(१ मई २०१५) अब आगे की यात्रा में हम पहुचे एलोरा की विश्वप्रसिद्ध गुफाओ के देखने.घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर से कुछ ५०० मीटर की दुरी पर एलोरा की गुफाएं स्थित हैं. यूनेस्को विश्व विरासत स्थल (Unesco World Heritage Site) का दर्जा प्राप्त है. वस्तुतः ये गुफा मंदिरों का एक समूह है जिसमें हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों के मन्दिर तथा मूर्तियाँ स्थित हैं.एलोरा में कुल ३४ गुफाएं हैं जिनमें से क्रमांक १ से १२ गुफाएं बौद्ध धर्म की हैं, अगली १६ गुफाएं हिन्दू धर्म से सम्बन्धित हैं तथा क्रमांक ३० से ३४ गुफाएं जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करती हैं. ये गुफाएं ५०० -७०० ए.डी. में राष्ट्रकूट राजाओं ने बनवाई थीं.
इन गुफाओं का गहन अध्ययन तथा भ्रमण करने के लिए यात्री को एक पूरा दिन लगता है. यहाँ पर सशुल्क गाइड भी उपलब्ध हैं. अन्य प्रसिद्द गुफाएं अजंता की गुफाएं यहाँ से १०६ किलोमीटर की दुरी पर स्थित है.गुफा नंबर १६ (कैलाशनाथ मंदिर):गुफा नंबर १६ जिसे कैलाशनाथ या कैलाश भी कहते हैं, एलोरा गुफाओं का एक अद्वितीय, अतुल्य, अद्भुत केंद्र बिंदु है. विशेषकर हिन्दू यात्रियों के लिए एलोरा में यह एक मुख्य आकर्षण का केंद्र है. यह एक बहुमंजिला गुफा मंदिर है तथा भगवान् शिव के निवास स्थान कैलाश पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है.
औरंगाबाद के पास चट्टानों को काट कर बनाई एलोरा की गुफाएं पर्यटकों के लिए बरसों से आकर्षण का केंद्र रही हैं। यहां ३४ गुफाएं हैं। दो किलोमीटर में फैले ३४ मठों और मंदिरों का ऐतिहासिक और
पुरातात्विक महत्व भी है। ये सभी गुफाएं ६०० से १००० ईस्वी के दौरान बनवाई
गई थी। इन्हें देखने के लिए आज भी देश और दुनिया से बड़ी संख्या में लोग
आते हैं। एलोरा की गुफाएं शायादरी पहाड़ी क्षेत्र में आती हैं। यह पहाड़ गोदावरी नदी की लहरों से भी इन गुफाओं की रक्षा करती हैं। इन पहाडि़यों में लगभग सौ गुफाएं हैं मगर एलोरा की ३४ गुफाएं बेहतरीन पर्यटक स्थल मानी जाती है। इन गुफाओं में लगी बुद्ध की मूर्तियां आज भी जीवंत लगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध हमें संदेश दे रहे हैं। वैसे सबसे पहले बुद्ध गुफाओं का ही निर्माण हुआ था।
पांचवीं से सातवीं शताब्दी के बीच मठ और बहुमंजिला इमारत के साथ-साथ रहने के लिए आवास भी बनाए गए। सातवीं शताब्दी के बाद हिंदु गुफाओं का निर्माण शुरू हुआ। इन गुफाओं को बेहद भिन्न व रचनात्मक तरीके से बनाया गया हैं। इन्हें देखकर यही लगता हैं कि कोई अब इन्हें बनाए तो सदियां लग जाएगी। फिर भी इतनी बेहतरीन कलाकृति बनाना अब असंभव ही है। इतनी घुमाई के बाद तो हालत अपनी पंचर हो चुकी थी, अम्मा हर जगह खरीददारी में भी ब्यस्त हो जाती थी २ बज गया था तो अपने विमान के चालक से खाना खाने के लिए निवेदन किया तब तक हमारी गाड़ी ऐसे रेस्टुरेंट पर रुकी जहा भारत वर्ष के हर स्वाद का खाना मिलता था.. तुरंत ही अम्मा को ले अन्दर पहुचे , अम्मा के लिए जैनी थाली और अपने लिए पंजाबी.. वाह मजा आ गया भोजन करके
