(५ मई २०१५-मंगलवार, तीर्थ यात्रा का आठवा दिन) ४ मई शाम को चल दिए सोमनाथ - द्वारका ट्रेन # 19251 SMNH OKHA EXP दुरी 408 किलो मीटर, रात में माता जी खाना खा कर सो चुकी थी.. तो हम भी गूगल बाबा के मदत से समझने लगे क्या है.. द्वारिका
भगवान श्री कृष्ण अपने यादव परिवारों सहित मथुरा छोडकर सुराष्ट्र (सौराष्ट्र) में आते है। प्रभु ने
अब अपना बसेरा इस पवित्र भूमि में ही रखने का सोचा है और इस इरादों से वे सौराष्ट्र के समुद्र तट पर घुम रहे थे। उन्हे वहाँ की भूमि से मानो अच्छा लगाव हो गया और अपनी राजधानी स्थल के लिये स्थलचयन कर दिया। तुरंत विश्वकर्माजी को बुलाया गया और प्रभु ने अपनी इच्छा प्रगट की। विश्वकर्माजी ने समुद्र तट पर अपनी दृष्टि डालते हुऐ बताया कि स्थान तो अदभूत है। राजधानी यहीं पर ही बनाना ठीक रहेगा लेकिन भूमि-विस्तार कम पडेगा। ज्यादा भूमि के लिये समुद्र देव से प्रार्थना की गई प्रभु कृष्ण ने खुद समुद्र देव की आराधना की और समुद्रदेव ने तटविस्तार से अपनी सीमा को थोडा अंदर की और लेते हुए द्वारिका के निर्माण का रास्ता खोल दिया। बारह जोजन की भूमि सागर महाराज ने अपने स्थान से हटकर द्वारिका के लिये समर्पित कर दी। फिर तो विश्वकर्मा प्रभु ने श्रीकृष्ण द्वारा कल्पनातीत नगरी का निर्माण कर दिया। सुवर्णनगरी का नाम द्वारिका रखा गया। द्वारावती या कुशस्थलीनाम से उसे जाना जाता था। और एक किवदंती अनुसार श्रीकृष्ण प्रभु जब अपने अंतिम दिनोंमें सोमनाथ के नजदिक आये भालकतिर्थमें एक पारघी के बाण से घायल होकर त्रिवेणीसंगम स्थल पर अपना देहोत्सर्ग किया, तब उनकी बनाई हुई द्वारिका समुद्र में डूब गइ थी।

भारतिय संस्कृति के युगप्रवर्तक - श्रीकृष्ण की पाटनगरी द्वारका:
सिन्धुसागर यानि अरबसागर पर बसी हुई द्वारका गुजरात राज्य के पश्चिम छोर पर बसी हुई है। भगवान श्री कृष्ण से जिसका नाम जुडा हुआ हो वैसा अति प्राचीन तिर्थधाम है। द्वारिका को मोक्षनगरी की नाम से भी जाना जाता है। इसलिये हिन्दु धर्मीयात्री यहाँ वर्षभर दर्शन भाव से आते रहते है। प्रभुश्री कृष्ण ने यहाँ अपना साम्राज्य काफी साल तक फैलाया था। अपने बाल सखा सुदामाजी से सुभग मिलन बेट द्वारिका में हुआ था। प्रभु प्रेम की दीवानी मीराबाई ने भी "मेरे तो गीरधर गोपाल दूसरो ना कोइ रे" गाते हुए अपने अंतिम श्वास इस तिर्थभूमि पर ही त्याग कर मोक्ष मार्ग पर चल दी थी । श्रीकृष्ण के राज्यकाल में द्वारिका सुवर्ण की ही बनी हुइ थी जो कालांतर से समुद्र में समा गई ऐसा माना जाता है। प्रभु के साम्राज्य की समाप्ति के बाद यहाँ गुप्तवंश, पल्लववंश और चालुक्यवंश के भिन्न भिन्न राजाओंने राज्य किया था।
गोमती नदी और सिन्धुसागर (अरबसमुद्र) के संगमस्थान पर खडी हुयी द्वारिका में अदभुत नयनरम्य और जगमशहूर है श्री कृष्ण का जगतमंदिर। इस को करीब २५०० साल पुराना माना गया है। १६० फुट की सतहवाला यह भव्यमंदिर पाँच-पाँच मंजिलो से शोभायमान है। किवदंती में बताया गया, द्वारिका मंदिर तो विश्वनाथ प्रभुने निमिषमात्र में - चौवीस घंटे में – बना दिया था लेकिन उसका अभी अस्तित्व कहाँ, अब जो मंदिर हम देखते है वह पत्थरो की गई शिल्पकला से सभर है। आठ आठ खंभो पर टीका हुआ है मंदिर का गुंबज। मंदिर के बाहर की दिवारें भी पत्थर से बनी हुई है और बाटीक शिल्पकला से सज्ज है। शुध्ध चांदी से आवृत सिहासन पर प्रभु श्री कृष्ण की मूर्ति मंदिर के मुख्य गर्भगृहमें बिराजमान है। श्याम शिलामें से निर्माण की गई प्रभु की मूर्ति चतुर्भूजा है। बडी नयनरम्य और पवित्र मूर्ति है वह द्वारिका से दो किमी के अंतर पर प्रभु की पटरानी देवीजी का १६०० साल पुराना मंदिर है। स्थापत्यकला की गरिमापूर्ण कृतिसम निर्माण किया हुआ है यह मंदिर। समुद्र में करीब ३२ कि.