धन्यवाद

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  5. छत्रपती शिवाजी स्पूर्थी केंद्र कैसा लगा?

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