दौलताबाद किला : टिकट ले अन्दर पहुचे तो बाप रे किला... उपर जाते जाते तो हम एक दम ही उपर चले जायेगे.. खैर माता जी ने हिम्मत दी तो बड चले अन्दर , धुप भी तेज थी ... तो धीरे धीरे पहुच गए मुख्य द्वार .. वही किताब बिक रही थी.. बस अब क्या ... पूरा इतिहास उसी में.. तो जहा तक चल सकते थे चले.. उस किताब के अनुसार दौलताबाद (19° 57' उत्तर; ७५°° १५ ' पूर्व) औरंगाबाद जिला मुख्यालय के उत्तर-पश्चिम में १५ कि॰मी. की दूरी पर स्थित है और एलोरा गुफाओं के रास्ते के बीच में है। दौलताबाद या लक्ष्मी का निवास' नाम मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा तब दिया गया था जब सन् १३२७ में उसने अपनी राजधानी यहां बसाई थी। प्राचीन नाम देवगिरि या देओगिरि का अर्थ देवगिरि के यादवों के काल में देवताओं की पहाड़ी' था। आरम्भ में यादव आधुनिक धूलिया और नासिक जिलों के क्षेत्र पर कल्याणी के चालुक्यों के अधीन शासन कर रहे थे और उनकी राजधानी चंद्रादित्यपुर (आधुनिक चंदौर, नासिक जिला) थी। एक शक्तिशाली यादव शासक] भिल्लम-५ ने होयसाल वंश, परमारों और चालुक्यों के विरूद्ध विजयी अभियानों का नेतृत्व किया और देवगिरि नगर की स्थापना की और अपनी राजधानी यहां बनाई। उसके बाद से उत्तरवर्ती यादव शासकों ने अपनी राजधानी यहीं बनाए रखी। कृष्णा के पुत्र रामचंद्र देव के शासन काल के दौरान अलाउद्दीन खिलजी ने सन् १२९६ में देवगिरि पर हमला किया और उस पर कब्जा कर लिया। तथापि रामचंद्रदेव को एक मातहत के रूप में यहां से शासन करने की अनुमति थी। बाद में मलिक काफूर ने क्रमश: सन् १३०६-०७ और १३१२ में रामचंद्र देव और उसके पुत्र शंकर देव के विरूद्ध किए गए दो हमलों का नेतृत्व किया। सन् १३१२ वाले हमले में शंकर देव मारा गया। मलिक काफूर द्वारा हरपालदेव को सिंहासन पर बिठाया गया जिसने बाद में स्वतंत्रता हासिल कर ली। इसके परिणामस्वरूप देवगिरि के खिलाफ कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खिलजी ने एक और हमला किया और सफल हुआ और यह किला दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। दिल्ली में मुहम्मद बिन तुगलक खिलजी वंश का उत्तराधिकारी बना और उसने देवगिरि का पुन: नामकरण दौलताबाद कर दिया और इसके अजेय किले को देखते हुए उसने अपनी राजधानी सन् १३२८ में दिल्ली से यहां स्थानांतरित कर ली। इसके बहुत गंभीर परिणाम हुए और उसे पुन: अपनी राजधानी स्थानांतरित करके वापस दिल्ली ले जानी पड़ी। यह क्षेत्र और यहां का किला सन् १३४७ में हसन गंगू के अधीन बहमनी शासकों के हाथों में और फिर सन् १४९९ में अहमदनगर की निजामशाहियों के हाथ में चला गया। सन् १६०७ में दौलताबाद निजाम शाह राजवंश की राजधानी बन गया। बार-बार होने वाले हमलों तथा इस अवधि के दौरान स्थानीय शासक परिवारों के बीच आंतरिक झगड़ों के कारण दक्कन ने उथल-पुथल भरा लंबा समय देखा। अकबर और शाहजहां के शासनकाल के दौरान मुगलों ने यहां कई हमले किए और शाहजहां के शासनकाल के दौरान ही चार माह की लंबी घेरेबंदी के बाद यह क्षेत्र सन् १६३३ में