मी. की दूरी पर बेट द्वारका आया हुआ है। यात्री बोट में बैठकर वहाँ के प्राचीन मंदिर संकुल को देखने और अपनी श्रध्धाको पूरा करने वहाँ अवश्य जाते है, पठते- पठते रात का १ बज गया था तो हम भी चादर तान सो गए.. ५ मई सुबह ५.३० पर माता जी की मधुर आवाज.. उठ.. देख कहा पहुचल ट्रेन... पूछ ताछ पर पता चला ट्रेन १ घंटे लेट है तो ७ बजे पहुचेगी द्वारा.. माता जी को बता कर बोगी के गेट पर खड़े हो कर लगे निहारने.. सड़क के दोनों और हरियाली का बेहद खुबसूरत नजारा था, ऐसा आभास हो रहा था मानों किसी ने हरी मखमली कालीन आगुन्तकों का स्वागत करने के लिए बिछा रखा हो। सैकड़ों मवेशियों झुंड बनाकर घास और झाड़ियाँ खा रही थी। भगवान श्री कृष्ण की नगरी में गायों को देखकर उनके बचपन की कहानियाँ याद आने लगी। सैकड़ों पवनचकियां नाचती हुई स्वागत कर रही थी, जैसे जैसे बोल रही हो श्री द्वारकाधीश की नगरी में आपका स्वागत है,आने के लिए धन्यवाद ।
खैर ७.४० पर हमारी लौह पथ गामिनी पहुच गयी द्वारिकाधिस के दरबार में.. सामान ले बाहर निकले
खैर ७.४० पर हमारी लौह पथ गामिनी पहुच गयी द्वारिकाधिस के दरबार में.. सामान ले बाहर निकले

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर जिस जगह पर बना है वहां कोई गाँव या बसाहट नहीं है, यह मंदिर सुनसान तथा वीरान जगह पर बना है, निकटस्थ शहर द्वारका ही है जो यहाँ से १८ किलोमीटर दूर है. शिव महापुराण के द्वादाश्ज्योतिर्लिंग स्तोत्रं के अनुसार नागेशं दारुकावने अर्थात नागेश्वर जो द्वारका के समीप वन में स्थित है.
'एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्। सर्वान् कामानियाद् धीमान् महापातकनाशनम्॥'
पौराणिक इतिहासइस प्रसिद्ध शिवलिंग की स्थापना के सम्बन्ध में इतिहास इस प्रकार है- एक धर्मात्मा, सदाचारी और शिव जी का अनन्य वैश्य भक्त था, जिसका नाम 'सुप्रिय' था। जब वह नौका (नाव) पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय 'दारूक' नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बन्दी बना लिया। चूँकि सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिव जी की आराधना में तन्मय रहता था। कारागार में भी उसकी आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति का ही बोल-बाला हो गया। जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली, तो वह क्रोध में उबल उठा। उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है, तो उसे डाँटते हुए बोला– 'अरे वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र रच रहा है?' वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, इसलिए उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा। घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में ही लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में ही दर्शन दिया। कारागार में एक ऊँचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। शंकरजी ने उस समय सुप्रिय वैश्य का अपना एक पाशुपतास्त्र भी दिया और उसके बाद वे अन्तर्धान (लुप्त) हो गये। पाशुपतास्त्र (अस्त्र) प्राप्त करने के बाद सुप्रिय ने उसक बल से समचे राक्षसों का संहार कर डाला और अन्त में वह स्वयं शिवलोक को प्राप्त हुआ। भगवान शिव के निर्देशानुसार ही उस शिवलिंग का नाम 'नागेश्वर ज्योतिर्लिंग' पड़ा। 'नागेश्वर ज्योतिर्लिंग' के दर्शन करने के बाद जो मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है शिव की विशाल मूर्ति बहुत दूर रोड से ही दिखाई देने लग जाती है, यह मूर्ति बहुत ही सुंदर है तथा भक्तों का मन मोह लेती है.