पूर्णतया मुगलों के कब्जे में आ गया। अत: मुगलों ने सत्ता प्राप्त कर ली और औरंगजेब को दक्कन का वायसराय बनाया गया जिसने दौलताबाद से बीजापुर और गोलकोंडा पर अपने हमलों का नेतृत्व किया। मराठों की बढ़ती शक्ति ने मुगलों के लिए परेशानी खड़ी कर दी और कुछ समय के बाद यह क्षेत्र मराठों के नियंत्रण में आ गया। अत: दौलताबाद किले पर कई शासकों का शासन रहा, इस पर बार-बार कब्जे होते रहे, कभी यह मुगलों के आधिपत्य में रहा, कभी मराठों के और कभी पेशवाओं के और अंत में सन् १७२४ में यह हैदराबाद के निजामों के नियंत्रण में आ गया और स्वतंत्रता प्राप्ति तक उन्हीं के नियंत्रण में रहा।
मध्यकाल में दौलताबाद का किला सर्वाधिक शक्तिशाली किलों में से एक था। यह किला २०० मीटर ऊंची शंक्वाकार पहाड़ी पर बना था और पहाड़ी के चारों ओर इसके नीचे की ओर खाइयां और ढलानें इसकी रक्षा करती थीं। इसके अलावा इसकी रक्षा प्रणाली सर्वाधिक जटिल और पेचीदा थी। किलेबंदी में बुर्जों सहित तीन घेराबंदी दीवारें थीं। बाह्य दीवार के बीच से प्रवेश किले के बाहर बने दो मजबूत अधूरे बुर्जों से होकर किया जाता है जिसमें एक के बाद एक अनेक द्वार और प्रांगण हैं। इसमें बाह्य भागों पर बहुत मोटी और ऊंची कुंडलित दीवारें हैं और यह बड़े बुर्जों द्वारा रक्षित हैं जो प्रांगण रहित भी हैं और प्रांगणों के भीतर भी हैं। बाद के किसी काल का गढ़गज जिसका प्रवेश मार्ग खंडित हो चुका है, किले के बाहर बने दो अधूरे बुर्जों के समक्ष खड़ा है। प्रवेश मार्ग के दायीं ओर एक बहुत बड़ा बुर्ज है। द्वार के ऊपर प्रवेशमार्ग के मुख पर तोपखाने के निमित्त तीन बड़े विवर बनाए गए हैं। गढ़गज से प्रथम प्रांगण तक का प्रवेश मार्ग एक बड़े मेहराबदार मार्ग से होकर जाता है जिसमें बीच में एक मोड़ है और प्रवेश मार्ग पर दो पल्लों वाला दरवाजा है। गार्ड के लिए दायीं ओर एक बड़ा आला है और बायीं ओर द्वार के ऊपर प्राकार दीवार के लिए सीढ़ी है। हाथी के हमले से बचने के लिए जटित और कीलदार बाह्य द्वार अभी भी विद्यमान है। यह एक दुर्जेय अवरोधक है जिसे पृष्ठ भाग में थोड़े-थोड़े अंतराल पर भारी काष्ठ पट्टियां लगाकर मजबूत बनाया गया है और जब यह दरवाजा बंद हो जाता है तो काष्ठ की एक वर्गाकार छड़ द्वारा यह सुरक्षित रहता है जो एक लंबी सॉकेट से एक पाखे में निकलती है और दरवाजे के पीछे चली जाती है और दूसरे पाखे के एक सॉकेट में फंस जाती है। लोहे की कीलें द्वार के मुख पर क्षैतिजीय पंक्तियों में लगाई गईं हैं।अगले द्वार मार्ग को मजबूत बुर्जों और एक पंक्तिबद्ध मुंडेर (प्राचीर) द्वारा रक्षित किया गया है। यहां दो पल्लों वाला केवल एक ही दरवाजा है लेकिन यह भी भारी संरचना वाला है और लोहे की कीलों से शस्त्र-सज्जित है। प्रवेश द्वार के भीतर ही दो गार्ड कक्ष हैं और दोनों में ही महराबी आले हैं। दूसरे प्रवेश द्वार की ओर अभिमुख अगले प्रांगण में एक विशाल शंक्वाकार बुर्ज है जिसका ऊपरी भाग लुप्त हो चुका है और इस बुर्ज से, इसकी ऊंचाई के लगभग बीचोंबीच नक्काशीयुक्त टोडों पर टिका एक आच्छादित छज्जा बाहर की ओर निकला दिखाई देता है। किले के बाहर दो अधूरे बुर्जों में स्थित अनुवर्ती द्वार तक पहुँचने के लिए किसी भी व्यक्ति को सभी ओर से सटकर निकलने के लिए बनाए गए प्रांगण के बीच में से तिरछे होकर गुजरना होगा। यह प्रवेश द्वार पहले वाले दरवाजों से कहीं अधिक संकीर्ण है जो केवल एकल दो पल्लों वाले दरवाजे से ही बंद होता है।