यहाँ पर मंदिर परिसर में भगवान शिव की पद्मासन मुद्रा में एक विशालकाय मूर्ति जो १२५ फीट ऊंची तथा २५ फीट चौड़ी है यहाँ का मुख्य आकर्षण है. इस मूर्ति के आसपास पक्षियों का झुण्ड मंडराते रहता है तो बाहर आकर शिव जी की उस विशाल प्रतिमा के सामने हमने भी बहुत देर तक पक्षियों को दाना चुगाया तथा फोटोग्राफी की. नागेश्वर के वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण, सूपर केसेट्स इंडस्ट्री के मालिक स्वर्गीय श्री गुलशन कुमार ने करवाया था. उन्होंने इस जीर्णोद्धार का कार्य १९९६ में शुरू करवाया, तथा इस बीच उनकी हत्या हो जाने के कारण उनके परिवार ने इस मंदिर का कार्य पूर्ण करवाया. मंदिर निर्माण में लगभग १.२५ करोड़ की लागत आई जिसे गुलशन कुमार चेरिटेबल ट्रस्ट ने अदा किया.
विभिन्न पूजाएँ:
विभिन्न पूजाएँ:
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में मंदिर प्रबंधन समिति के द्वारा भक्तों की सुविधा के लिए रु. १०५ से लेकर रु. २१०१ के बीच विभिन्न प्रकार की पूजाएँ सशुल्क सम्पन्न कराई जाती हैं. जिन भक्तों को पूजन अभिषेक करवाना होता है, उन्हें मंदिर के पूजा काउंटर पर शुल्क जमा करवाकर रसीद प्राप्त करनी होती है, तत्पश्चात मंदिर समिति भक्त के साथ एक पुरोहित को अभिषेक के लिए भेजती है जो भक्त को लेकर गर्भगृह में लेकर जाता है तथा शुल्क के अनुसार पूजा करवाता है. ऐसा भी कहा जाता है कि दारूका और दारूकी नाम के एक असुर जोडे के नाम पर ही इस जगह का नाम दारूकावन पडा और बाद में इसी नाम का अपभ्रंश द्धारका हो गया
मंदिर की समय सारिणी
मंदिर की समय सारिणी
नागेश्वर मंदिर सुबह पांच बजे प्रात: आरती के साथ खुलता है जबकि आम जनता के लिए मंदिर छ: बजे खुलता है। सुबह से ही मंदिर के पुजारियों द्वारा कई तरह की पूजा और अभिषेक किए जाते हैं। भक्तों के लिए शाम चार बजे श्रृंगार दर्शन होता है जिसके बाद गर्भगृह में प्रवेश बंद हो जाता है। आरती शाम सात बजे होती है तथा रात नौ बजे मंदिर बंद हो जाता है। त्यौहारों के समय यह मंदिर ज्यादा समय के लिए खोल दिए जाते हैं।
अब यहाँ का दर्शन पूजन समाप्त हो चूका था, मंदिर के बाहर कोई अच्छा रेस्टुरेंट नहीं मिला तो माँ को गन्ने का जूस ही पिला दिया, माँ सोमनाथ से सिंग दाना खरीद कर रखी थी बैग में तो माँ बेटे दोनों ने मिल का खाया फिर लौट चले होटल, १२ बज चूका था, अगला दर्शन २ बजे से शुरू होने वाला था तो कमरे में पहुच कर थोड़ी देर आराम करके, होटल में ही गुजराती थाली का भरपूर मजा लिया, माता जी के लिए बिना प्याज लहसुन वाला भी एक सब्जी मिल गया तो दाल रोटी गुजराती स्टाइल में भोजन कर के २ बजे निकल पड़े द्वारका दर्शन के लिए ..
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अच्छी जानकारी शुक्रिया
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