दूसरे आवरण से प्रवेश अपेक्षाकृत सरल है। यहां भी प्रवेश द्वार संकीर्ण है और प्रवेश द्वार की रक्षा, मार्ग के दोनों ओर बने गार्ड कक्षों द्वारा अंदर से ही होती है। यह दुर्ग तुगलक के महल और बाद के काल के अनेक महलों के खंडहरों वाले क्षेत्र से घिरा हुआ है। बाह्य भाग में भी असंख्य ध्वस्त भवन हैं जिनमें महल, मंदिर और मस्जिदें शामिल हैं। इसके अलावा, यहां एक सुंदर और उत्कृष्ट मीनार भी है जो ३० मीटर ऊंची है और जिसका घेरा २१ मीटर है। इस मीनार को चांद मीनार के नाम से जाना जाता है और इसका निर्माण सुलतान अला-उदृदीन बहमनी (सुलतान अहमद शाह ।।) ने सन् १४४७ में करवाया था। तीसरी दीवार पहाड़ी पर बहुत ऊपर तक जाती है और इसकी चढ़ाई धीरे-धीरे खड़ी होती जाती है। यहां पर प्रवेश जटिल है और इसको पार करना कठिन है। इसकी रक्षा के लिए दोनों ओर बुर्ज हैं। प्रथम द्वार तक सीढ़ियां जाती है। यदि इस दरवाजे को धकेल भी दिया जाता है तो आक्रमणकारी को सीधे अपने सामने एक आले में गार्डो का सामना करना पड़ता है और यदि वह आगे बढ़ जाता है तो दायीं ओर के एक द्वार पर उसे आगे बढ़ने से रोका जा सकता है जो उपर जाने वाली सीढ़ियों से दीवार में से एक रास्ते में जाकर खुलता है। यहां भी पीछे की ओर एक विशाल आले में तैनात गार्ड उस पर हमला कर देंगे। यह आला मार्ग के दायीं ओर है और तीसरा आला सीधे उसके सम्मुख होगा। एक तीसरा दरवाजा जो बायीं ओर सीढियों पर खुलता है और यदि पीछे से हमला होता है तो आक्रमणकारी को दीवार के भीतर प्रवेश करने से पूर्व उसे पार करना होगा।इस स्तर से ऊपर जाते हुए और दग्धालंकृत खर्परों से सुसज्जित एक महल, चीनी महल के खंडहरों से गुजरते हुए हम दुर्ग के निचले सिरे पर एक चबूतरे पर पहुंच जाते हैं। चीनी महल की बगल में एक बहुत बड़ी तोप
नीबू पानी
रखी है जिसे औरंगजेब के शासन काल के दौरान निर्मित किया गया था। इसे 'मेंढा तोप' के नाम से भी जाना जाता है। दुर्ग के प्रवेश द्वार पर एक चौड़ी और गहरी पानी से भरी खाई से सुरक्षा कवच बनाया गया है जिससे इस पर बांध बन गए हैं और पुल के लिए गैर-परंपरागत डिजाइन का एक जलनिमज्जित पक्का नदी पथ है। यह प्रतिकगार से सीढियों द्वारा एकदम नीचे जाता है और दूसरी ओर गैलरी के स्तर पर उपर पहुंचता है। यह गैलरी एक उंचे बुर्ज के तीनों ओर गोलाकार घूमती है और यदि कोई हमलावर इसमें से हो कर गुजरता है तो बुर्ज के परकोटे और खाई के प्रतिकगार पर स्थित ऊंची दीवार और मजबूत टावर से उस पर हमला होगा। यह दीवार और टावर इस प्रकार से बने हैं कि उस दिशा की ओर देखा जा सके। गैलरी के आखिर में कुछ सीढियां नीचे एक छोटे खुले प्रांगण में जाती हैं जिसकी एक ओर सुरंग का प्रवेश मार्ग है। ऊपर की ओर जाती हुई लंबी सुरंग खड़ी सीढियों द्वारा खड़ी और घुमाव खाती हुई उपर बढ़ती रहती है।
इसमें थोड़े-थोड़े अंतराल पर जो विवर आते हैं वे उन गार्डो (प्रहरियों) के कक्ष हैं जिनके हाथ में सुरंग के इस मार्ग की कमान थी। सुरंग के मुखपर लोहे का एक शटर है जो छोटे पहियों पर क्षैतिजीय रूप में एक चोर दरवाजे की भांति विवर को खोलते-बंद करते हुए चलता है। इस सुरंग का एक सर्वाधिक प्रभावी रक्षा उपाय यह था कि इसमें धुएं के एक अवरोधक की व्यवस्था की गई थी। लगभग आधा रास्ता पार करके एक स्थान पर, जहां सुरंग चट्टान के ऊर्ध्वाधर मुख के पास से होकर गुजरती है, एक सुराख बनाया गया था ताकि लोहे की एक अंगीठी में आग के लिए हवा का प्रवाह बन सके। यह अंगीठी सुरंग में खुलने वाले एक छोटे कक्ष के विवर में स्थापित की गई थी और जब आग सुलगती थी तो सुराख से बहने वाली हवा धुएं को सुरंग में उड़ा देती थी और सुरंग के मार्ग को दुर्गम बना देती थी।सुरंग के सिरे पर चोर दरवाजे से निकल कर सीढियों की बहुत चौड़ी और लंबी श्रंखला के आधार पर पहुंचते हैं। ये सीढियां ऊपर बारादरी को जाती हैं जो गर्मियों का निवास स्थान होता था और इसे सन् १६३६ ई. में शाहजहां के लिए दौलताबाद में उसके आगमन पर बनाया गया था।
इस स्तर से एक और सीढ़ी दुर्ग के शीर्ष स्तर या चोटी तक जाती है जहां १८ वीं सदी की एक पुरानी तोप अपने मूल सांचे में पड़ी है। दुर्ग में इसके अपने बारहमासी जल स्रोतों से पानी की पर्याप्त आपूर्ति हो जाती थी।
इस स्तर से एक और सीढ़ी दुर्ग के शीर्ष स्तर या चोटी तक जाती है जहां १८ वीं सदी की एक पुरानी तोप अपने मूल सांचे में पड़ी है। दुर्ग में इसके अपने बारहमासी जल स्रोतों से पानी की पर्याप्त आपूर्ति हो जाती थी।
फिर पहुचे हम बीबी का मकबरा, औरंगाबाद
बीबी का मकबरा मुगल सम्राट औरंगज़ेब (१६५८-१७०७ ईसवी) की पत्नी रबिया-उल-दौरानी उर्फ दिलरास बानो बेगम का एक सुंदर मकबरा है। ऐसा माना जाता है कि इस मकबरे का निर्माण राजकुमार आजम शाह ने अपनी मां की स्मृति में सन् १६५१ से १६६१ के दौरान करवाया। मुख्य प्रवेश द्वार पर पाए गए एक अभिलेख में यह उल्लेख है कि यह मकबरा अताउल्ला नामक एक वास्तुकार और हंसपत राय नामक एक इंजीनियर द्वारा अभिकल्पित और निर्मित किया गया। इस मकबरे का प्रेरणा स्रोत आगरे का विश्व प्रसिद्ध ताजमहल रहा जिसका निर्माण सन् १६३१ और १६४८ के बीच हुआ और इसलिए इसे ठीक ही दक्कन के ताज के नाम से जाना जाता है।
बीबी का मकबरा मुगल सम्राट औरंगज़ेब (१६५८-१७०७ ईसवी) की पत्नी रबिया-उल-दौरानी उर्फ दिलरास बानो बेगम का एक सुंदर मकबरा है। ऐसा माना जाता है कि इस मकबरे का निर्माण राजकुमार आजम शाह ने अपनी मां की स्मृति में सन् १६५१ से १६६१ के दौरान करवाया। मुख्य प्रवेश द्वार पर पाए गए एक अभिलेख में यह उल्लेख है कि यह मकबरा अताउल्ला नामक एक वास्तुकार और हंसपत राय नामक एक इंजीनियर द्वारा अभिकल्पित और निर्मित किया गया। इस मकबरे का प्रेरणा स्रोत आगरे का विश्व प्रसिद्ध ताजमहल रहा जिसका निर्माण सन् १६३१ और १६४८ के बीच हुआ और इसलिए इसे ठीक ही दक्कन के ताज के नाम से जाना जाता है।
५ बज चूका था अब आखिरी जल योजना का अनूठा नमूना ४०० साल पुरानी पनचक्की महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर में का एक और आकर्षण है पनचक्की। पन चक्की यानी पानी से चलने वाली चक्की। इस चक्की से कभी आटा पिसा जाता था। इस आटे से सूफी संत के दरबार में आने वाले श्रद्धालुओं के लिए रोटियां बनती थीं। अब भी इस पनचक्की को देखने पर्यटक बड़ी संख्या में आते है।
ये पन चक्की जल संरक्षण का अनूठा उदाहरण है। इसे देखकर साइफन पद्धति का प्रयोग पता चलता है। पनचक्की से ८ किलोमीटर की दूरी पर जटवाड़ा की पहाड़ी है।
इस पहाड़ी को खोदने पर ३० फीट के झरने का पता चला। इस पानी को इकट्टा करके नहर द्वारा पनचक्की वाले स्थान तक लाया गया। इस पानी को भूमिगत नहर द्वारा ८ किलोमीटर तक लाया गया है। यहां पर मिट्टी के विशाल पाइप से पानी को २० फीट ऊंचाई पर उठाया गया है। यहां पर पानी झरने के रूप में हौज में गिरता हुआ आज भी दिखाई देता है। इसे सूफी संत बाबा शाह मुसाफिर ने १६२४ में बनवाना शुरू किया था। हजरत बाबा शाह मुसाफिर रूस से शहर राज्बदान ( बुखारा) से यहां पर आए थे। शाह मुसाफिर ने इस जगह को अपना तकिया ( ठिकाना) बनाया। ये पनचक्की उन्ही के खास प्रयास से बनवाई गई। ये ऐतिहासिक पनचक्की १६४४ ई में बनकर तैयार हुई। यह चक्की आज भी पानी की सप्लाई सही होने पर चलती है। चक्की के ऊपर वाले कमरे में एक मिट्टी का चाक है जो चलता हुआ दिखाई देता है। इस चाक पर गेहूं से आटा पिसा जाता था। इस चक्की से पीसे जाने वाले आटे से तकिया पर आने वाले यतीमो के लिए रोटियां बनाई जाती थी। पनचक्की के बगल में बने पानी के हौज के बगल में एक विशाल बरगद का पेड़ है। इस पेड़ के साथ लिखा है कि ६०० साल पुराना है। छोटे से सरोवर के पास ये पेड़ जहां राहियों को छाया प्रदान करता है वहीं ये सरोवर के सौंदर्य को और बढ़ा देता है। जल संरक्षण और प्रबंधन का इतना सुंदर नमूना बहुत कम जगह ही देखने को मिलता है। उत्तराखंड के पहाड़ों पर भी कई जगह पनचक्कियां चलाई जाती हैं। पर मैदानी इलाके में इस तरह का नमूना दुर्लभ है। पनचक्की में आया ज्यादा पानी आगे खाम नदी में चला जाता है। यह अपने समय के इंजीनियरिंग का अदभुत नमूना है।
औरंगाबाद शहर के महमूद गेट के पास स्थित बाबा शाह मुसाफिर के इस स्थान पर अंदर एक मसजिद है। यहां पर बाबा शाह मुसाफिर की कब्र है। साथ ही सूफी संत द्वारा इस्तेमाल की गई कई वस्तुएं भी देखी जा सकती हैं। इसी परिसर में सुनहरी महल, जामा मसजिद, औरंगजेब के समय के बगीचे भी हैं। पनचक्की के परिसर में महाराष्ट्र के वक्त बोर्ड का दफ्तर भी है।
और अंत में हम शाम तक औरंगाबाद शहर घूमते घूमते अंत में अपने होटल पहुँच गए थक के चूर हो चुके थे चलते चलते... सो खाने का आर्डर दे कमरे में पहुचे जा कर नहा धो फ्रेश हुवे फिर दिन भर की कहानी अम्मा को सुनाया तब तक खाना भी आ चूका था तो खा पी सो गए क्यों की अब कल का कार्यक्रम था भीमा शंकर ज्योतिर्लिंग .
आगे :>> भीमा शंकर ज्योतिर्लिंग
Share This :
0 comments:
Post a Comment